ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 31, 2011

थम गए जिनके सुर...


बीते वर्ष के सांगीतिक परिद्र्श्य पर लखनव से प्रकाशित जनसन्देश टाइमस का यह संगीत स्तम्भ


Saturday, December 17, 2011

यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख

-राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा-

देवभूमि, प्रहरी, रत्नखानि, इतिहास विधाता और संस्कृति का मेरूदण्ड और भी न जाने कितने ही नाम हिमालय के हैं। भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि का उत्स है देवात्मा नगाधिराज हिमालय। इसका हर षिखर, नदी, सरोवर पवित्र है। यायावर लेखक कृष्णनाथ का लिखा याद आ रहा है, ‘हिमालय का दरस-परस है। यह त्रिक का एक पद है।’ सच ही तो है। इतिहास, संस्कृति, पुराण कथाओं का नाद है हिमालय।
लब्धप्रतिष्ठि मलयालम लेखक एम.पी. वीरेन्द्रकुमार लिखित और डॉ. पी.के राधामणी अनुवादित सद्य प्रकाषित ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक का आस्वाद करते हिमालय का यह वर्णन आंखों के सामने जैसे साकार होता है। हिमालय के बहाने वह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े किस्से, कहानियां और प्रसंगों का जब उल्लेख करते हैं तो लगता है उनकी यह यात्रा बाह्य स्थानों भर की नही है बल्कि आंतरिक स्तर पर निरंतर चलती है। आंतरिक यात्रा के इस अन्वेषण में इतिहास, पुराण कथाओं, लोक कथाओं, मिथकों, जन श्रुतियों के साथ प्रकृति और संस्कृति, देह और चित का उनका वर्णन लुभाता भी है तो बहुत से स्तरों पर झकझोरता भी है। जोषी मठ के यात्रानुभव को देखें, ‘...हम पहाड़ स्खलन के एक खतरनाक प्रदेष मंे पहुंचे। सड़क की एक ओर से पहाड़ ढह रहा है। दूसरी तरफ अतल गहराई में अलक नंदा का तेज़ तर्रार प्रवाह। ...अचानक एक सफेद अंबेसडर कार ने अरविंद की वैन को पार करने की कोषिष की।...पल में उस गाड़ी का ब्रेक नाकाम हो गया। गाड़ी से चीखें निकली। कार बेकाबू होकर नीचे की ओर लुढ़कने लगी। उषा, आषा, नंदन और मैं जिस गाड़ी में थे उसकी ओर वह आ रही थी। हमारी भी चीखें निकली। सौभाग्य से एक चट्टान से टकराकर वह कार रूकी।’ रोमांचक, साहसिक यात्राओं के प्रसंग और भी है। बरकोट की ठंड में तंबू में बितायी रात की बात है तो भारतीय सीमा के आखिरी गांव माना का हाल भी है। मसूरी की सैर करते वह मषहूर लेखक रस्किन बॉण्ड के उस व्यक्तित्व पर भी गये है जिसमें नर्सों से प्यार के चलते दिनों तक अकारण अस्पतालांे में वह भर्ती हो जाया करते थे तो उनके लिखे का यह कहा ‘प्यार करना और प्यार पाना दुनिया का सबसे सुखद अनुभव है’ का जिक्र करना भी वह नहीं भूले हैं।
हिमालय की वादियों का एम.पी. वीरेन्द्रकुमार का प्रकृति चितराम जरा देखें, ‘...दूर कंबल ओढ़कर सूरज की किरणों को गले लगाने के इंतजार में लेटी चोटियां। पहले धूंधली दिख रही थी मगर आहिस्ता आहिस्ता प्रकाष फेलने लगा तो रंगीन होने लगी। घाटियों का जंगल सूरज की रोषनी मंे डूब गया। हर रंग और ज्यादा चमकने लगा। सूरज धीरे धीरे ऊपर उठने लगा। चिड़ियों के कलरव से वातावरण संगीतमय बन गया।’
‘वादियां बुला रही है हिमालय की’ पुस्तक यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख हमारे समक्ष रखती है। इन दृष्यालेखों में स्थान विषेष के इतिहास, संस्कृति और समय सरोकारों से को ही नहीं बल्कि दर्षन के नये आयामों को भी पढ़ा जा सकता है। घुम्मकड़ी में भारतीय नदी परिकल्पना पर विचार करते एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘एक बार मैं महेष्वर नामक जगह गया। यह अहल्या की धरती है। वहां पहुंचने पर पहरेदार ने मुझे प्रणाम करके पूछा कि किस नदी के साथ मेरा संबंध है? मैं दंग रह गया। बड़ा अजीब सवाल था। मेरी भाषा या शहर के बारे में पूछने की बजाय उसने मुझसे पूछा कि कस नदी से ताल्लुक रखते हो? यही भारतीयों की नदी परिकल्पना है।’ ऐसे ही हरिद्वार के रास्ते में मोर पंख से सजे कांवर के बहाने वह मोर से जुड़े अनगिरत प्रसंगों के साथ ही इस पक्षी के षिकार, अत्याचार की भयावहता में चेताते भी हैं कि मोर के साथ ऐसे ही अत्याचार होते रहे तो धरती पर इन्द्रधनुषी छटा बिखरने वाले मयूर वंष का विनाष हो जायेगा।
बहरहाल, एम.पी. वीरेन्द्रकुमार ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक के अपने यात्रानुभवों में हिमालय के इतिहास में भी ले जाते हैं तो वर्तमान में लौटाते भी हैं। भूदृष्य अंकन के अंतर्गत पुस्तक में संस्कृति, प्रकृति का यात्रा गान ही नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं की ओर ध्यानाकर्षण भी है। यात्रा अनुभवों और दृष्यों का पुस्तक ऐसा रोचक कोलाज है जिसमें विकसित होते और बदलते दृष्य परिप्रेक्ष्यों को समय संवेदना के साथ समझ की गहराई से लेखक ने उकेरा है। यात्रा संस्मरण के बहाने, आत्मकथा, ललित निबंध, रिपोर्ताज, डायरी आदि साहित्य की तमाम विधाओं का मेल यहां है। यात्रानुभूतियों को इन सबके बगैर कहीं पूर्ण लिखा जा भी सकता है! ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पढ़ते न जाने क्यों लारेन्स उरेल का कहा याद आ रहा है, ‘यात्राएं हमें बाहर केवल स्पेस में ही नहीं ले जाती, उन अज्ञात स्थानों की ओर भी ले जाती है, जो हमारे भीतर है।’
पुस्तक : वादियाँ बुलाती हैं हिमालय की
लेखक : एम. पी. वीरेंद्रकुमार
अनुवाद: डॉ. पी. के. राधामणि
प्रकाशक: राजस्थान पत्रिका प्रकाशन
मूल्य : चार सौ

