राजस्थान पत्रिका, 4 मई 2024
अरसा पहले कला मर्मज्ञ मुकुंद लाठ जी के घर पर पंडित जसराज जी से संवाद हुआ था। याद है, उन्होंने तब सिखिया, दिखिया और परखिया शब्दों का प्रयोग किया था। यह संयोग ही है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम 'संवाद' में प्रेरणा श्रीमाली ने भी इस बार सीखने, देखने और परखने के शब्दों में कथक सीखने का मंत्र दिया। मुझे लगता है, कला—शिक्षा का मूल—मर्म यही है। हमारे यहां पाठ्यक्रमों मे कलाओं की सैद्धान्तिकी का समावेश तो होता रहा है परन्तु उसकी व्यावहारिकी प्राय: वहां गौण है। यह वह विकट दौर भी है जब रोज़ ही लगभग यह समाचार मिलते हैं कि फलां प्रतियोगी परीक्षा की तैयार करते छात्र—छात्रा ने आत्महत्या कर ली। दिशा—भ्रमित होकर ऐसे कदम उठाए जाते हैं परन्तु कलाएं इस भ्रम का निवारण कर सकती है, बशर्ते उनके लिए शिक्षण संस्थाओं में स्थान बनें।
कलाएं सृजन की सारी संभावनाओं के द्वार खोल उमंग, उत्साह से लबरेज करती है। स्वतंत्रता से कुछ सोचने की दृष्टि देती है। यह विडंबना ही है कि संगीत, नृत्य, नाट्य चित्र, मूर्ति, वास्तु आदि के प्रदर्शन के जतन तो हमारे यहां बहुत है परन्तु उनके प्रति रसिकता जगाने की दृष्टि लोप प्राय: है। कहा गया है, रंजयति इति राग:। माने जो मन को रंग दे, वह राग है। कलाओं के इस राग से ही जीवन के प्रति अनुराग जगता है। शिक्षा की बड़ी जरूरत इस समय यही है।
महात्मा गांधी ने कभी कहा था कि जनता से जुड़ने का जो काम राजनीति में रहकर वह कर रहे हैं, नंदलाल बोस वह कार्य अपनी कला में कर रहे हैं। चरखे के संगीत को सुनते स्वदेशी के प्रसार, आश्रम में प्रार्थना करवाने से जुड़े उनके कार्य जन— मन को जोड़ने की दृष्टि ही है। कलिंग युद्ध के बाद लाखों की संख्या में हुए नरसंहार को देख अशोक का जब हृदय परिवर्तित हो जाता है तो धर्म में जय की अपनी दृष्टि के प्रसार के लिए वह कलाओं का सहारा लेता है। कौशाम्बी, वैशाली, लाठ—लौर, सारनाथ और अन्य धर्म—स्तूपो पर मूर्ति—अलंकरणाों में खुदी धर्मलिपि से ही धर्म की उसकी शिक्षाओं का प्रसार हुआ। गिजूभाई बच्चों को सृजन से जोड़ने पर ही जोर देते थे। उन्होंने तो लिखा है, 'कुछ हत्याएं पीनल कोड की धारा के अधीन नहीं आती।...जीवन के प्रति होने वाला अपराध बालक की सृजन शक्ति की हत्या है।' मुझे लगता है, शिक्षा में सृजन संभावनाओं से होने वाली दूरी ही आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या है। बढ़ती आत्महत्याओं का कारण भी यही है।
कलाओं की शिक्षा पाठ्यक्रमों से नहीं मिल सकती। कलाओं के लिए तो परिवेश से सीखने, देखने और परखने की दृष्टि महत्वपूर्ण है। कहने को देशभर में संग्रहालय में प्राचीन धरोहर से जुड़ी महती वस्तुएं संजोई हुई है परन्तु वह उदासीनता पसराते अपने यहां आने को उकसाते नहीं है। अजन्ता, एलोरा, कोर्णाक, खजुराहो के शिल्प अद्भुत हैं परन्तु वहां पर्यटन प्रमुख है। असल में कलाओं को देखने—समझने और उसके अंतर आलोक में जाने के लिए कहीं कोई पहल नहीं है। जरूरी यह है कि हम विद्यार्थियों को देखने, सुनने और गुनने के लिए प्रेरित करें। कुछ समय पहले आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर में व्याख्यान देने जाना हुआ। एक सुबह परिसर में वहां घुमते पाषाण की विशाल मूर्तियों का अनूठा संसार अनुभव किया। भांत—भांत के पेड़, जिनके बारे में किताबों में पढ़ा भर था, वहां उन पर फूल खिलखिलाते देखे। जहन में औचक कौंधा, शिक्षा के परिसर ऐसे ही प्रकृति और जीवन से जुड़ी सुगंध भरे हो। कोई बताने वाला नहीं हो, अपने आप परिवेश सीखने, देखने और परखने की दृष्टि दे। हां, संकेत जरूरी है। काश! मुझ अकिंचन को यही काम दे दिया जाए कि वह कलाकृतियों और परिवेश का वृतांत सुनाता विद्यार्थियों से बतियाता रहे। उपदेश की बोझिलता भरी कक्षा में नहीं, ऐसे ही घुमते—घामते उन्हें सुनें, अपनी सुनाए। ऐसा अवकाश भी जरूरी है। तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और प्रबंधन और दूसरी तमाम शिक्षाओं में कलाओं और प्रकृति से सीखने, देखने और परखने की दिशा में पहल हो तभी कला—शिक्षा व्यवहार में बच्चों को सृजन सरोकारो से जोड़ उन्हें भविष्य की उंची उड़ान के लिए प्रेरित कर सकती है। शिक्षा की सार्थकता भी इसी में है।
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