ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, July 29, 2010

मुन्नार के जंगलों में...

यात्रा संस्मरण
भारत की खोज करते-करते कोलम्बस भारत तो नहीं पहुंच पाया परन्तु उसने नई दुनिया की जरूर खोज कर दी। इसके बाद पूर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा ने भारत खोज का लक्ष्य करते जब अपनी यात्रा प्रारंभ की तो उसे बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा परन्तु अंततः उसने भारत को ढूंढ ही निकाला। कहा यह भी जाता है कि केरल के गर्म मसालों की खूशबू ने ही वास्का-डी गामा से भारत की खोज करवाई। जो, हो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि वास्कोडिगामा के जरिए ही पहले पहल केरल के गर्म मसालों का स्वाद सुदूर देशों तक पहंुचा। काली मीर्च, लौंग, इलायची, जायफल, दालचीनी, जावित्रि, तेजपत्ता आदि मसालों की यह प्रदेश खान है।....यहां चाय बागानों की भी भरमार है। मीलों तक फैले चाय बागान ऐसे लगते हैं जैसे हरी-भरी मखमली कालीन धरती पर बिछायी हुई हो।
....केरल के इदुक्की जिले के प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल मुन्नार की ओर हमारी गाड़ी आगे बढ़ रही है। गर्म मसालों की सर्वाधिक खेती यहीं होती है। यह पूरा इलाका पहाड़ी है।....ड्राइवर बेहद सावधानी से गाड़ी पहाड़ों पर चढ़ा रहा है। गाड़ी से बाहर मीलों तक फैले चाय उद्यानों का मनभावन दृश्य देखते और इलायची की खूशबू को महसूस करते हम दक्षिण भारत के पहाड़ों पर सैर की अनुभूति से ही रोमांचित है। यहां सड़क के किनारे मसालों की दुकाने भी थोड़े-थोड़े अन्तराल पर दिखायी देती है, पर्यटक इन्हीं से गर्म मसालों की खरीद कर रहे हैं।

...समुद्र सतह से लगभग 1600 मीटर की ऊंचाई पर पष्चिमी घाट का बेहद खूबसूरत पर्वतीय स्थल मुन्नार अभी थोड़ी दूरी पर है। रास्ते में बहुत सी झीलें, जल प्रपात देखकर ही अनुमान हो जाता है कि यह जगह कितनी खूबसूरत है।

...लो पहुंच गए मुन्नार। पहाड़ों की ठंडक का अपना मजा है। घुमते-फिरते इस ठंडक को अनेक बार महसूस करता रहा हूं परन्तु यहां कुछ अलग बात है। हवा के झोंकों के साथ इलायची की खूषबू फिजाओं में जो है। ....ड्राइवर होटल में गाड़ी पार्क करता है। हम होटल मैनेजर से ही आस-पास के स्थानों के बारे में जानकारी लेते हैं। मुन्नार मुद्रापुझा, नलथन्नी और कुंडला नाम की तीन पहाड़ियों पर बसा है। पहाड़ों पर कभी ट्रेकिंग करते तो कभी गाड़ी के जरिए इधर-उधर घुमते ही चाय बागानों की सैर हो जाती है। यहां आस-पास के स्थानों पर खूबसूरत झीलें, जल प्रपात और चाय बागानों का सौन्दर्य चप्पे-चप्पे पर बिखरा पड़ा है। यहीं दक्षिण भारत की सबसे ऊंची अनामुड़ी चोटी भी है।

