ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, May 24, 2010

बीकानेर में आखातीज

                         -डॉ. राजेश कुमार व्यास -
"डेली न्यूज़" रविवारीय परिशिस्ट दिनांक 23-5-2010 को प्रकाशित.
पिछले कुछ वर्षों से आखातीज पर अपने शहर बीकानेर जाना नहीं हुआ। इस बार संयोग बन ही गया। आखातीज यानी बीकानेर का स्थापना दिवस, चिलचिलाती धूप मंे पंतग उड़ाने का पर्व।...और स्थानों पर मकर सक्रांति पर पंतगे उड़ती है परन्तु बीकानेर तो बीकानेर है...मई की भंयकर गर्मी में भी शहर छतों पर पहुंच जाता है, आकाश पंतगों से भर उठता है और पंतग काटने पर ‘बोई काटिया है..’ के स्वर हर ओर, हर छोर सुनायी देने लगते हैं। छत पर पंतग उड़ाने के बीते दिनों को याद करते आखातीज से एक दिन पहले रेल से बीकानेर का आरक्षण करवा लिया।....बीकानेर के लिए रात्रि में अब मीटर गेज की बजाय ब्रॉडगेज हो गयी है....बीकानेर कछ समय रूककर वही रेल आगे हनुमानगढ़ चली जाती है। मीटर गेज प्लेटफॉर्म तब अपना था...मुख्य रेलवे स्टेशन से अलग यहां अधिकतर बीकानेर की ही सवारी दिखायी देती थी, रेल बीकानेर तक ही जो जाती थी...ब्राडगेज रेल होने के बाद प्लेटफॉर्म भी पराया हो गया। टेªन के डिब्बे में बैठे तो वह भी बदला-बदला सा लगा।...याद आने लगी वही पुरानी मीटर गेज, जो चलती तो डिब्बे इस कदर उछलतेे कि खाना पचाने के लिए वॉक की जरूरत ही नहीं पड़ती। धूल इस कदर डिब्बों मं घूसती कि बीकानेर पहुंचते-पहुंचते रेत से आप पूरी तरह से नहा चुके होते। अक्सर तब जन कवि हरीश भादानी की कविता याद आती, ‘मन रेत में नहाया रे...’।

....लगा, इस बार मन रेत के अपनेपन से नहीं नहा रहा। ब्राडग्रेज टेªन अपने निर्धारित समय 5 बजे से पहले सवा चार बजे ही बीकानेर पहुंच गयी। प्लेटफॉर्म से बाहर आॅटो वाले भी जैसे पूरी तरह से बदल गए थे। तीन किलोमीटर की दूरी के ही सौ रूपये बता दिए।..जैसे-तैसे पचास रूपये तय किए। मुझे लगा यह तो नहीं है बीकानेर की संस्कृति। ...आॅटो चल रहा है और मैं चैक, मौहल्लों की संस्कृति के अपने शहर बीकानेर के बारे में ही सोचने लगा हूं। पाटों पर पूरी-पूरी रात जागने वाले शहर क बारे में। यह जागरण किसी विशेष कार्य के लिए नहीं होता। बस, स्मृतियों को खंगालने, विश्वभर में हो रहे घटनाक्रमों पर विशेषज्ञ राय देने और एक दूसरे को सुनने सुनाने भर को होता है। किसी भी मौहल्ले, चैक में चले जाईये, वहां लकड़ी का एक पाटा विशेष रूप से नजर आयेगा। इस पाटे पर जमे होते हैं स्थानीय लोग। एक साथ बड़े और बुजुर्ग भी तो स्कूल जाने वाले बच्चे भी। न कोई छोटा और न ही कोई बड़ा। सभी एक समान। दूसरे बड़े नगरों और शहरों में अगर आपको किसी परिचित के यहां जाना है तो यह जरूरी है कि उसका पूरा पता-ठीकाना आपके पास हों। बीकानेर में यह जरूरी नहीं। पूरे शहर के लोग आपस में परिचित हैं। आप बाहर से आये हैं और भूल से अपने परिचित का ठिकाना आपके पास नहीं है । कोई बात नहीं, आप किसी से हल्की सी पूछताछ करें। न केवल आपको अपने परिचित का ठिकाना पूरी तरह से मिल जायेगा बल्कि आपको कोई व्यक्ति परिचित के घर तक पहुंचाने भी जायेगा, चाहे उसके किसी कार्य में विलम्ब भी हो रहा हो। एक दूसरे से आत्मीयता से जुड़े यहां के लोगों की यह विशेषता ही रही है कि आपस में लड़ेंगे तो भी बस थोड़ी देर को, फिर कुछ समय पश्चात् वहीं अंतरंगता।....तो क्या अब बदल गया है शहर!

...‘यह आ गया आपका धर्मनगर द्वार। अब कहां उतारना है?’

