ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 17, 2011

यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख

-राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा-

देवभूमि, प्रहरी, रत्नखानि, इतिहास विधाता और संस्कृति का मेरूदण्ड और भी न जाने कितने ही नाम हिमालय के हैं। भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि का उत्स है देवात्मा नगाधिराज हिमालय। इसका हर षिखर, नदी, सरोवर पवित्र है। यायावर लेखक कृष्णनाथ का लिखा याद आ रहा है, ‘हिमालय का दरस-परस है। यह त्रिक का एक पद है।’ सच ही तो है। इतिहास, संस्कृति, पुराण कथाओं का नाद है हिमालय।
लब्धप्रतिष्ठि मलयालम लेखक एम.पी. वीरेन्द्रकुमार लिखित और डॉ. पी.के राधामणी अनुवादित सद्य प्रकाषित ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक का आस्वाद करते हिमालय का यह वर्णन आंखों के सामने जैसे साकार होता है। हिमालय के बहाने वह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े किस्से, कहानियां और प्रसंगों का जब उल्लेख करते हैं तो लगता है उनकी यह यात्रा बाह्य स्थानों भर की नही है बल्कि आंतरिक स्तर पर निरंतर चलती है। आंतरिक यात्रा के इस अन्वेषण में इतिहास, पुराण कथाओं, लोक कथाओं, मिथकों, जन श्रुतियों के साथ प्रकृति और संस्कृति, देह और चित का उनका वर्णन लुभाता भी है तो बहुत से स्तरों पर झकझोरता भी है। जोषी मठ के यात्रानुभव को देखें, ‘...हम पहाड़ स्खलन के एक खतरनाक प्रदेष मंे पहुंचे। सड़क की एक ओर से पहाड़ ढह रहा है। दूसरी तरफ अतल गहराई में अलक नंदा का तेज़ तर्रार प्रवाह। ...अचानक एक सफेद अंबेसडर कार ने अरविंद की वैन को पार करने की कोषिष की।...पल में उस गाड़ी का ब्रेक नाकाम हो गया। गाड़ी से चीखें निकली। कार बेकाबू होकर नीचे की ओर लुढ़कने लगी। उषा, आषा, नंदन और मैं जिस गाड़ी में थे उसकी ओर वह आ रही थी। हमारी भी चीखें निकली। सौभाग्य से एक चट्टान से टकराकर वह कार रूकी।’ रोमांचक, साहसिक यात्राओं के प्रसंग और भी है। बरकोट की ठंड में तंबू में बितायी रात की बात है तो भारतीय सीमा के आखिरी गांव माना का हाल भी है। मसूरी की सैर करते वह मषहूर लेखक रस्किन बॉण्ड के उस व्यक्तित्व पर भी गये है जिसमें नर्सों से प्यार के चलते दिनों तक अकारण अस्पतालांे में वह भर्ती हो जाया करते थे तो उनके लिखे का यह कहा ‘प्यार करना और प्यार पाना दुनिया का सबसे सुखद अनुभव है’ का जिक्र करना भी वह नहीं भूले हैं।
हिमालय की वादियों का एम.पी. वीरेन्द्रकुमार का प्रकृति चितराम जरा देखें, ‘...दूर कंबल ओढ़कर सूरज की किरणों को गले लगाने के इंतजार में लेटी चोटियां। पहले धूंधली दिख रही थी मगर आहिस्ता आहिस्ता प्रकाष फेलने लगा तो रंगीन होने लगी। घाटियों का जंगल सूरज की रोषनी मंे डूब गया। हर रंग और ज्यादा चमकने लगा। सूरज धीरे धीरे ऊपर उठने लगा। चिड़ियों के कलरव से वातावरण संगीतमय बन गया।’
‘वादियां बुला रही है हिमालय की’ पुस्तक यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख हमारे समक्ष रखती है। इन दृष्यालेखों में स्थान विषेष के इतिहास, संस्कृति और समय सरोकारों से को ही नहीं बल्कि दर्षन के नये आयामों को भी पढ़ा जा सकता है। घुम्मकड़ी में भारतीय नदी परिकल्पना पर विचार करते एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘एक बार मैं महेष्वर नामक जगह गया। यह अहल्या की धरती है। वहां पहुंचने पर पहरेदार ने मुझे प्रणाम करके पूछा कि किस नदी के साथ मेरा संबंध है? मैं दंग रह गया। बड़ा अजीब सवाल था। मेरी भाषा या शहर के बारे में पूछने की बजाय उसने मुझसे पूछा कि कस नदी से ताल्लुक रखते हो? यही भारतीयों की नदी परिकल्पना है।’ ऐसे ही हरिद्वार के रास्ते में मोर पंख से सजे कांवर के बहाने वह मोर से जुड़े अनगिरत प्रसंगों के साथ ही इस पक्षी के षिकार, अत्याचार की भयावहता में चेताते भी हैं कि मोर के साथ ऐसे ही अत्याचार होते रहे तो धरती पर इन्द्रधनुषी छटा बिखरने वाले मयूर वंष का विनाष हो जायेगा।
बहरहाल, एम.पी. वीरेन्द्रकुमार ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक के अपने यात्रानुभवों में हिमालय के इतिहास में भी ले जाते हैं तो वर्तमान में लौटाते भी हैं। भूदृष्य अंकन के अंतर्गत पुस्तक में संस्कृति, प्रकृति का यात्रा गान ही नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं की ओर ध्यानाकर्षण भी है। यात्रा अनुभवों और दृष्यों का पुस्तक ऐसा रोचक कोलाज है जिसमें विकसित होते और बदलते दृष्य परिप्रेक्ष्यों को समय संवेदना के साथ समझ की गहराई से लेखक ने उकेरा है। यात्रा संस्मरण के बहाने, आत्मकथा, ललित निबंध, रिपोर्ताज, डायरी आदि साहित्य की तमाम विधाओं का मेल यहां है। यात्रानुभूतियों को इन सबके बगैर कहीं पूर्ण लिखा जा भी सकता है! ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पढ़ते न जाने क्यों लारेन्स उरेल का कहा याद आ रहा है, ‘यात्राएं हमें बाहर केवल स्पेस में ही नहीं ले जाती, उन अज्ञात स्थानों की ओर भी ले जाती है, जो हमारे भीतर है।’
पुस्तक : वादियाँ बुलाती हैं हिमालय की
लेखक : एम. पी. वीरेंद्रकुमार
अनुवाद: डॉ. पी. के. राधामणि
प्रकाशक: राजस्थान पत्रिका प्रकाशन
मूल्य : चार सौ

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