ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 4, 2023

लोक रची व्यंजनाओं में समाई कला—दृष्टि

लोक का अनूठा माधुर्य रचने वाली जीते जी किंवदंती बनी गायिका अल्लाह जिलाई बाई की कल पुण्यतिथि थी। पर यह विडंबना ही है कि उन्हें किसी ने याद नहीं किया। कभी लता मंगेशकर ने भी 'पधारो म्हारे देस' को उन्हीं की तरह गाने का प्रयास किया पर लोक में घुली जिस शास्त्रीय छटा में अल्लाह जिलाई बाई ने इसे साधा उसकी कहां कोई होड़!  माड प्रादेशिक राग है। कहीं यह मांड भी कहा गया है पर मूलत: है यह माड ही। माड माने मड प्रदेश। संगीत रत्नाकर में इसे धोरा—धरा से जुड़ी उसकी अनुभूति कराती धुन माना गया है। विष्णु नारायण भातखण्डे ने इसे राग बिलावल थाट के अंतर्गत माना है।

राजस्थान के बीकानेर, जोधपुर और जैसलमेर में माड के अलग—अलग रूप—शुद्ध, सूब माड, सामेरी और आसा माड में नजर आते हैं। अल्लाह जिलाई बाई, गवरी देवी और मांगी देवी ने अपने तई माड के इन रूपों को जैसे पुननर्ववा किया। लंगा—मांगणियारों ने भी पारम्परिक वाद्य यंत्रों में इसे अपनी कल्पना से कम परवान नहीं चढ़ाया है। राजस्थान ही क्यों भारत के दूसरे प्रदेशों में भी देश, पीलू, तिलक कामोद, सोहनी आदि में शास्त्रीयता में घुले लोक स्वरों में माड गायकी सदा ही खिलती सुनने वालों को लुभाती रही है।  

राजस्थान पत्रिका, 4 नवम्बर, 2023

अल्लाह जिलाई बाई से अरसा पहले बीकानेर में उनके निवास पर लम्बा संवाद हुआ था। तभी उन्होंने गाते हुए समझाया था कि माड दोहों की अलंकृति है। यह सच है। राजस्थानी लोक संगीत में 'केसरिया बालम', 'कुरजां', 'उमराव', 'सुपनो', 'बायरियो', 'जल्लो' आदि गीत जगचावे हुए हैं। सुनेंगे तो उनमें निहित शब्दों में बसी अर्थ छटाएं मन में सदा के लिए बस जाएगी। भारतीय सिने—जगत ने भी माड राग से अपने आपको कम समृद्ध नहीं किया है। माड में घुले लोक—गीतों से निरंतर प्रेरणा ली जाती रही है। याद करें, फिल्म 'रेशमा और शेरा' का गीत 'तू चंदा मैं चांदनी'। सिने—संगीत में घुला यह जैसे लोक—उजास है। संगीतकार जयदेव के संगीत में दोहों की अलंकृति सरीखे बोलों की भांति लिखी बाल कवि बैरागी की पंक्तियां में निहित अर्थ—छटाओं पर जाएंगे तो मन करेगा गीत सुनें और बस सुनते ही रहें। 'तू चंदा मैं चांदनी'  मुखड़े के बाद लगभग सभी अंतरे भाव—भरी अंजूरी है। अनूठी व्यंजना देखें, 'चंद्रकिरण को छोड़ कर जाए कहाँ चकोर...अँगारे भी लगने लगे आज मुझे मधुमास रे।'  


बौद्ध साहित्य के सुभाषितों में चकोर पक्षी के चांदनी पीने का विवरण मिलता है। पूरा संस्कृत साहित्य ऐसी व्यंजनाओं से भरा पड़ा है। नल-दमयन्ती की कथा में दमयंती के स्वयंवर वर्णन में भी तो चकोर के चन्द्रमा की किरणों का सुधारस पीने का वर्णन है। असल में
 लोक में चकोर चन्द्रमा का प्रेमी है। ऐसा प्रेमी जो अंगारे खाता है। अंगारे माने चन्द्र किरणें। लोक का यही तो उजास है जिसमें कीटभक्षी पक्षी के चन्द्रकिरणों को जूगनू आदि चमकने वाले कीट समझकर खाने को कवियों ने अपने तई कल्पना करते भाव—प्रवण रूपान्तरण किया है। मुझे कई बार यह भी लगता है  कविता में घुली कलाएं युग—बोध में सदा—सर्वदा के लिए हममें जीवंत रहती संवेदनाओं को ऐसे ही पंख लगाती है।

मिथकों, धार्मिक विश्वासों और दैनिन्दिनी कार्यकलापो में जीवन से जुड़ी सहज दृष्टि कहीं है तो वह लोक रची व्यंजनाओं में ही है। चंदा—चकोर रूपी भाव—बोध का स्वस्थ मनोरंजन भी तो लोक ने ही रचा है!

No comments:

Post a Comment