ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Tuesday, September 13, 2022

भारतीय कला दृष्टि का विचार संस्कार

'दैनिक नवज्योति' में आज सुधि समालोचक श्री कृष्ण बिहारी पाठक ने 'कला—मन' पुस्तक की समीक्षा की है। उन्होंने पुस्तक की गहराई में जाते हुए लिखे को अपनी दीठ दी है—

'कला- मन' कला दृष्टि संपन्न साहित्यकार डॉ. राजेश  कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित कृति है, जिसमें सत्तर विचार प्रधान निबंधों के माध्यम से भारतीय कलाओं में प्रकट - प्रच्छन्न भाव संदर्भों, रूप छवियों और अर्थच्छटाओं को लेखक ने लोकार्पित किया है।कला संदर्भों पर लेखन की विरल परंपरा के बीच यह पुस्तक इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो उठी है कि इसमें भारतीय कलाओं के चैतन्य संस्कारों का प्रतिष्ठापन है। भारतीय कला रूपों को सतही और संकोची दृष्टि से देखती पाश्चात्य चिंतन धारा को ये निबंध तार्किक चुनौती देते हैं।

लेखक के पास अपना एक कला-मन है जिसमें विविध कला रूपों के सृजन और आस्वादन का भरा पूरा संसार है जहाँ सृजन और जीवन की एकरस भूमि पर लेखक चहककर कहता है -"प्रकृति के इस अनाहत नाद में बचेगा वही, जो रचेगा।..इस मूल्य मूढ़ समय में अनुभव संवेदन की हमारी क्षमता के अंतर्गत यह कलाएँ ही है, जो हमें बचाए हुए हैं।"

कला और कलावंतों की यह विविधवर्णी दुनिया अद्भुत है।यहाँ मौन शब्दों को स्वर देती अज्ञेय की काव्य कला है,देखने के सौंदर्य बोध को कलारूप देते छायांकन हैं जो प्रकृति से संवाद करना सिखाते हैं, माटी के सृजन की सोंधी महक से सनी मृण्कलाएं हैं, बहुआयामी कला रूपों का,संवेदनाओं को सहला कर मानव की सुरुचि और सुकुमारता को सहेजता स्पर्श है जिसकी छुअन मानव को मशीनीकृत जड़ता से बचाती है। कलारूपों में अंतर्निहित रस और मिठास की अखंडता को लेखक अभिजात रवींद्रसंगीत की शास्त्रीयता से लेकर लाखा खान की सिंधी सारंगी की लोकधुन में अनुभव कराता है। अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य प्रभाव के चलते विपुल एवं समृद्ध होकर भी भारतीय कला लेखन अपनी भूमि तलाश रहा है।

भारतीय कलाओं के साथ-साथ यह पुस्तक अपनी केंद्रीय चिंता के रूप में कला लेखन की संस्कृति और प्रकृति को संजोने की बात करती है। भाषा, कला, साहित्य और सांस्कृतिक संदर्भों के उपनिवेशीकरण को पुस्तक में निहित वैचारिकता न केवल चिह्नित करती है बल्कि इन संदर्भों के उत्थान का भी मार्ग प्रशस्त करती है। पश्चिम के अंधानुकरण के वेगावेग में भारतीयता की जड़ों को थामने के जतन में लेखक कहता है -

"माधुर्य नकल में नहीं है, उसमें है जो हमारा अपना है।.. हमारे पास अपना इतना कुछ मौलिक है कि उसे हम यदि ढंग से संप्रेषित कर देते हैं तो पश्चिम की ओर देखने की जरूरत ही नहीं रहे।"

मौलिकता और संपन्नता का यह आत्मविश्वास इस पूरी कृति में दमकता है।कला साहित्य और संस्कृति का उन्मुक्त वितान मानव जीवन की संपूर्ण विमाओं तक कैसे विस्तीर्ण है यह इस कृति में रेखांकित है।

तीर्थाटन एवं पर्यटन में सांस्कृतिक बोध का अभिनिवेश, देव प्रतीकों के कलात्मक निहितार्थ, जन और जीवन की सहज क्रियाओं तथा प्राकृतिक ध्वनियों को रचाती - बसाती शास्त्रीय तथा लोक नृत्य परंपराएं, कवींद्र रवींद्र की कला दृष्टि और रूप सृष्टि, बाजारवाद और प्रचारतंत्र में उलझती - सुलझती कलाएँ इन निबंधों में मुखरता से व्यंजित हैं।

कला रूपों में अंतरित होती स्मृतियों - अनुभूतियों में संवहित होती संस्कृति और मूल्य दृष्टि, शब्दब्रह्म की साधना, तकनीकी से मैत्री बैठाती रचनात्मकता, जीवन से जुड़े कला के प्रश्न, कला- संस्कृति को स्पंदित करते संग्रहालय, कावड़ों में गुंफित शिल्पकलाएं, उत्सव, पर्व एवं तीर्थों में संवरती परंपराएं, कला लेखन एवं कलासमीक्षाओं के विविध पक्षों पर सर्वांगपूर्ण विवेचन के साथ यह कृति बार बार पढ़े जाने को आमंत्रित करती है।

—कृष्ण बिहारी पाठक


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