कलाएं ईश्वर—रची सृष्टि में सब—कुछ रच सकने की क्षमता की छाया है। काल—बोध का रूपायन है। काल और कलाओं में यही महीन भेद है कि काल जीवन के सभी सूत्रों से हमें तोड़ देता हैं और कलाएं टूटे जीवन—सूत्रों को सहेजकर स्मृति की लूंठी—लय में सृजन की अनंत संभावनाओं से साक्षात् कराती है। काल को स्वीकार करके ही तो उसका अतिक्रमण किया जा सकता है। कुछ दिन पहले 50 वें खजुराहो नृत्य समारोह में व्याख्यान देने जाना हुआ तो वहीं बने सांस्कृतिक गांव—आदिवर्त भी जाने का संयोग हुआ। लगा काल और कला-बोध का भी अनायास बहुत कुछ महत्वपूर्ण संजो लिया है।
आदिवर्त में प्रवेश
करते ही काष्ठ शिल्प में शिव—शक्ति की विरल प्रतिमा से साक्षात हुआ। एक ओर जटाधारी
शिव दूसरी ओर उसी प्रतिमा का शक्ति रूप। पता चला, शैव और शाक्त परम्परा के अंतर्गत मध्यप्रदेश की लगभग सभी
जनजातियों में शिव और शक्ति कहीं बड़ा देव,
लिंगो देव, ठाकुर देव और बाबदेव आदि हैं तो देवी को बूढ़ी दाई, बूढ़ी माई, खैर महारानी ओर बड़की दाई आदि
के रूप में पूजा जाता है। धरती किससे है? शिव और शक्ति से ही तो! सांस्कृतिक गांव आदिवर्त में शिव—शक्ति से सभी
जीव—जंतुओं के पैदा होने और फिर उन्हीं में समाहित होने की लोक मान्यता का विरल
रूपायन है। यहीं पास ही 'सरग नसैनी' का भी कला—रूप है। स्वर्ग तक
ले जानी वाली यह सीढ़ी तलवार की धार लिए है। स्वर्ग तक पहुंचने का मार्ग आसान कहां
है! महाभारत के अंतिम पर्व, स्वर्गारोहण में पांडवों द्वारा धरती छोड़ स्वर्ग की यात्रा पर निकलने की कथा
है। इसमें सबको छोड़ श्वान ही स्वर्ग तक पहुंचने का संदर्भ है। गोण्ड आदिवासियों
में प्रचलित महाभारत के द्रोपदी स्वयंवर प्रसंग में अर्जुन ने अगरिया द्वारा बनाई
गई सरग नसैनी पर चढ़कर ऊपर बैठी किलकिला चिड़िया और नीचे तैरती राधोमनसा मछली को
एक ही तीर से भेद कर जीता था।
ऐसे ही लोक मान्यताओं
के कला—रूपों से साक्षात् कराते सांस्कृतिक गांव आदिवर्त में कोरकू समुदाय में
मृतक की स्मृति में मण्डो बनाने के रिवाज को भी जींवत किया गया है। सागौन की लकड़ी
पर मृतक से जुड़े हुए चित्र और चांद—सूरज, पत्ते, फूल, पशु—पक्षी आदि की आकृतियां
यहां है। कौल जनजाति में कलात्मक सौंदर्य
लिए मृतक स्मृति में बनने वाले स्तंभ भी यहां है तो दीये की लौ में प्रत्येक क्षण
सूर्य में समाहित होने वाले जीवन के भी सुंदर रूपाकार आदिवासी कलाकारों ने यहां
सिरजे हैं। यहां पर 'सृष्टि—कला', 'बाबदेव' सहित जनजातीय कलाओं के बहुविध
रूपों में जनजातीय कलाओं की आधुनिक संस्थापन दृष्टि देखकर भी अचरज हुआ। लगा, लोक में शास्त्रीयता के बीज
आधुनिक दृष्टि में इसी तरह समाए हैं। नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से उसके सागर
में मिलने की यात्रा भी यहां है। यह नर्मदा के पवित्र तटों पर रहने वाले लोगों, वहां मनाए जाने वाले
पर्व—त्योहांरो, उत्सव—यज्ञ और अनुष्ठानों की
स्वयमेव दृष्टि—यात्रा ही तो है।
लोक और जनजातीय कलाएं हूबहू
में व्यंजित नहीं हैं। वहां अलंकारों और प्रतीक—बिम्बों का आलोक हर ओर है। वैसे भी
कला का अर्थ ज्यों का त्यों निरूपण नहीं होता है। कलाएं स्मृति में रचे—बसे जीवन
के सार को हमारे समक्ष उद्घाटित करती है। जनजातीय जीवन कलाओं से किसी भी स्तर पर
अछूता नहीं है। इसीलिए सांस्कृतिक गावं आदिवर्त में गोंड, बैगा, भील, भारिया, कोरकू, कोल एवं सहरिया जनजातियों के
जो घर वहीं रहने वाले कलाकारों ने बनाए हैं,
वह जीवनोपयोगी वस्तुओं के साथ काल से जुड़े उनके कला—बोध को
भी दर्शाते हैं। आदिवर्त संग्रहालय भर नहीं है,
यह कलाओं के जरिए काल—बोध का रूपांकन है। क्या ही अच्छा हो, लोक और हमारी जनजातीय संस्कृति को सहेजने में संग्रहालयों को इसी रूप में जीवंत
करने का प्रयास देशभर में हो। इसी से हम जनजातीय और लोक कलाओं में समाए जीवन के जरिए
कलाओं की सौंदर्य दृष्टि से जुड़ सकेंगें।
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