ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, September 11, 2022

"अमर उजाला" साप्ता​हिक किताब में "कला—मन"

सुखद लगता है, जब आपकी लिखी किसी पुस्तक के गहरे में उतरते परख होती है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री डॉ. सी.पी. देवल ने 'अमर उजाला' के लिए "कला—मन" की यह समीक्षा की है।...

भारतीय कलाओं पर हिन्दी में स्तरीय प्रकाशनों की अभी भी बहुत कमी है। डॉ. राजेश कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित वैचारिक निबंधों की पुस्तक ‘कला-मन’ इस कमी को कम करने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। पुस्तक के ‘पुरोवाक’ में ही लेखक भारतीय कला दृष्टि का वैचारिक गान करता हुआ पाश्चात्य जगत की कला समीक्षा को एक कोण विशेष से देखने वाली बताते हुए भारतीय कला दृष्टि की गहराई में ले जाता है। इसीलिए उदाहरणार्थ वह भारतीय कला में उकेरे श्री कृष्ण की चर्चा करता है।

अमर उजाला

व्यास पुस्तक में लिखते हैं कि भारतीय कला दृृष्टि में कृृष्ण की एक पक्षीय छवि नहीं उकेरकर उसके साथ धेनु, बांसूरी, गोपी, मोर मुकुट कदम्ब के पेड़ के साथ और क्या-क्या और नहीं उकेरा गया है! कला की इस भारतीय दृष्टि से देखने की ही आज आवश्यकता है। लेखक इसे चुनौती रूप में स्वीकार कर पुस्तक में अपने विचार और अनुभवों को पाठकों से साझा करता है।

यह महत्वपूर्ण है कि कला के विस्तृत जगत में लेखक डा. व्यास की दृष्टि जहां भी गयी है वह वहीं से देखता कम, पर दिखाता ज्यादा है। लेखक का पूरा जोर कला वस्तु को कैसे देखा जाना चाहिए, इस पर है। वह बहुत बारीकी से देखने की भारतीय ढब को परिभाषित करते हुए छवि को कैसे पढा जाए अर्थात देखा जाए उस ओर भी निरंतर संकेत करता है।

एक कलात्मक आत्मबल के सहारे लेखक चुपचाप भारतीय कला समीक्षा की एक सैद्धान्तिकी भी गढता चला जाता है, जिसकी कि समकालीन समय में बहुत जरूरत है।

‘कला-मन’ पुस्तक हमें कला की उस पगडंडी पर लिए चलती है जहां हम पाठकों का कभी प्रवेश नहीं हुआ है। लेखक हमें कला के सहारे भारतीय सौंदर्यबोध का अहसास कराता हुआ एक तरह से ‘संस्कृति का कला-नाद’ सुनवाता है। लेखक ने ‘लोकतंत्र और कला’, ‘राष्ट्र और संस्कृति’ जैसे बहुत से वैचारिक लेखों में भारतीय कला के सामयिक सवाल उठाए हैं, उनका सहज जवाब भी दिया है।

हमारी कलाओं में लय—ताल और रूप-स्वरूप की भाव व्यंजना के साथ संवेदनाओं पर जोर है। कोई कलाकृति भारतीय आंख से देखने के समय में ही नहीं देखने के बाद भी मन में निरंतर रस की सृष्टि करती है। रस निष्पत्ति की यह अबाध परम्परा ही भारतीय कला का सच है, यह बात भी हमें ‘कला-मन’ पुस्तक समझाती है।

इसे पढ़ने के बाद लेखक व्यास से अपेक्षा करता हूं कि वह भारतीय कला को इसी तरह भारतीय कला शब्दावली में उजागर करने का प्रयास करते रहेंगे। इसी से हमारा भारतीय मन असल में कला गंगा के तीर पर नहाकर अपने को ‘कला-मन’ करने में सक्षम होगा।

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