राजस्थान पत्रिका, 6 मई 2023 |
चार्ल्स कोरिया वास्तुविद् ही नहीं थे बल्कि कलाओं की गहरी सूझ से भी जुड़े हुए थे। कुछ अरसा पहले हरिश्चन्द्र माथुर राज्य लोक प्रशासन संस्थान में उनका एक व्याख्यान हुआ था। सुनने गया तो अनुभूत किया उनकी दृष्टि इमारतों में संस्कृति की जीवंतता से जुड़ी थी। संवाद में उनका कहा अभी भी ज़हन में बसा है कि कोई वास्तु संरचना तीन पायों पर खड़ी होती है। पहला पाया है जलवायु दूसरा—तकनीक और तीसरी संस्कृति। मुझे लगता है, सबसे मजबूत कोई पाया है तो वह संस्कृति का है। कोई सार्वजनिक इमारत अपनी सार्थकता तभी बनाए रख सकती है जब वहां पर संस्कृति के मूल्यों का पोषण हो। इमारत सुविधा संपन्न तो तकनीक से हो सकती है परन्तु वहां स्पेस और अनुभूति मे सुदंरता तभी होगी जब कला—संपन्न दृष्टि उसके निर्माण की होगी। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र और भोपाल के भारत भवन को देखेंगे तो इसे गहरे से महसूस कर सकेंगे। मुझे यह भी लगता है कोई इमारत सांस लेती प्रतीत भी तभी होती है, जब वहां संस्कृति से जुड़ी हमारी परंपराओं के आयोजनों में आधुनिक समय संदर्भों की गवाही हों।
वास्तु को हमारे यहां कलाओं की माता कहा
गया है। यह सच भी है, किसी इमारत की सुंदरता का पैमाना यह नहीं है कि वह कितने क्षेत्रफल में और
कितनी आधुनिक तकनीक से निर्मित हुई है। यह है कि वहां ठहरते हुए आपको अनुभूति किस
प्रकार की हो रही है। पुराने हमारे मंदिरों के गर्भगृह में बहुत अंधेरा और
संकड़ापन होता है परन्तु वहां अवर्णनीय आनंद की अनुभूति होती है। कन्याकुमारी में तीनों
समुद्रों के संगम स्थल पर मां पार्वती को समर्पित मंदिर की वास्तु संरचना ऐसी है
कि सूर्य का उजास सबसे पहले वहीं होता है। ग्वालियर से कोई 40 किलामीटर दूर
मितावली में बने चौंसठ योगिनी मंदिर से प्रेरणा लेकर ही लुटियन ने भारतीय संसद की
भव्य इमारत कल्पित की। पर इस सत्य को बहुत कम लोग जानते हैं। भारतीय वास्तु
संरचनाओं में स्पेस के साथ अनुभूति से जुड़े भव पर विचार करेंगे तो बहुत कुछ और भी
महत्वपूर्ण मिलेगा।
खजुराहो के मंदिरों संग वहां जब नृत्य
महोत्सव होता है तो उसका जो दृश्य बनता है, वह विरल होता है। यह विडम्बना ही है कि हमने विकास का जो
दृष्टिकोण अपनाया हुआ है, उसमें आय अर्जन और पूंजी निर्माण को ही सर्वाधिक महत्व दिया
हुआ है। आर्थिक संपन्नता का अपना महत्व है परन्तु अर्थ का अतिरिक्त आग्रह
मूल्य—मूढ़ समाज का निर्माण करता है। विकास के नाम पर इंट—गारे की इमारतों, बड़े—बड़े
पुलों और सार्वजनिक पार्कों के जो जंगल तेजी से हमारे चारों ओर बन रहे हैं, वह विकास के
कौनसे मॉडल की ओर हमें ले जा रहे हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
सार्वजनिक इमारतों, सार्वजनिक
पार्कों, उद्यानों और
नवनिर्मित कला केन्द्रों के संदर्भ में यह बात गहरे से देखी जानी चाहिए कि वहां पर
कलाओं के नाम पर विभत्स तो नहीं रचा जा रहा? वास्तु और मूर्तिकला का आरम्भ से ही निकट का नाता रहा है।
किसी वास्तु संरचना में यदि कलाकृतियां उकेरे जाने, मूर्तियों का संसार सिरजे जाने का आग्रह है तो यह जरूर खयाल
रखा जाए कि आकृतियां आंखों को सुहाने वाली हों। जिन्हें देखकर मन सुकून पाएं।
थोड़ा ठहरकर कलाकृतियां देखें तो मन उनसे विरक्त नहीं हों। पर यह विडम्बना है कि
जो कुछ नए सार्वजनिक स्थल बन रहे हैं वहां पर कलाकृतियों के नाम पर कलाकारों की
बजाय मजदूरों से प्राचीन कलाकृतियों, वास्तु संरचनाओं की नकल कराकर निर्माण कार्य तेजी से हो रहे
हैं। विभत्स और भद्दा उकेरा जा रहा है। ऐसा ही यदि होता रहा तो भविष्य की सौंदर्य दृष्टि से सदा के लिए हम क्या महरूम नहीं
हो जाएंगे!
ऐसे दौर में जब तेजी से विचार—विमुखता की
ओर समाज उन्मुख हो रहा हो यह जरूरी है कि सुरूचिपूर्ण, भारतीय
कला—संस्कृति से जुड़ी सौंदर्य—लय की ओर हम लौटें। वास्तु संरचना के हमारे इतिहास
को खंगालते हुए सुंदर सृष्टि और दृष्टि के संवाहक बनें।
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