ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 17, 2022

बाजै छै नौबत बाजा

राजस्थान पत्रिका, 17 दिसम्बर 2022


संगीत में काल एवं मान को मिलाते हैं तो ताल की उत्पत्ति होती है। पर ताल का अस्तित्व लय की सहज गति है। शारंगदेव ने अपने ग्रंथ संगीत रत्नाकर में ताल शब्द की व्याख्या करते कहा है, गीत—वाद्य तथा नृत्य के विविध तत्वों को रूपात्मकतः व्यवस्थित करके स्थिरता प्रदान करने वाला और आधार देने वाला तत्त्व ही ताल है। ताल शब्द शिव और शक्ति से भी जुड़ा है। 'ता' से ताण्डव जो शिव के नृत्य से जुड़ा है और 'ला' से लास्य जो शक्तिरूपा मां पार्वती के नृत्य का सूचक है। ताल इसीलिए शिवशक्त्यात्मक है। 

कहते हैं, ताल के रथ पर ही स्वरों की सवारी सजती है। महर्षि भरत ने संगीत में विभिन्न मात्राओं एवं निश्चित वजनों के आधार पर भांत—भांत के 108 तालों का उल्लेख किया है। तबला, पखावज, मृदंग और बहुत से स्तरों पर नगाड़े में ताल की मात्रा क्रम में चंचल और गंभीर अनुभूत होती  इसीलिए हममें बसती है कि वहां ताल के अलग—अलग प्रभाव मन को मोहते हैं।

बहरहाल, यह लिख रहा हूं और देश के ख्यातनाम नगाड़ा वादक नाथूलाल सोलंकी के बजाए नगाड़े की थाप मन में जैसे गुंजरित हो रही है। कुछ दिन पहले ही दूरदर्शन के 'संवाद' कार्यक्रम में उनसे रू—ब—रू होते लयकारियों का विरल सौंदर्य मन में अनुभूत किया।  पूरे माहौल को वह अपने नगाड़ा वादन से जैसे उत्सवधर्मी कर रहे थे। लय के साथ ताल। अंतराल में छोटे और बड़े नगाड़े पर लकड़ी से किए जाने वाले आघात से गूंज कर उसे छोड़ ते तो लगता स्वर यात्रा कर रहे हैं। दूर से आते, फिर से जाते। अपनी गूंज छोड़ते। लगा, नगाड़े पर गूंज—स्वर छटाओं का वह माधुर्य ही रच रहे हैं। सांगीतिक अर्थ ध्वनियों  का नाद योग! 

नगाड़ा वादन में नाथूलाल सोलंकी की पहचान यूं ही नहीं बनी। उन्होंने इस वाद्य में निंरतर अपने को साधा है। मंदिरों में वादन की चली आ रही परम्परा से शुरुआत करते उन्होंने इसमें प्रयोग कर बढ़त की। विश्व के विभिन्न देशों में उनके नगाड़ा नाद को इसीलिए सराहा गया कि वहां प्रचलित एकरसता की बजाय ध्वनियों के उनके अपने रचे छंद थे। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के महल में कभी उन्होंने नगाड़ा नाद किया तो इस वाद्य के देश के पहले वह ऐसे वादक भी बने जिन्होंने 'वर्ल्ड ड्रम म्यूजिक फेस्टिवल' में संगीतप्रेमियों को लुभाया।

हमारे यहां मंदिरों में नौबत बाजों का उल्लेख है। लोकभजन भी है, 'बाजै छै नौबत बाजा म्हारा डिग्गीपुरी रा राजा'। नौबत माने नौ प्रकार के वाद्य। मंदिर में आरती होती तो कभी  कर्णा, सुरना, नफीरी, श्रृंगी, शंख, घण्टा और झांझ के साथ नगाड़ा भी बजता। कबीर की जगचावी वाणी है, 'गगन दमामा बाजिया'। यहां यह जो दमामा है वह संस्कृत की डम धातू से बना नगाड़ा ही है। यह बजता है तो ध्वनियों का लोक बनता है—दम दमा दम। थाप पर थाप। बढ़ता आघात...दुगुन, तिगुन, चौगुन! सोचता हूं, लोक नाट्यों में नगाड़ों का वादन न हो तो उनका प्रदर्शन ही फीका रहे। 

नौटंकी, कुचामणी खयाल और बीकानेर में होने वाली रम्मतों में संवादों के छंदबद्ध ऊंचे स्वरों में किए जाने वाले गान नगाड़ों में ही विशिष्ट रूप में अलंकृत होते हैं। मंदिरों में कभी आरती के समय समूह जुटता तो लोग इसे बजाने का आनंद लेते पर अब वहां नगाड़े तो हैं पर विद्युत संचालित यंत्ररूप में। पसराते हुए। आपको नहीं लगता!


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