मित्र सुनील यहां के वन्य जीव अभ्यारण्य की सैर के लिए राय देते हैं। हम सभी उनकी इस बात से सहमत हैं। दक्षिण भारत के हराविकुलम-राजमाला क्षेत्र का राष्ट्रीय वन्य प्राणी अभ्यारण्य और चिन्नूर वन्यप्राणी अभ्यारण्य में वनों का घनापन इतना है कि इसे देखकर अनजाना सा एक भय भी मन में प्रवेष करता है।...हम अभ्यारण्य में दूर तक निकल आए हैं। जीव जंतुओं और वनस्पतियां के बीच यूं घुमना भला-भला सा लग रहा है। लगता है भागमभाग को छोड़ते ऐसे पल ही जिंदगी में आ जाएं तो कितना अच्छा हो परन्तु यह कोरी कल्पना है। जिस कंक्रिट के जंगल में हम रहते हैं, वहां पलभर को किसी बात की सोचने की ही फूर्सत नहीं है... फिर भी जंगलों में यूं बेपरवाह घुमते लगता है बचपन के दिन लौट आए हैं। तब कहां किसी बात की चिन्ता होती थी, जो अच्छा लगता वही करते थे। अब हर पल, हरक्षण जैसे हमें जिन्दगी की रेस बहुत कुछ करने से रोक देती है।...कहीं हमसे कुछ ऐसा नहीं हो जाए, कुछ वैसा नहीं हो जाए। दूसरे से पिछड़ नहीं जाए। नौकरी में ट्रेक से भटक नहीं जाए....इतनी चिन्ताएं कि हर पल सजग रहता है मन।...अरे! भाग रहा है हिरनी का बच्चा। शायद हमें देखकर भागा है।...चौकन्नापन इतना कि हल्की सी आहट ही उसे हमसे बगैर किसी खतरे के दूर, बहुत दूर कर देती है।... हमारे साथ भी क्या यही नहीं हो रहा! भीड़ के जंगल में हर आहट से चौकन्ने जैसे अपने आप से ही हम हर पल, हर क्षण दूर हुए जाते हैं।

‘क्या सोचने लगे? प्रकृति को देखो। प्रकृति के नजारों को देखो। देखो, इन जंगल के जीव जंतुओ को।’ मुझे बहुत देर से चुप विचारों में खोए देखते जी.पी.शुक्लाजी ने कहा तो मैं विचारों के घने जंगल से फिर से मुन्नार अभ्यारण्य में लौट आया। जंगल के नीरव वातावरण में पक्षियों की चहचहाट और झाड़ियों में सरसराते पशुओं की आहट को हम साफ सुन रहे थे कि कोई जंगली जानवर तेजी से झाड़ियों में लुप्त होता चला गया। ...यहां इस अभ्यारण्य में विषाल वृक्ष हैं। ऐसे पक्षी भी बहुतायत से दिखायी दे रहे हैं, जिन्हें पहले कभी देखा नहीं। पक्षी विज्ञान के बारे में ज्यादा जानकारी भी तो नहीं है, इसलिए उनकी प्रजातियों की पहचान भला हमें कैसे हो।...मनोरम जंगल!....कहीं, कहीं घास उबड़ खाबड़ मैदान! बहुत देर तक अभ्यारण्य में यूं ही घुमते रहे हैं।

मुन्नार के आस-पास पहाड़ ही पहाड़ हैं। अभ्यारण्य तो खैर घोषित उद्यान है परन्तु यूं भी यहां इधर-उधर भ्रमण के दौरान जंगल की सैर लुभाती है।...जल प्रपात, नदियां और पहाड़ के नीचे कुछ स्थानों पर ठहरा पानी तालाब की मानिंद।...दूर तक नजर जाए तो चाय के बागान सुनियोजित हरियाली फैलाए। लगता है, प्रकृति यहां पर पूरी तरह से मेहरबान है। प्रकृति का सौन्दर्य यहां तरतीब से बिखरा पड़ा है।

