मन भी तो उत्साह—उमंग से भर उठता हैं। यह पतझड़ के विदा होने का समय है। नए पत्ते उगने, फूलों के खिलने की ऋतु! वानस्पतिक प्राण चेतना संग तुष्टि और तृप्ति—सुख का बोध पर्व है बसंत। कोयल कूकती है तो वन—उपवन भी गा उठता है। हरी घास और हरी हो उठती है। चांद अपने यौवन में चांदनी का जो रस बरसाता है, वह भी तो इन दिनों अद्भुत अपूर्व होता है। विश्वास नहीं हो तो रात्रि को चांद निहारें। पर इमारतों के घटाटोप में यह सुख नहीं मिलेगा। प्रकृति मध्य जाएं, जहां कंक्रीट का जंगल नहीं खुला मैदान हो। चांद वहां आपको इस मधु—मास में अपने आपको निहारने को ललचाएगा। अनुभव करेंगे तो लगेगा, चांदनी जैसे छिटक छिटक दुग्ध पान करा रही है।
बसंत कामदेव का पुत्र है। पौराणिक कथाओं में आता है, शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव ने बसंत को उत्पन्न किया। कामदेव के घर पुत्र जन्मा तो प्रकृति झूम उठी। पेड़ों ने नव पल्लव का पालना डाला। सरसों के खेत में पीले फूल खिल उठे। शीतल मंद पवन बहने लगी। इस मनभावन ऋतु में मादक चाल से चलने वाले अपने वाहन हाथी पर सवार हो कामदेव ने शिव पर बाण छोड़ा तो योगी शिव का भी ध्यान भंग हो गया। आगे की कहानी कामदेव के भस्म होने की है। पर वह बसंत से नहीं जुड़ी है—इसलिए यहां इतना ही। पर सोचिए! बसंत न होता तो महादेव का ध्यान भंग कैसे होता। कैसे फिर मां पार्वती संग शिव का विवाह होता। इसलिए बसंत मुझ अकिंचन का प्रिय पर्व है।
भारतीय संगीत में एक विशेष राग पूरा का पूरा वसंत के नाम पर ही है। रागमाला में प्रसन्नता और उमंग से भरा यह राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। सुनेंगे तो लगेगा प्रकृति के वासंती रंग से मन सराबोर हो रहा है। कोटा शैली में निर्मित रागमाला का एक बहुत सुंदर हरे, नीले और चांद की अनूठी चांदनी का उजास लिए चित्र है—"वसंत रागिनी"। भगवान श्री कृष्ण इसमें गोपियों के साथ नाचते—गाते वसंतोत्सव मना रहे हैं। देखेंगे तो मन करेगा, बस देखते ही रहें। मन को उल्लसित करती, लोक का आलोक लिए बसंत ऋतु ऐसी ही है। हर कोई, इसमें बह गा उठता है। अमीर खुसरो ने इसी बसंत ऋतु में कभी सरसों के फूल अपने उपास्य हजरत औलिया के चरणों पर चढ़ाते हुए गाया था, 'अरब यार तोरी बसंत मनाई, सदा रखिए लाल गुलाल, हज़रत—ख्वाजा संग खेलिए धमाल।'
प्रकृति के रम्य—रंगो संग घुलने की ऋतु ही तो है बसंत। ऋग्वेद में आता है, विष्णु के परम पद से मधु उत्पन्न होता है। बसंत को इसलिए मधु—मास कहा गया है कि सृष्टि पालक विष्णु के रूप में यह सृष्टि के चर—अचर के पत्तल में मधु परोसता हैं। भगवत गीता में श्रीकृष्ण इसीलिए उद्घोष करते हैं, 'ऋतुओं में कुसुमाकर मैं बसंत हूं।' आइए, हम भी इस ऋतु में पुराना सब—भुलाकर पुनर्नवा हों। पुराने पत्ते झड़ेंगे तभी ना नया कुछ उगेगा!
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