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पत्रिका, 8 मार्च 2025 |
कलाएं सभ्यता और संस्कृति का अमूर्तन रचती है। जो शास्त्र में, शब्द में समाए इतिहास में नहीं है वह कई बार कलाएं थोड़ी सी रेखाओं और रंगों में कह देती है। बुद्ध मूर्ति पूजा के विरोधी थे, पर संसार भर में उनकी करुणामय मूर्तियों का आकर्षण आज भी कायम है। पहले उनकी मूर्तियां नहीं बनती थी, छत्र, कर, पद कमल आदि प्रतीकों में ही उनकी विचार दृष्टि का निरूपण होता था। हीनयान तक बुद्ध प्रतीकों से ही व्यंजित होते रहे। महायान के बाद उनकी मूर्तियां बनने लगी। बुद्ध माने जागृत। वह जो ज्ञान संपन्न है। बुद्ध की मूर्तियां असल में इस विचार का ही तो आलोक है।
हमारी लोक चित्र शैलियां प्रतीक, बिंबों में ही सदा रुपायित हुई है। इनकी गहराई में जाएंगे तो पाएंगे यथार्थ का हुबहू वहां अंकन नहीं है। कलाकारों ने अपने अंतर्मन के विचारों को वहां रुपायित किया है। सृष्टि की उत्पति, रहस्य, जीवन से जुड़े विचार, इच्छाएं सब कुछ तो वहां रेखाओं में मिलते हैं। भूरी बाई के चित्र,उड़ीसा के पट्टचित्र, बिहार के मधुबनी के चित्र, राजस्थान में सांझी आदि के चित्र भी तो अर्थगर्भित है। इन्हें तो फिर भी हमारी जानी पहचानी कथाओं से हम समझ लेते हैं पर जन जातीय कलाओं में अमूर्तन का इतिहास कौन लिखेगा और लिखा जो है, उसे बाँचने की सामर्थ्य हम में कहां है! देशभर की कला दीर्घाओं, संग्रहालयों और लोक कलाकारों के मध्य जाकर, संवाद कर, अध्ययन से जो जानकारियां जुटाई तो पाया लोक कलाकार भी किसी दार्शनिक से कम नहीं होते हैं। वे बिंदु से रेखाएं बना सृष्टि के अन्नत रहस्यों से हमें जोड़ते हैं। वे जो बनाते हैं, उनके रेखांकन पर जाएंगे तो बहुत कुछ महत्वपूर्ण पाएंगें। सीधी खड़ी रेखा वहां गति और विकास की द्योतक है तो आड़ी या पड़ी रेखा प्रगति और स्थिरता की। तिरछी रेखा आगे बढ़ने के भाव दर्शाती है तो तरंगायित रेखा प्रवाह की प्रतीक। एक दूसरे को काटती रेखा विरोध, संघर्ष और युद्ध की सूचक मिलेगी तो तीर की तरह बढ़ती रेखा पूर्ण विकास की द्योतक। बिंदु से ही त्रिकोण की उत्पत्ति होती है। त्रिकोण प्रायः तीन देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीन देवियों महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की प्रतीक होती है। इसी तरह यह तीन गुणों सत्, रज और तम, तीन शक्ति ज्ञान, इच्छा और क्रिया, तीन काल-भूतकाल, वर्तमान और भविष्य, तीन अनुभूतियों-सत्, चित् और आनंद से भी जुड़ा होता है। अपने आधार पर खड़ा उर्ध्वमुखी त्रिकोण पर्वत, अग्नि और शिव का प्रतीक होता है तो अधोमुखी त्रिकोण जल और शक्ति अथवा पुरूष और स्त्री-मिलन से सृष्टि का प्रतीक होता है।
खजुराहों में मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी संग्रहालय बनाया है। जनजातीय कलाकारों की कलाओं को समझने का यह विरल स्थान है। पिछली बार खजुराहों नृत्य समारोह में जब एक व्याख्यान के लिए जाना हुआ तो लोककला विद अशोक मिश्र जी के आग्रह पर वहां भी गया। देखा, मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलकर गुजरात के भरूच के पास खंभात की खाड़ी में मिलने वाली पवित्र नर्मदा नदी की हजारों लाखों किलोमीटर प्रवाह की पूरी यात्रा दीवार के एक चित्र में आदिवासी कलाकारों ने उकेर दी है। नर्मदा नदी नहीं, उसकी पद परिक्रमा की संस्कृति का यह इतना मोहक दृश्य आख्यान है कि मन करता है इसे देखे और बस देखते रहे। नर्मदा के इस चित्र को देखते मन मंडला, जबलपुर, नर्मदापुरम, ओंकारेश्वर, महेश्वर की सहस्त्रधारा पहुंच वहां स्नान करने मचल उठता है। लोक का यही आलोक है। आप चित्र देखते हैं और उसके उकेरे समय में रूपांतरित हो जाते हैं। लोक कलाकार अमूर्त में दृश्य संग अदृश्य की जो अनुभूतियां कराते हैं, उन तक पहुंचेंगे तो भारतीय कला के एक और अज्ञात, अनछुए सच से हम साक्षात हो सकेंगे।
असल में लोक कलाएं ही नहीं, सारी की सारी भारतीय कलाएं अर्थ का भार कहां ढोती है! भरतमुनि का नाट्यशास्त्र कलाओं का सर्वांग है। इसमें आता है, ऋग्वेद से पाठ, यजुर्वेद से अभिनय, साम से संगीत और अथर्व से रस लिया। रस वहां से क्यों? इसलिए कि अथर्व वेद मन से जुड़ा है। जादू टोना, वशीकरण, तंत्र, मंत्र आदि सब इसी में है। कलाओं में रस का आधार यही है। रस व्यंजित नहीं किया जा सकता। अदृश्य, अवर्णनीय जो होता हैं। भारतीय कला का यह अमूर्त ही लोक का आलोक है। आप क्या कहेंगे!