...आज की रजनी मुन्नार में। सोते समय जी.पी. शुक्लाजी मिमिक्री करते चुटुकुलों का जैसे पिटारा ही खोल देते हैं। इन्हें सुनकर सभी लोटपोट हो रहे हैं। दिनभर की थकान हंसी में जैसे गायब हो गयी है। हास्य की यह उन्मुक्तता यात्रा के इन दिनों में ही होती है, अन्यथा तो चाह कर भी कहां हंस पाते हैं। मैं यह सब सोच ही रहा हूं कि जेहन में ‘सैर कर गाफिल...’ पंक्तियां जैसे गूंज रही है। राहुल सांकृत्यायन ने तो यायावरी को धर्म बताते पूरा इस पर घुम्मकड़ शास्त्र ही लिख दिया। यह सब यूं ही थोड़े ही है। सच में घुमने में जो सुकून है, वह किसी और में नहीं।...अर्द्ध रात्रि हो गयी है। हम सभी एक दूसरे को शुभरात्रि कहते नींद की गोद में अपना सर रख रहे हैं...।



"डेली न्यूज़" के रविवारीय परिशिस्ट "हम लोग" में 18 जुलाई 2010 को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का यात्रा संस्मरण



Friday, July 2, 2010

वाह उस्ताद! वाह



 "संस्क्रती संवाद" पत्रिका,
जून २०१० अंक में  प्रकाशित 

- डॉ. राजेश कुमार व्यास -
तबले पर उनकी उंगलियां तेजी से हरकत करती गजब का वातावरण बनाती है। इस वातावरण में वे कभी सुनने वालों को बादलों के गर्जन का अहसास कराते है तो कुछ ही देर में आसमान से टप-टप गिरती वर्षा बूंदों से भी जैसे साक्षात् कराते हैं। तेजी से भागती ट्रेन की ध्वनि उत्पन्न करता उनका तबला कभी ट्रेफिक जाम को संगीत सभा में साकार करता है तो वहीं तेजी से भागते हिरन का शिकार करने जाते शेर के दृश्यों को भी जैसे जीवन्त करता है। सच में तबले से वे जादू जगाते हैं। ...

उस्ताद जाकिर हुसैन और तबले का गजब का मेल है। वे शास्त्रीय संगीत की विभिन्न रागों पर ही तबले पर गजब की संगत नहीं करते बल्कि जीवनानुभूतियों को भी तबले में जैसे जीते हैं। राग-रूप के शास्त्रीय सरोकारों में समझदार श्रोता जहां उन्हें खुलकर दाद देते हैं वहीं आम श्रोता देते हैं उन्हें ‘वाह उस्ताद! वाह’ की संज्ञा।

यूं तबला सोलो वाद्य नहीं है परन्तु जाकिर हुसैन का तबला सोलो में श्रोताओं के कान तृप्त करता अपनी ताल से उन्हें भीतर तक जोड़ता है। यही नहीं परम्परा के सारे नियमों, कायदों को अपनाते हुए भी उन्होंने नूतन चिंतन में तबले का सर्वथा नया मुहावरा गढ़ा है। अन्तर्दृष्टि संवेदन के जरिए वे ताल का जो माधुर्य उत्पन्न करते हैं वह ऐसा है जिसमें तबला ध्वनि से भावों की अद्भुत व्यंजना करता है।

याद पड़ता है, एक कार्यक्रम में तबले का उनका ‘कायदा’ सुना था। तबले में परम्परागत शास्त्रीय संकेतो को न बिगाड़ते हुए इसमें तेज दौड़ते घोड़े की टापों के साथ कड़कती बिजली में झमाझम होती बारीश की जो ध्वनि उन्होंने उत्पन्न की उसने सुनने वालों को जैसे स्तब्ध कर दिया था। ऐसा ही तब भी होता है जब वे अपने तबले पर डमरू का वादन करते हैं। तबले पर डमरू की ध्वनि का उनका अंदाज सुनने वालों को अपने साथ बहा ले जाता है। तबले के जरिए भगवान शिव की लीलाओं का आभाष कराती उनकी डमरू ध्वनि औचक जब शंख ध्वनि में तब्दील होती है तो लगता है उन्होंने ध्वनि की अपने तई नई परिभाषा गढ़ी है। इस नई परिभाषा में ताल में बढ़त का उनका कोई एक निश्चित फार्मुला नहीं है। यहां तबला जैसे अपनी गूंज की समग्रता के साथ ध्वनि के विस्तार और उसकी सीमाओं को पहचानता कुछ बोलता है, गाता है और हॉं, सुनने वालों से लगातार संवाद भी करता है।

