ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 18, 2023

संघ गणराज्य संस्कृति से जुड़ा लोकतंत्र और श्री कृष्ण

 पत्रिका, 18 नवम्बर, 2023

पर्व का अर्थ है उत्सव। नई शुरूआत। उल्लसित मन से सब हिल—मिल जिसे मनाए, वह है पर्व। पर्व का मूलार्थ है—गाँठ या जोड़। इससे आगे पूंगल फूटती है। पुंगल माने प्राणियों की वह चेतन शक्ति जिससे वे जीवित रहते हैं। पर्व इसीलिए जीवंतता का संवाहक है। इस समय देश के पांच राज्यों में लोकतंत्र का पर्व मनाया जा रहा है। तीन दिसम्बर को जब वोटों की गिनती होगी तो इन राज्यों में जनतंत्र की नई शुरूआत ही तो होगी। वेदव्यास रचित महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। कौरव—पाण्डवों का युद्ध अठारह दिन चला इसलिए अठारह पर्व है। युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले अर्जुन युद्ध करने से मना करता हैं तब श्री कृष्ण उन्हें जो उपदेश देते है, वही महाभारत के भीष्म पर्व का अंग 'श्रीमद्भगवद्गीता' है।  इसमें भी अठारह अध्याय हैं।

गीता के जरिए बगैर किसी फल की कामना कर्म का संदेश देने वाले भगवान अवतारों में अकेले श्री कृष्ण हैं जो संपूर्ण कला—पुरूष कहे गए हैं। भगवान राम भी अवतार हैं पर वह बारह कलाओं युक्त थे। सूर्य वंश में वह अवतरित हुए। सूर्य की बारह कलाएं है। श्री कृष्ण चन्द्र वंश से थे। चन्द्रमा आदि—अनादि शिव कृपा से आकाश में सोलह कलाएं बांटते हैं। पर यह भी जान लें कि कम या अधिक कला से किसी अवतार का महत्व अधिक—ज्यादा नहीं हो जाता है। अवतारों की कलाएं आवश्यकता आधारित हैं। श्री राम को रावण का वध कर मर्यादित समाज की स्थापना करनी थी, इसमें बारह कलाएं युक्त होना ही पर्याप्त था। कृष्ण द्वापर युग के अंत में जन्में। उन्हें धर्म की पुनर्स्थापना करनी थी। इसलिए सभी सोलह कलाओं की उन्हें जरूरत थी। वह सोलह कलाओं संग 64 विधाओं यानी गुणों से संपन्न थे। और फिर श्री कृष्ण हमारे देश के लोकतंत्र के भी सबसे बड़े नायक हैं। महाभारत में वर्णित अनेक राज्यों में कोई संघ राज्य नहीं था, बस एक द्वारका संघ राज्य थी। श्री कृष्ण ने ही इस संघ राज्य की नींव डाली। उसे पाला और वैभव दिया। समर्थ होते हुए, बड़ी शक्ति रखते हुए भी उन्होंने संघ के आदर्श को प्रधानता दी। एकतंत्र नहीं किया। चाहते तो कंस को मारने के बाद वह मथुरा के राजा बन सकते थे परन्तु उन्होंने संघ राज्य में विश्वास किया।   महाभारत में अकेला द्वारका ही एक ऐसा गणराज्य था जिसके संघ प्रमुखों की सेनाएं दोनों पक्षों की ओर से युद्ध लड़ रही थी। कृष्ण अर्जुन के सारथी बन पाण्डवों के साथ थे पर उनकी गोपवीरों की नारायणी सेना दुर्योधन के लिए लड़ी। द्वारका के ही एक और राजन्य कृतवर्मा ने अपनी सेना के साथ दुर्योधन का साथ दिया। तो कहें, भारत में गणराज्यों की नींव कलाओं के सर्वांग श्री कृष्ण के कारण ही पड़ी।

श्री कृष्ण भारतीय कलाओं ही नहीं हमारी संस्कृति में भी गहरे से रचे—बसे हैं। वह महाभारत के मानवीय नायक हैं तो धर्म और अध्यात्म के रूढ़ अर्थों से हमें मुक्त करते लौकिकता में अलौकिकता की अनुभूति कराने वाले हैं। गोवर्धन पर्वत उठाए,  वन में मुरली बजाते धेनु और कदम्ब संग, मोर—मुकुट की भांत—भांत की की उनकी मोहक मूरतें भारतीय लघु चित्रों की ही प्रेरणा नहीं रही है, हमारी संस्कृति को भी निरंतर पर्व—मय करती रही है। वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत में श्री कृष्ण की जिन लीलाओं को शब्द—शब्द उकेरा है,  अद्भुत है। गीत गोविन्द में जयदेव ने जिस तरह से कृष्ण संग राधा का वास कराया है वह भी तो विरल है! कृष्ण की त्रिभंगी—बांसुरी बजाती, टेढ़ी गर्दन, टेढ़ी कमर की छवियां कितनी मोहक है। यह जो त्रिभंगी जिसकी है, उसमें ही तो विश्वात्मा का भाव—भव है। कलाओं की सर्वांग दीठ और लोकतंत्र में पुरुषार्थ से विजयी होने की प्रेरणा श्रीकृष्ण के इन कला—रूपों में ही मिलेगी। तो आईए,  लोकतंत्र के इस पर्व में श्री कृष्ण को स्मरण करते चुनें उनको जो आपके मत का महत्व समझते सही—सर्वहित की समझ भरा प्रतिनिधित्व करे।


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