ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, October 22, 2023

परख से सिरजे मूल्य—बोध से बनता है कलाकृतियां का बाजार

विश्व बाजार में अमृता शेरगिल की कलाकृति "द स्टोरी टेलर" कुछ समय पहले 61.8 करोड़ रुपये में बिकी है। इसके साथ ही दुनिया भर में नीलामी में बिकने वाली किसी भारतीय कलाकार की यह सबसे महंगी पेंटिंग बन गई है। इससे पहले रजा की एक कलाकृति भी 51.75 करोड़ में बिकी थी। भारतीय कलाकृतियों के प्रति बाजार का रूझान इधर तेजी से बढ़ा है। इसका बड़ा कारण है, उनमें निहित सौंदर्य की बढ़ती विश्व—समझ।

भारतीय कलाकृतियों की बड़ी सीमा आरम्भ से ही उनमें निहित विषयों की ठीक से व्याख्या नहीं होना है। कला—बाजार में कलाकृतियां का बाजार उनकी विशिष्ट परख से सिरजे मूल्य—बोध से बनता है। कभी अवनीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृति 'तिष्यरक्षिता' में निहित विषय—संवेदना ब्रिटेन की विक्टोरिया को इतनी भाई थी कि उन्होंने इसे ब्रिटेन मंगवा लिया था।  

राजस्थान पत्रिका, 21 अक्टूबर 2023

भारतीय कलाकृतियों की बड़ी विशेषता है, उनमें निहित अंतर का आलोक। दृश्य में भी बहुत सारा जो अदृश्य चित्रकार अनायास उकेरता है, वही उसका मूल सौंदर्य होता है। हेब्बार के रेखांकन ही लें। उन्होंने नृत्यांगना का चित्र यदि उकेरा है तो नर्तकी का पूरा—चित्र नहीं है। थिरकते पैर, घुंघरू और भंगिमाओं में ही उन्होंने नृत्य की सर्वांग अनुभूति करा दी है। ऐसे ही गायतोण्डे ने रंगो की विरल—छटा में ही कैनवस के मौन को खंड—खंड में अखंड रूप लिए मुखर किया है। भारतीय लघु चित्र शैलियों को ही लें। कृष्ण वहां उकेरे गए हैं तो वह सीधे—सपाट नहीं है, बांकपन में है। त्रिभंगी मुद्रा में बांसुरी बजाते वह लुभाते हैं। नटराज की मूर्ति है तो उसमें निहित लय—ताल और गति का छंद देखने वालों को सुहाता है। माने कलाएं हमारे यहां दिख रहे दृश्य ही नहीं उससे जुड़े बहुत से और संदर्भों की रमणीयता में आकृष्ट करती है। एक पर्युत्सुक भाव वहां सदा बना रहता है। रजा के चित्रों को ही लें। वृत्त, वर्ग और त्रिकोण में उन्होंने भारतीय संस्कृति की सुगंध को जैसे रंग—रेखाओं में रूपांतरित कर दिया है। बिन्दु की उनकी चित्र शृंखला ध्यान से जुड़ी हमारी परम्परा को देखते हर बार पुनर्नवा करती है। यही भारतीय कलाओं की बड़ी विशेषता है कि वहां पर जितना दृश्य होता है उतना ही वह रम्य अव्यक्त भी समाया होता है जिसमें कलाकृति अपने सर्वांग सौंदर्य में हमारे मन को मोहित करती है।

अभी कुछ दिन पहले ही इस समय की महती कलाकार निर्मला सिंह के चित्रों की एक प्रदर्शनी क्यूरेट की थी। उनके चित्र एक नजर में रंगो की छटा—भर लगते हैं पर गौर करेंगे तो पाएंगे वहां एक रंग दूसरे में घुलकर कलाओं के अंत:संबंधों का जैसे संवाहक बना है। घर, आंगन और मन में उठते भावों को उन्होंने रंगमय कैनवस में जैसे रूपांतरित किया है। धुंधलके से उठते उजास का उनका राग—बोध रंगो की रम्यता में ही कथा का पूरा एक संसार सिरजता है। शुक्रनीति में कलाओं के ध्यान से जुड़े विज्ञान पर महती विमर्श है।

भारतीय कलाएं कथा—रूपों में, साहित्य की संवेदनाओं में ही निरंतर बढ़त करती रही है। इसलिए कोई यदि यह कहता है कि साहित्य से जुड़ी समझ कलाओं के लिए घातक है तो इससे बड़ी कोई बोद्धिक दरिद्रता नहीं हो सकती है। कला की अतीत से लेकर वर्तमान तक की यात्रा को सहेजेंगे तो पाएंगे वहां सौंदर्य भाव—रूप में है। विद्यानिवास मिश्र ने कभी कहा भी था कि हमारे यहां साहित्य कलाओं में सम्मिलित नहीं है, बल्कि कलाओ की संयोजिका है। चित्र की कोई भाषा नहीं होती परन्तु उनमें निहित आशयो में जाएंगे तो कथाओं के अनगिनत गवाक्ष खुलते नजर आएंगे। इस दृष्टि से हमारी पारम्परिक और आधुनिक कलाकृतियां ध्यान के ज्ञान में अभी भी सूक्ष्म परख की मांग लिए है।

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