तबले पर उत्पन्न ध्वनियों का उनका संसार बहुत से स्तरों पर लुभाता है। किसी वाद्य यंत्र बजाने या गाने वाले कलाकार के साथ संगत करते हर राग में ताल का वे अचूक उपयोग करते हैं। तबले पर यूं माहौल को जीवन्त करने का राज? प्रश्न करने पर वे कहते हैं-‘मेरे और तबले के बीच गजब की अंतरंगता है। यह मेरी जड़ों से जुड़ा साथी है। मेरा भाई, मेरा जुड़वा। अक्सर यह महसूस करता हूं कि अपने आपको मैं पूरी तरह से इसके जरिए ही व्यक्त करता पाता हूं।...मैं यह कह सकता हूं कि मैं तबले से प्यार करता हूं और वह मुझसे। हम एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते।’

उस्ताद जाकिर हुसैन जब यह कहते हैं तो ध्यान तबला वादन के उनके उस रूप पर भी जा रहा है जिसमें वे विभिन्न रागों पर पारम्परिक भारतीय शास्त्रीय तबला वादन के साथ पश्चिमी वाद्य यंत्रों के साथ फ्युजन का भी तबले से जादू जगाते हैं। दरअसल वे ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने तबले में इलेक्ट्रोनिक तत्वों को जोड़ते पश्चिम की तर्ज का उसमें भारतीयता के साथ सांगोपांग मेल किया है। वर्ष 1987 में उनका पहला सोलो एलबम ‘मेकिंग म्यूजिक’ जब आया तो पहली बार श्रोताओं ने इसमें ताल वाद्य में पूर्व-पश्चिम का अदभुत संयोग पाया।

विख्यात तबला वादक उस्ताद अल्लाह रखा के पुत्र जाकिर हुसैन ने तबला वादन बहुत कम उम्र में ही प्रारंभ कर दिया था। तब जब वे मात्र 7 वर्ष के थे।...और 12 वर्ष की उम्र से तो उन्होंने संगीत सभाओं में प्रस्तुतियां प्रारंभ कर दी थी। इसके बाद तो अमेरिका और दूसरे देशों में तबला वादन की संगीत यात्राओं की उनकी जो शुरूआत हुई, उसमें वर्ष में 150 से अधिक प्रस्तुतियां का रिकॉर्ड भी बना। भारत ही नहीं विश्वभर के कलाकारों के साथ तबले की उनकी जुगलबंदी ने जैसे नये इतिहास की शुरूआत की। अंग्रेजी फिल्म ‘ऐपोकेल्पस नाव इन कस्टडी,’ ‘द मिस्टिक मेजर, हिट एंड डस्ट’, ‘लिटिल बुद्ध’, जैसी बेहद लोकप्रिय रही फिल्मांे के साथ उन्होंने प्रतिष्ठित कान फिल्म फेस्टीवल मंे प्रदर्शित ‘वानप्रस्थम’ फिल्म का संगीत ही नहीं दिया बल्कि उसके निर्माण और प्रस्तुति में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन पर 2003 में ‘द स्पिकिंग हैण्ड ः जाकिर हुसैन एंड द आर्ट आॅफ द इण्डियन ड्रम’ डाक्यूमेंटरी फिल्म भी बनी। पश्चिम के बेहद लोकप्रिय ‘शान्ति और, ‘शक्ति’, बैंड में किया उनका काम भी अलग से पहचाना गया।

वर्ष 1988 में भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया तो यह पहला अवसर था जब इतनी कम उम्र के किसी कलाकार को यह सम्मान दिया गया। उन्हें वर्ष 1999 में संयुक्त राष्ट्र संघ की अत्यधिक प्रतिष्ठित नेशनल हेरिटेज फैलोशिप भी प्रदान की गयी तो 1991 में राष्ट्रपति ने उन्हें संगीत नाटक अकादमी प्रदान किया।