Sunday, December 11, 2011

उस्ताद सुलतान खान की सारंगी


लखनऊ से प्रकाशित "जनसन्देश टाइम्स" में उस्ताद सुलतान खान की सारंगी पर प्रकाशित यह मेरा आलेख. आस्वाद करें -

Monday, December 5, 2011

देवानंद : रोमांस के साथ जिन्दगी


राजस्थान पत्रिका समूह के समाचार पत्र "डेली  न्यूज़"  के सम्पादकीय पेज पर 5 दिसम्बर 2011 को प्रकाशित आलेख

सिनेमा ने जीवन में सर्जनात्मकता के नये द्वार खोले हैं। जीवन से जुड़ी यह वह कला है जिससे मानव मन सदा ही स्पन्दित होता आया है। कभी पंडित नेहरू ने सिनेमा को विष्व को सबसे अधिक प्रभावित करने वालों में से ‘एक’ बताया था। उनके इस कहे में अपनी बात मिलाते हुए कहूं तो भारतीय सिनेमा में किसी शख्स ने दर्षकों को अपनी अदाओं से और अपने कहे से सर्वाधिक प्रभावित किया है तो वह देवानंद हैं। शायद इसीलिये उनके साथ सदाबहार शब्द का विषेषण भी जुड़ा।

