ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, December 22, 2022

'कला—मन'-प्रभात प्रकाशन, अगस्त 2022


लेखक हमें कला के सहारे भारतीय सौंदर्यबोध का अहसास कराता हुआ एक तरह से 'संस्कृति का कला—नाद' सुनवाता है।...इसे पढने के बाद हमारा भारतीय मन असल में कला गंगा के तीर पर नहाकर अपने को 'कला—मन' करने में सक्षम होगा।—अमर उजाला 11 सितम्बर 2022

कला—मन में लेखक कला, संस्कृति, लोक कलाओं पर विहंगम दृष्टि डालते मन पर कलाओं पर विचारते हैं।...लेखक एक ऐसा आकाश दिखाते हैं जहां सारी कलाएं समाई हुई है। यहां सारी कलाओं का गान है, तथ्य और मर्म के साथ।...—पत्रिका 16 अक्टूबर, 2022

भारतीय कला पर विमर्श को आमंत्रण देते आलेख बार—बार याद दिलाते चलते हैं कि हम अपने ही कला संसार से दूर होते जा रहे हैं। अपनी कला संस्कृति को दूसरों की आंख से देखना वैसा ही है, जैस अपने अभिभावकों के बारे में दूसरों से सुनकर राय बनाना। हमारी कलाएं हमारे लोक का हिस्सा है, उन्हें समझना, उनको बरतते रहना, प्रवाहमय बना रखना हमारा कर्तव्य है। इसी की बारंबार याद दिलाते हैं लेखक।...यहां अवसाद से भरे, शिकायती लेख नहीं है, जानकारी से भरपूर, सोचने—विचारने को विवश करते शब्द हैं। ज्ञान की प्रस्तुति, ज्ञानार्जन को आमंत्रित करती है।—अहा! जिन्दगी, अक्टूबर, 2022

कला संदर्भों पर लेखन की विरल परम्परा के बीच यह पुस्तक इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो उठी है कि इसमें भारतीय कलाओं के चैतन्य संस्कारों का प्रतिष्ठापन है। भारतीय कला रूपों को सतही और संकोची दृष्टि से देखती पाश्चात्य चिंतन धारा को ये निबंध तार्किक चुनौती देते हैं। लेखक के पास अपना एक कला—मन है जिसमें विविध कला रूपों के सृजन और आस्वादन का भरा—पूरा संसार है जहां सृजन और जीवन की एकरस भूमि पर लेखक चहककर कहता है—प्रकृति के अनाहद नाद में बचेगा वही जो रचेगा।—दैनिक नवज्योति 13 सितम्बर 2022

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