आॅटो वाले ने कहा तो मैं विचारों की अपनी दुनिया से बाहर निकला। मैंने उसे कुछ दूरी पर सामने ही घर के पास उतारने का कहते हुए अपना सामान संभाला।....अभी पांच ही बज रहे थे, भोर का उजास होने लगा था। याद आया, आखातीज पर हम लोग रात को सो ही कहां पाते थे। तब घर की छत पर ही सोना होता था।....पंतग उड़ाने की योजनाए बनाते बनाते ही पूरी रात कट जाती थी और सुबह के पांच बजे तक तो आसमान पतंगों से भर जाता था। इस आसमान में एक पतंग हमारी भी होती थी, दूसरी पतंगों को काटने की पूरी तैयारी के साथ।...अब वह बात कहां! सोचकर आसमान की ओर झांका तो बहुत सी पतंगे उड़ती हुई मुझे जैसे चिढ़ा रही थी...‘तुम यहां नहीं हो तो क्या हम नहीं उड़ेंगी?’

घर पहुंच बहुत सारा वक्त अखबार पढ़ने और दूसरी औपचारिकताओं में ही जाया कर दिया।...धूप ने पूरी तरह से छत को अपनी आगोश में ले लिया था परन्तु पतंगे आसमान की धूप को जैसे चिढ़ाती हुई वैसे ही उड़ रही थी। मुझे लगा, इस धूप में कैसे छत पर पतंगे उड़ाएंगे....बड़े भईया ने तैयारी पहले से ही कर रखी थी सो, छत पर जाना तो पड़ा ही। हमने भी बधार ली पंतग ।...

आसमान में पतंग उड़ रही है और उसके साथ ही मन भी बीकानेर के इतिहास की ओर उड़ चला है। मुझे लगा मैं अतीत मैं पहुंच गया हूं। जोधपुर के राजा जोधा का दरबार लगा है। दरबार में महाराजा जोधा के भाई राव कान्धल व जोधा का पुत्र राव बीका पास-पास ही बैठे हुए बातें कर रहे हैं, सहसा कान्धल ने अपने भतीजे राव बीका के कान में कोई ऐसी बात कही जिसे सुनकर दोनों ही चाचा भतीजा आपस में हंस पड़े।

जोधा ताना देते बोले, ‘आज तो चाचा-भतीजा आपस में घुल मिलकर ऐसे बातें कर रहे हैं कि मानों दोनों ही कोई नया नगर ही बसाने वाले हैं।’ कान्धल को बात चुभ गयी, ‘हम ऐसी तो कोई बात नहीं कर रहे थे परन्तु अब आपने जब बसाने की बात हमसे कर ही दी है तो हम दोनों आपसे वास्तव में एक नया नगर बसाकर ही मिलंेगे।’ कहते हुए कांधल ने अपने भतीजे राव बीका का हाथ पकड़ा और चल दिए नया नगर बसाने। और यूं वैशाल शुक्ल पक्ष की द्वितीया विक्रम संवत् 1545 में नये नगर की नींव राव बीका के नाम पर रख दी गयी। कहा भी गया,

पन्द्रह सौ पैतालवें, सूद बैसाख सुमेर।

थावर बीज थरपियो, बीके-बीकानेर ।।

कहा जाता है कि नये नगर की स्थापना की खुशी में राव बीका ने एक चिंदा उड़ाया था। चिंदा अर्थात् बड़ी पतंग। बस तब से ही बीकानेर में रिवाज हो गया, स्थापना दिवस पर पतंगे उड़ाने का।...

‘...अब नीचे आ जाओ। थोड़ा खीचड़ा और ईमली ले लो।’

मम्मी ने आवाज लगायी तो बीकानेर के इतिहास से मैं वर्तमान में लौट आया। देखा तो आसमान पतंगों से भर गया था।...आग बरसाती धूप में भी छतों पर इकट्ठे लोग ‘बोई काट्या है....’ का शोर करने लगे थे। मेरे घर के पड़ौसियों ने बेटे निहार और बिटिया यशस्वी के लिए अलग से पतगें और मांझे संभाल कर रखे हुए थे, उन्हें इन्तजार था मेरे आने का....मेरे बच्चों को शहर का रिवाज सिखाने का। किस शहर में पड़ी है, दूसरे के बच्चों को परम्परा सीखाने की ऐसी उतावली। निहार और यशस्वी बेहद खुश है...पतगें उड़ती देख कर। यहां चिलचिलाती धूप अखर नहीं रही...गर्मी न जाने कहां भाग गयी है। बच्चों के साथ पतंगे उड़ाने का मजा लूटते मैं मम्मी का बनाया परम्परागत भोजन खीचड़ा खाने छत से नीचे उतर रहा हूं।...मुझे लग रहा है,, बीकानेर नहीं मैं ही बदल गया हूं। राजधानी में जो बस गया हूं!