देवानंद से करीबी नाता तब हुआ जब पहले पहल उनकी फिल्म ‘गाईड’ को देखा था। याद नहीं कितनी बार इसे देखा परन्तु जितनी बार भी देखा, नयेपन को अनुभूत किया। राजू गाईड के इसके संवेदनषील किरदार पर जब भी जाता हूं, मुझे लगता है यह देवानंद ही थे जो आर.के. नारायण के गढ़े इस चरित्र को इस खूबी से निभा सकते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल बक और देवानंद ने मिलकर गाईड का अंग्रेजी संस्करण भी बनाया परन्तु फिल्म खास कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। बाद में जब इसका हिन्दी संस्करण बना तो भारतीय सोच के हिसाब से कुछ परिवर्तन किये गये। मसलन मूल कृति में नैराष्य लिये अंत है, जिसमें राजू की मृत्यु हो जाती है और बारिष भी नहीं होती है परन्तु देवानंद की ‘गाईड’ में स्वामी बने राजू गाईड की मृत्यु के साथ ही बारिष होते दिखाई जाती है। खूबसूरती यह भी है कि संगीत और संवेदना की दीठ से इसमें विजय आनंद और देवानंद जैसे अपने आपको झोंक दिया है। विषय की गूढ़ता के और भी बहुत से रचनात्मक पहलू हैं जो भीतर से झकझोरते हैं। वहीदा रहमान के नृत्य सौन्दर्य के साथ देवानंद ने अपने किरदार को इस गहराई से इसमें जिया कि जितनी भी बार गाईड देखें वह सोच में बढ़त करती है। मुझे लगता है, देवानंद गूढ़ विषय की गहराई में इस फिल्म में इस कदर रमे हैं कि एक प्रकार से उनका कायारूपान्तरण वहां हुआ है। राजू की भाव-भंगिमाएं, उसकी मुस्कान, उसकी मासूमियत, संवाद अदायगी, संवेदनाओं का आकाष और किरदार में रमा मन चरित्र को जीवंत करता है।

बहरहाल, देवानंद के जीवन में यदि ‘गाईड’ नहीं होती तो शायद उनका मूल्यांकन वह नहीं होता जो आज हो रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘ज्वैल थीफ’ ‘हम दोनों’, ‘प्रेम पूजारी’, ‘हरे रामा हरे कृष्णा’,‘गेस्ट, ‘बाजी, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘सीआईडी’ जैसी देवानंद की फिल्मों में उनका अभिनय महत्वपूर्ण नहीं था परन्तु ‘गाईड’ के किरदार को जिस षिद्दत से उन्होंने जिया, वह कभी बिसराया नहीं जा सकता। उनके जीवन के अभिनय का यह ऐसा मुकाम है जिससे अभिनय संवेदना की उनकी गहराई को समझा जा सकता है। याद पड़ता है, कभी देवानंद ने कहा था, ‘ड्रामा फिर से उकेरा जा सकता है। केवल कुछ रहस्य, कुछ परछाईयां, कुछ स्याह जगहें ऐसी हैं जिन्हें चाहकर भी फिर से दिखाया नहीं जा सकता।’ सिनेमा की उनकी यह वह समझ है जो गाईड में हर ओर, हर छोर दिखाई देती है।

