ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, August 4, 2025

स्वर—रस सिद्ध सिद्धेश्वरी

 सिद्धेश्वरी देवी का गान स्वरों की किस्सागोई है। विरह, मेल, भक्ति और समर्पण को भाव संवदनाओं में जीवंत करते वह स्वरदर स्वर संगीत के अपने सिरजे व्याकरण से जैसे हमें रूबरू कराती है। रागशुद्धता की विरल पुकार वहां है। ऐसी कि जिसे सुनने को मन ललचाए। आखिर उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब और केसरबाई केरकर ने कभी ऐसे ही उन्हें ठुमरी साम्राज्ञी की संज्ञा नहीं दी थी। असल में खयाल शैली में बोल विस्तार और भावपूर्ण पुकार का उनका गान स्वरों का विरल उजास ही तो है!

सिद्धेश्वरी देवी की ठुमरी इसलिए भी लुभाती है कि वहां स्वरों का लालित्य है। ठुमरी का अर्थ ही होता है, स्वरों का ठुमकठुमक, हुमकहुमक निभाव। नाज़--अंदाज़ में गान का अलंकरण।  पर महत्वपूर्ण यह भी है कि इस सबके बाद भी सिद्धश्वेरी जी के गान में शास्त्रीय शुद्धता, गंभीरता से हम कहीं विलग नहीं होते। माने वह गाती तो उनके स्वर संग सुनने वाला भावो में भी डूबडूब रससिक्त होता है। गौर करेंगे तो यह भी पाएंगे, जटिल से जटिल राग को सहज बरतते वह ख्याल, तराना, ठुमरी, टप्पा, चैती, होरी आदि में अपने आपको  जैसे भुल जाती और औचक स्वरों का ऐसा सुंदर महल खड़ा होते हम पाते है जिसमें प्रवेश कर हम मुग्ध हो उठें। स्वरों का अनूठाओज, कुछ भारीपन और लयात्मक प्रवाह में तीनों सप्तकों पर उनका अधिकार था। और हां, स्वरलोचशीलता ऐसी कि बंदिश के एक ही टुकड़े को भांतभांत के भावों में गाते वह चमत्कृत करती हैं। 

मींड, ‘मुरकियां और गान के बीच औचकठहराव  की उनकी अनुभूतियों अवर्णीय है। विश्वास नहीं हो तो सुनें उनका दादरा, 'तड़पे बिन बालम मोरा जिया' या फिर 'तोड़ लायी राजा, जमुनिया की डार रे' या फिर  'सांवरिया मन भायो रे' या राग मिश्र तिलक कामोद में गाई ठुमरी 'सांझ भई घर आओ'  सुनेंगे तो मन करेगा बारबार सुनें। याद है, खमाज में उनकी गाई ठुमरी 'जावो बलम नाही बोलो हमसे' जब भी सुनी, लगा फिर से सुनूं। स्वरों में भावों का ऐसा सौंदर्य कि हर बार मन उनके बोल बनाव, पलटों में खो जाता है।  स्वरों का उनका फेंकने का अंदाज भी बारबार उन्हें सुनने को ललचाता है। मुझे लगता है, ठुमरी को उपशास्त्रीय से निकाल कर शास्त्रीय संगीत में लाने की दृष्टि किसी में थी तो वह सिद्धेश्वरी देवी में ही थी। यह था तभी तो वह ठुमरी को हर बार ध्रुवपद की भांति संस्कारित करती मन को भाती है । मध्य, मन्द्र और तार सप्तक में साधिकार मींड, खटका और कभी वक्र तान में उनकी गायकी स्वर-लालित्य के अनूठे भव में ले जाती है।

सिद्धेश्वरी का गान शब्दशब्द रस है। कभी 'गुरु ग्रंथ साहिब' में एकत्र संतों की वाणी को उन्होंने अपना स्वरउजास दिया तो संत तुकाराम, नामदेव, मीरा, कबीर के पदों को भी अपने गान में जीवंत किया है। सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित सियाजी महाराज से उन्होंने संगीत की आरंभिक शिक्षा ली।  देवास के रजब अली खान और लाहौर के इनायत खान से भी उन्हेांने संगीत का प्रशिक्षण लिया, पर बड़े रामदासजी को सदा अपना मुख्य गुरु माना। कलकत्ता सम्मेलन में अपनी पहली ही सार्वजनिक प्रस्तुति में सिद्धेश्वरी देवी ने ख़याल और ठुमरी की अपनी विरल दृष्टि से श्रोताओं को इतना मोहित किया कि बाद में तो देशभर में उनके गान की धूम सी मच गई। बनारस अंग की ठुमरी में ख़याल अंग का घोल कर उन्होंने गान का अपना मौलिक मुहावरा रचा। परम्परा में रहते हुए उसके जड़त्व को तोड़ कैसे स्वरवैविध्य में गान को भावसंवेदना से अलंकृत किया जाए, सिद्धेश्वरी देवी का गान जैसे हमे यह समझाता है। हर बार। बारबार!

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