कुछ समय पूर्व ही उस्ताद को ‘ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट’ एलबम के लिए समकालीन विश्व संगीत श्रेणी का प्रतिष्ठित ग्रेमी पुरस्कार भी मिला। यह इस बात का गवाह है कि वे आज भी अपने ताल वाद्य में संगीत का जादू जगाते हैं। इसलिए भी इसे महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए कि ग्रेमी उन्हें दूसरी बार मिला है। इससे पहले ‘प्लेनेट ड्रम’ एलबम पर भी उन्हे ग्रेमी पुरस्कार मिला था। पं. रविशंकर के बाद जाकिर हुसैन ही वह कलाकार हैं, जिन्हें प्रतिष्ठित ग्रेमी अवार्ड दूसरी दिया गया।

बहरहाल, तबले में अपार लोकप्रियता और शिखर सम्मानों को अपने पिता उस्ताद अल्लाह रखा का आशीर्वाद मानते जाकिर हुसैन भावुक हो उठते हैं, कहते हैं-‘पिता जी की वजह से ही दुनिया में तबले पर शुरूआत हुई। उनकी वजह से ही मैं इस लायक बना कि दुनियाभर में इतने बड़े कलाकारों के साथ काम कर सका हूं।’

उस्ताद जाकिर हुसैन कुछ पल सोचते हैं फिर कहने लगते हैं, ‘पुरस्कार तो बहुत से मिले जीवन मंे। अब भी मिल रहे हैं परन्तु जो दो पुरस्कार मुझे मिले, उन्हें मैं कभी भी भुल नहीं सकता। पहला पुरस्कार मुझे तब मिला जब मेरे पिताजी उस्ताद अल्लाह रखा जी ने मेरी प्रस्तुति पर कहा था, ‘ठीक है।’

यह तब मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार था और दूसरा पुरस्कार प्रख्यात सितार वाद पं. रविशंकर ने मुझे जो दिया, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। मुझे याद है, तब मैं 20 वर्ष का था। उनके साथ मैं तबले की प्रस्तुति दे रहा था। उन्होंने मुझे ‘उस्ताद’ कहा। मुझे लगा यह उनकी ओर से मुझे दिया बहुत बड़ा पुरस्कार था।’

जाकिर हुसैन पुरस्कारों को प्रस्तुति की कसौटी नहीं मानते। कहते हैं, ‘पुरस्कार शुरूआत है। इसका अर्थ है आपको नए सिरे से फिर से शुरूआत करनी है। अपने आपको और बेहतर करने की शुरूआत।’

उस्ताद जाकिर हुसैन से बतियाना बेहद सुखद अनुभूति है। वे अपनी नपे-तुले शब्दों में अपनी बात संप्रेषित करते हैं। मुस्कान के साथ। मैं गौर करता हूं, उनकी उंगलियां हरकत में हैं। मुझे लगता है, तबले पर वे थिरकने ही वाली हैं। लगता है, उस्ताद मुझे पढ़ रहेे हैं। मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘आप यही सोच रहे हैं ना कि तबला बजाते मैं कैसा अनुभव करता हूं।’

मैं अचरज से उन्हें देखने लगता हूं। वे कहने लगते हैं, ‘संगीत मेरी जिन्दगी है। मैं इससे अपने आपको कभी दूर नहीं पाता। तबला वादन करता हूं तो अपने आपको भूल जाता हूं, लगता है, ईश्वर की ईबादत कर रहा हूं।’

‘संगीत कभी मरता नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह अपना रूप बदलता रहता है। जरूरी यह है कि हम इसकी गहराई को समझें। धर्म, समाज से ऊपर है संगीत। यह किसी की जागिर नहीं है।...इसे किसी धारा, मजहब से जोड़कर देखा भी नहीं जाना चाहिए। समय के साथ संगीत बदलता रहता है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि हम इसकी आत्मा को कभी मरने नहीं दें।’