देवानंद ने सिनेमा में रोमांस को नया मोड़ दिया। यह ऐसा था जिसमें असल जीवन के साथ रोमांस की लय है। वहां जीवन के साथ परदे की कथाओं में रची रोमांस, प्यार की कहानियां की फतांसियां भरी पड़ी है। सिनेमा और जिन्दगी के रिष्तों का गठजोड वहां है़। हालांकि सच यह भी है कि जीवन का सच पूरी तरह से सिनेमा का सच कभी हो ही नहीं सकता। चुनांचे हरकोई जिन्दगी की वही सच्चाईयां आंखो से देखना चाहता है जिसमें सब कुछ सुखद हो, प्यार भरा हो, रोमांस से लबरेज हो। देवानंद इसलिये दर्षकों को भाते रहे हैं कि रोमांस की जो चाह व्यक्ति के भीतर सजी होती है, उसे उन्होंने सिनेमा में गहरे से जिया। पर्दे के सच के अंतर्गत जिन्दगी का साभ निभाते हर फिक्र को धूंए में उड़ाते इस शख्स ने भरपूर सराहना पायी। बाकायदा इस सच में संवाद निर्वहन का अपना एक नया स्टाईल भी उन्होंने विकसित किया। यह ऐसा है जिसमें दर्द है तो उसकी तड़प, गहराई है। खुषी है तो उसकी उमंग है। प्यार है तो उसका रोमांस भी है। उनकी फिल्मों से रू-ब-रू होते लगता है, कहानी के अंतर्गत गढ़े चरित्र में अपनापन मिलाते अदाओं का नया मुहावरा विकसित किया गया है। बोलने, कपड़े पहनने, दृष्य में भाव-भंगिमाओं के निरालनेपन पर जाएं तो लगेगा, सिनेमा की संवेदना की गहराई में ही वह रच-बस से गये थे। कुछ इस तरह से कि बाद में स्वयं उनके निजी जीवन में भी सिनेमा हरदम छाया रहा।


असल जीवन में भी वह सिनेमा के गढ़े अपने व्यक्तित्व की इस सच्चाई से शायद कभी फिर मुक्त नहीं हो पाये। खुद उनका बनाया यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसमें व्यक्ति कभी बीमार नही होता। जिसमें कभी व्यक्ति उम्र दराज नहीं होता और जिसमें व्यक्ति जवां ईष्क के खुमार से कभी बाहर नहीं निकलता। इस जिये में ही बाद में उनकी जो फिल्में आयी, भले वह ‘अव्वल नम्बर’, हो या फिर ‘सौ करोड़’ या फिर ‘मिस्टर प्राईम मिनिस्टर’ या फिर ‘सेंसर’ जैसी फिल्में-सबमें देवानंद ने कभी अपनी रोमांस की हीरो इमेज से बाहर निकलना ही नहीं चाहा। और यही कारण है कि वह अपने को कभी हारा हुआ नहीं पाते भले उनकी फिल्में बॉक्स आफिस पर बाद में पिटती भी रही। यह भीतर की उनकी ऊर्जा, उनकी लगन और जीवन की वह उमंग ही कही जायेगी जिसमें वह अपने को चिरयुवा ही समझते रहे।

गुरूदत्त, राजकपूर सरीखे अभिनेताओं के बाद यह देवानंद ही थे जिनमें सर्जनात्मकता की भूख सदा ही रही है। उनकी लिखी आत्मकथा ‘रोमांस विद लाईफ’ पढ़ते लगता है, उम्र को दरकिनार करते सदा कुछ नया करते रहने और उसमें ही सुकून की तलाष की उनकी जीवटता ने ही जीवन की असफलताओं को सदा पीछे भी धकेला। यह जब लिख रहा हूं, उनका कहा याद आ रहा है, ‘चित्रकार जिस तरह से अपनी पेंटिंग के प्रति भावुक रहता है, उसी तरह से मैं अपनी फिल्म के प्रति भावुक रहता हूं।’


Thursday, December 1, 2011

साहित्य अकादमी की यह यादगार यात्रा







विश्व कवि रविन्द्र नाथ टेगौर के 150 वें जन्मशती वर्ष पर केन्द्रीय साहित्य अकादेमी ने इस बार महत्वपूर्ण पहल की. भारतीय भाषाओं के लेखकों के एक दल को रविन्द्र की जन्भूमि जोडासाकुं, उनके द्वारा स्थापित शांति निकेतन विश्वविध्यालय ले जाया गया. राजस्थानी कवि के रूप में इस दल में सम्मलित हुआ. साहित्य अकादेमी सभागार में कविता पाठ भी किया. इससे पहले दो दिन शांति निकेतन, ठाकुरबाड़ी, कोलकता में देश भर से आये लेखको के साथ कभी न भुलाने वाले पलों को जिया. साहित्य अकादमी की यह यादगार यात्रा 16 से 18 नवम्बर को की गयी...जेहन में अभी भी बसी है यादें. छाया-चित्र फिर से यादें जीवंत कर रहे हैं...