राजस्थान पत्रिका में आज 'कला—मन' की समीक्षा...
"...लेखक एक ऐसा आकाश दिखाते हैं जिसमें तमाम कलाएं समाए हुई है। इसमें सारी कलाओं का गान है, तथ्य और मर्म के बाद। इनको पढ़ने के बाद पाठक वह नहीं रहता जो इस किताब को पढ़ने से पहले तक था। इसके बाद उसका मन भी लेखक का सा मन हो जाता है, कला—मन।"
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