ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 19, 2022

भारतीय मूर्तिकला की विलक्षणता

समकालीन विमर्श में भारतीय मूर्तिकला की विलक्षणता उपेक्षित प्रायः हैं। मुझे लगता है, अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा ने सौंदर्य संबंधी हमारी धारणाओं को जैसे लील लिया है।

राजस्थान पत्रिका, 19 नवम्बर 2022

मूर्तिकला का आस्वाद इसीलिए पर्यटन स्थलों की विरासत तक सीमित होकर रह गया है। इधर एक शोध कार्य के संदर्भ में जब नया कुछ पढ़ने को निरंतर खोज रहा था तो लगा, मूर्तिकला के ऐतिहासिक काल-क्रम को ही पहले के लिखे में थोड़ा-बहुत हेर-फेर कर दूसरों ने भी लिख दिया है।

 पाठ्यपुस्तकों का हाल तो इस कदर बुरा है कि वहां पंक्तिया दर पंक्तियां हूबहू टीप दी गयी है। सोचता हूं, इनको पढ़ने वाले विद्यार्थियों में अपनी कला के प्रति सौंदर्य बोध क्योंकर फिर विकसित होगा!कला कोई भी हो, उसके लिखे में यदि सौंदर्यान्वेषण नहीं होगा, केवल इतिहास से जुड़े तथ्य ही प्रस्तुत होंगे तो उससे रसिकता पैदा नहीं होगी। 

कला शिक्षा से जुड़े पाठ्यक्रम का उद्देश्य इतिहास से विद्यार्थियों को अवगत कराना ही नहीं होता बल्कि विद्यार्थियों को कलाओं के निकट लाना, उन्हें कलाओं से संपन्न कर सौंदर्यबोध विकसित करना होता है। इस दृष्टि से प्राचीन जो सिरजा गया है, उसके भावबोध, उसकी विलक्षणता पर नवीन दृष्टि से विचार क्या जरूरी नहीं है? 

हमारे यहां मूर्तिकला बाह्य से अधिक आंतरिक भावों की गहराई से जुड़ी रही है। सौंदर्य की दृष्टि से अनुपात और लयताल का जो निर्वहन मूर्तिकला में हमारे यहां हुआ है, वह विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है। विभिन्न कालखण्डों की हमारे यहां सिरजी संग्रहालयों में संरक्षित मूर्तियों पर गौर करेंगे तो पाएंगे अनुपात-लय और ताल में मूर्तियां तीव्र और रसमय माधुर्य का आस्वाद कराने वाली है। माने किसी मूर्ति को आपने उसकी समग्रता में देखा है तो एक बार नहीं, बार-बार देखने के लिए वह आपको आमंत्रित करेगी। 

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि मूर्तिकला हमारे यहां चित्र, स्थापत्य और वास्तु-इन तीनों का परस्पर समन्वित स्वरूप है। बुद्ध की मूर्ति को ही लें। बुद्ध मूर्तिकला के विरोधी थे परन्तु सर्वाधिक मूर्तियां उन्हीं की बनी है। उनके नेत्रों और ओष्ठों में जो भाव हमारे यहां सिरजे गए हैं, विरल हैं। अपरिमेय शांति और संयम के भावों की ऐसी मूर्तियां जगचावी हुई। अजन्ता, एलोरा, एलीफेंटा की गुफाओं, सांची, सारनाथ, अमरावती के महान स्तूप, सोमनाथ, कोर्णाक, खजुराहो, मीनाक्षी मंदिर, उदयुपर के जगत मंदिर के षिल्प वैभव में ऐसे ही अंतर जैसे आलोकित होता है।

कुछ समय पहले एलोरा जाना हुआ था।  वहां कैलास मंदिर को देख अनुभूत हुआ, तक्षण और वास्तुकला की यह ऐसी विरासत है जिसे कला षिक्षा प्राप्त करने वाले हर विद्यार्थी को देखनी चाहिए।  बहुमंजिला कैलास मंदिर को एक ही चट्टान से मूर्तिकारों ने उकेरा है। भीमकाय स्तम्भ, विस्तीर्ण प्रांगण, विषाल विथियां, दालान, मूर्तिकारी से भरी छतें और मानवों और विविध जीव-जंतुओं की अद्भुत प्रतिमाएं!  ऐसा लगता है, मूर्तिकारों ने अपनी कला का सर्वस्व यहां अर्पण किया है। हाथियों की पाषाण प्रतिमाओं ने कैलास मंदिर को जैसे अपने ऊपर थाम रखा है। एक मूर्तिषिल्प का नाम है, ’रावण की खाई’। 

वाल्मीकि रामायण में आता है कि यमराज पर विजय प्राप्त कर रावण जब पुष्पक विमान से कैलास के निकट था तो वहां उसका विमान डगमगाया। रावण कैलास को ही हिलाने लगा। मूर्तिकारों ने इस प्रसंग को ही यहां जैसे जीवंत किया है। मूर्ति में कैलास पर्वत पर षिव का अविचल समाधिस्थ भाव और भयभीत पार्वती और उसकी सखियांे के इधर-उधर भागने के दृष्य देखते जैसे वाल्मीकि का लिखा दृष्यमय हो उठता है। सोचता हूं, इस तरह की जीवंतता हर कालखंड की मूर्तिकला में हमारे यहां रही है परन्तु इस विलक्षणता पर सौंदर्य की दीठ से क्या लिखा और विचारा गया है! 




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