लोक का वैदिक अर्थ है, उजास। संपूर्ण यह संसार जो दृश्यमान है। लोक शाश्वत है, इसलिए कि वहां जीवन का नाद है। लोक संगीत का जग भी तो अनूठा है! भोर का उजास, तपते तावड़े (धूप) में छांव की आस, सांझ की ललाई और तारों छाई रात में छिटकती चांदनी की विरल व्यंजना लोक संगीत में गूंथी मिलेगी। राजस्थान की तो बड़ी पहचान ही इस रूप में है कि यहां शास्त्रीय की ही तरह लोक कलाओं के भी घराने हैं। सुनने में अचरज लगे, पर यह सच है। मांगणियार, लंगा, मीरासी, ढोली, दमामी आदि जातियां लोक संगीत के घराने ही तो हैं!
पीढ़ी दर पीढ़ी इन घरानों ने न केवल लोक संगीत की परम्परा को सहेजा है बल्कि समय—संगत करते उसमें निंरतर बढ़त भी की है। दूरदर्शन, जयपुर ने हाल ही कलाओं से जुड़ा महती कार्यक्रम 'संवाद' आरम्भ किया है। इसकी शुरूआत ही सुप्रसिद्ध लोकगायक पद्मश्री अनवर खान से हुई है। उनसे कार्यक्रम में जब बातचीत हुई, उनके गान से साक्षात् हुआ तो लगा, राजस्थान का लोकसंगीत शास्त्रीय आलाप, लयकारी की मानिंद माधुर्य का अनुष्ठान है।
अनवर खान मूलत: मांगणियार है परन्तु सुनेंगे तो लगेगा लोक के आलोक में उनके स्वरो में शास्त्रीयता का भी उजास है। स्वरों की गहराई, लयकारी, आलाप और परम्परा से मिले संस्कारों को उन्होंने अपने गान में सदा ही पुनर्नवा किया है।
लोक से जुड़ी गणेश वंदना और मांड राग में गूंथे 'पधारो म्हारे देश' को उन्होंने अलहदा अंदाज में जैसे स्वरों से श्रृंगारित किया है। 'झिरमिर बरसै मेह' 'हिचकी', 'हेलो म्हारो सुणो रामसा पीर' और 'दमादम मस्त कलंदर' जैसे जगचावै गीत, भजन, हरजस—पर लग रहा था जैसे लूंठी लयकारी में कोई शास्त्रीय गायक स्वरों को साध रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों पं. रविशंकर, पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज आदि के समानान्तर उनके भी लोक गायन के कार्यक्र्म निरंतर विदेशों में हुए हैं।
पं. विश्वमोहन भट्ट के साथ कभी उन्होंने 'डेजर्ट स्लाइड' शृंखला के तहत फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैण्ड, अमेरिका, अफ्रिका आदि देशों में मोहनवीणा, कमायचे, खड़ताल संग धोरों का जैसे हेत जगाया। वह गाते हैं, 'पियाजी म्हारा, बालम जी म्हारा...झिरमिर बरसै मेह...' और लगता है बालू रेत बरसती बरखा की बूंदो संग तन और मन दोनों ही भीग—भीग रहे हैं। स्वरों का अनूठा लालित्य! राजस्थानी मांड के दुहों को आलाप में जैसे वह अलंकृत करते हैं। जीवन से जुड़े अनुभवों, प्रकृति की छटाओं और राजस्थानी रीति—रिवाजों को उनका गान जैसे दृश्य रूप देता है।अनवर खान का गान कुछ—कुछ सूफी अंदाज लिए है। एक विरल फक्क्ड़पन उनके स्वरों में है। स्वरों का खुलापन! श्वांस पर अद्भुत नियंत्रण। लोक में बसी शास्त्रीयता। सूफी गान की परम्परा का जैसे वह लोकसंगीत में रूपान्तरण करते हैं। कबीर, सुरदास, मीरा, रैदास के लिखे को वह गाते हैं पर सुनते यह भी लगता है कि लोक ने अपने ढंग से बहुत कुछ और भी उनकी रचनाओं में अपना जोड़ा है।
अनवर खान ने देश के ख्यात—विख्यात शास्त्रीय गायक—संगीतकारों के साथ जुगलबंदियां की हैं। कभी जगजीत सिंह के एलबम 'पधारो म्हारे देश' के मुख्य गीत का मुखड़ा उन्होंने ही गाया तो 'रंग रसिया', 'धनक' जैसे एलबम में भी उनके स्वरों का उजास बिखरा है।
वह गाते हैं तो लगता है जैसे धोरों के जीवन से राग—अनुराग हो रहा है। कोमल कोठारी के शब्दों में कहूं तो लोक संगीत हमारे सामाजिक संबंधों का संगीतमय इतिहास है। अनवर खान को सुनेंगे तो लगेगा, इस इतिहास को अपने स्वरों से वह जीवंत कर रहे हैं।
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