उस्ताद जाकिर हुसैन यह कहते हुए बेहद भावुक हो जाते हैं। संगीत की चर्चा उन्हें अंदर से भरती है। वे शास्त्रीय संगीत की समृद्ध भारतीय परम्परा की विशेषताओं के बारे में बताते हुए अपनी तबला प्रस्तुतियों के रोचक संस्मरण भी सुनाते हैं। इन संस्मरणों के अंतर्गत ख्यात विख्यात कलाकारेां के साथ प्रस्तुतियों के रोमांच से लेकर वादन की निरंतरता और लोगों से मिली अपार दाद के ढ़ेरों किस्से हैं। कहते हैं, ‘आपको सुनाने लगूंगा तो वक्त का पता ही नहीं चलेगा।’ ढ़ेरों यादें, ढ़ेरों बातें।...तबला वादन की। एकल तबला वादन में किए बहुत सारे प्रयोगों की और दूसरे वाद्य यंत्रों के साथ तबले की होड़ की भी।

उस्ताद जाकिर हुसैन ने दरअसल तबले की एकल प्रस्तुतियों को सर्वथा नया आयाम दिया है। उनकी अंगुलियां जब तबले पर चलती है तो मन को अजीब सा सुकून मिलता है। होले होले उनके तबले की थाप गति पकड़ती है।

उस्ताद भरी में भी बेहद लुभाते हैं। भरी यानी ताली।...उनके तबला वादन में आवृत्तियों भी खूब रहती है।...और लय भी धीमी या तेज कुछ इस कदर रहती है कि मन उनके सम्मोहन में बंध सा जाता है। विलम्बित लय में मध्य और फिर द्रुत करते वे तबले को सच में जीते हैं।

बहुत समय नहीं हुआ। जयपुर के सेन्ट्रल पार्क में ‘म्यूजिक इन द पार्क’ में उनका सोलो तबला वादन सुनते हुए उसे जैसे गुना। असीम काल की अवधि को सीमाबद्ध करते उनकी अंगूलियां जब तबले पर थिरकने लगी तो पूरा माहौल भी जैसे थिरकने लगा। वे बजा रहे थे, मन भीतर से जैसे झूम झूम रहा था। सच! डनके तबले में प्रस्तार है। प्रस्तान माने विस्तार। तालों का भिन्न भिन्न रीति से विस्तार करते वे श्रोताओं को अपनी कला से सराबोर करते हैं।

पारम्परिक भारतीय तबला वादन में उत्साद जाकिर हुसैन जितने सिद्धहस्त हैं, उतने ही पश्चिम के संगीत के साथ भी वे गजब का मेल करते हैं। तबले को हालात और संगीत के साथ ढ़ालते उन्होंने इसका और अधिक खुला वजनदार रूख बनाया। परिपूर्ण है उनके तबले की ताल। त्रिताल का ‘धिन’ और एकताल का ‘धिन’ भिन्न आघात करते भी उनके तबले पर कभी एकमेक होते काल से जैसे होड़ करते हैं। सोलो में ही वे अपने फन में माहिर नहीं है बल्कि सुप्रसिद्ध वाद्य कलाकारों या फिर गायक कलाकारों के साथ भी जब कभी वे तबले की संगत कर रहे होते हैं तो वह ‘संगत’ भर नहीं होतीं बल्कि उसे एक दूसरे के वादी सम्वादी के रूप में ही अभिहित किया जाना चाहिए। तबला वादन को जाकिर हुसैन ने सर्वथा नया आयाम दिया है। वे इसे जीते हैं। उनकी अंगूलियां तबले पर थिरकती गजब का सम्मोहन जगाती है। वे जब बजाते हैं तो स्वतः ही मुंह से निकलता है-वाह उस्ताद! वाह।