ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 29, 2025

एब्स्ट्रेक्ट से चुनौतीपूर्ण है यथार्थ कलाकृतियां का अंकन

पत्रिका, 29 नवम्बर 2025

ऑस्ट्रिया के आर्टिस्ट गुस्ताव क्लिम्ट की "एलिजाबेथ लेडरर का पोर्ट्रेट" कलाकृति हाल ही में 2 हजार करोड़ रुपए में बिकी है। इसमें एक लड़की को सफेद शाही चीनी पोशाक पहने हुए दिखाया गया है। एब्सट्रेक्ट आर्ट के इस दौर में आकृतिमूलक कला की यह बाजार दृष्टि बहुत कुछ जताती है।

कोई भी कलाकृति चाहे वह अमूर्त हो या मूर्त, प्रभावित तभी करती है जब उससे अंतर आलोकित हो। माने वहां दृश्य इस तरह से नियोजित हो कि वह आपको बारबार देखने को आमंत्रित करे। हर बार यह अनुभूत हो कि कुछ है जो देखने से छूट गया है, याकि यह लगे एक बार और भरपूर उसे देखें। एब्सट्रेक्ट में यह आसान है कि वहां हरेक को अपना अर्थ मिलता है। बहुत सारी देखने की संभावना देखने के बाद भी वहां बची रहती है। यथार्थ या कहें ऐसी कलाकृति जिसमें किसी कथा, व्यक्ति या प्रकृति का रूपांकन हो वह प्रायः अपना एक सबका साझा अर्थ हमें सौंपती है,त्वरित आकृष्ट करती है। पर यह आकर्षण थोड़ी देर का होता है। फिर मोनालिसा, किशनगढ़ की बणी ठणी, हमारी लघु चित्रशैलियां, हुसैन के घोड़ों में ऐसा क्या है कि वे बारबार देखने को ललचाते हैं। शायद इसलिए कि वहां आकृतियों का अनुकरण नहीं है, मूल की अपनी मौलिक दृष्टि है! कहन की दृश्य छटा में और भी अर्थ बसे हैं। मुझे लगता है, इस अर्थ में यथार्थ का अंकन बहुतेरी बार एब्स्ट्रेक्ट से अधिक चुनौतीपूर्ण होता है।

कुछ दिन पहले हैदराबाद जाना हुआ तो कलाकार अंजनी रेड्डी के स्टूडियों में उनकी सिरजी कैलाश पर शिवनृत्य की एक कलाकृति ऐसी ही लगी। बारबार उसे देखा। हर बार कुछ नया मिला। एक दृष्टि में कैलाश पर्वत और वहां शिव संग पार्वती के आनंद नृत्य को उन्होंने उकेरा है। हिमाच्छादित कैलाश और वहां शिव का तांडव, पार्वती का लास्य हो रहा है। पर, एक खास तरह की एकांतिकता वहां है। नृत्यरत शिव की मुद्रा पार्वती को देखती हुई और पार्वती की शिव को। पर दोनों आंगिक रूप में मानो एकाकार हैं। रेखाओं की लय में आकारों का विलय। शिव संग शक्ति! भंगिमाओं में गति का आख्यान। नृत्य मुद्राओं में रंग घुले हैं, पर यह कहीं बाहर से नहीं आए। संध्या नृत्य है, इसलिए सूर्य की लालिमा वहां समाई है। नभ का नीला बीच बीच में मुखरित है। धवल रंग संपूर्ण नृत्य का ओज बना है। नंदी और दूसरे गण हैं, पर परछाई रूप में। शिव का त्रिशूल भी श्वेतिमा में घुला उभरा है। शिव गणों की नृत्य में तुरही, डग्गा, ढोल आदि वाद्यों की संगत की भंगिमाएं भी तो छाया, प्रकाश में परछाइयों का गत्यात्मक प्रवाह है। और यही क्यों, नंदी संग यक्ष, गंधर्व, देवताओं की अर्चना में उठे हाथ भी शिव पार्वती के आनंद नृत्य को ही पूर्ण करते संयोजन में यहां है।

अंजनी रेड्डी की कलाकृति आकार में निराकार है। ध्यान में समाहित ज्ञान रूप। प्रकृति में समाए रंगों में आकार घुलकर यहां स्वयंप्रतिष्ठित हैं। यह स्थिर रूपांकन नहीं जैसे चलायमान है। नृत्य में देह यहां गौण है। है तो बस शिव और पार्वती की समाधिस्थ नृत्य अवस्था। कैलाश का परिवेश और आनंद रस! मुझे लगता है, आकृतिमूलक कलाकृति में कलाकार जब अपने आपको विसर्जित कर देता है, तब इस तरह का चित्र स्वयमेव आकार लेता है। यही क्यों हमारे अजंता के, राग रागिनियों के, बारहमासा के और पहाड़ी पेंटिंग में निहित दृश्य जीवंतता का भी यही राज है। वहां अनुकरण नहीं है। संवेदना का रूपांकन है। तो कहूं, कलाएं कहां मूर्त या अमूर्त होती है। वहां कलाकार अंतर आलोक उड़ेलता है तभी वह जीवंत, कालजयी बनती है।


Saturday, November 15, 2025

नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति

पत्रिका, 15 नवम्बर 2025

आज जनजातीय गौरव दिवस है। जनतातीय माने जल, जंगल, जमीन और जानवर से जुड़े जीवनाधार का जातीय समूह। जंगलों, पर्वतीय क्षेत्रों में रहनेवाली जाति। आदिम सभ्यता से जुड़ा है यह समुदाय इसलिए आदिवासी भी कहा गया है। अफ्रीका में अभी भी सर्वाधिक यही लोग है। इसके बाद इनकी सर्वाधिक संख्या भारत में है। हमारे यहां संथाल, गौड़, भील, मीणा और मुंडा प्रमुख जनजाती समुदाय है।  झारखंड,मेघालय, नागालैण्ड,दादरा, अरूणाचल नगर हवेली, अंडमाननिकोबाद, लक्ष्यद्वीप आदि में अभी भी अस्सी प्रतिशत बादी इन्हीं की है। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि सभी कलाओं को आधार इस आदिवासी जन ने ही दिया है।

कईं बार कोई उक्ति चल पड़ती है और उसे ही संदर्भित करने कीफिर होड़ मच जाती है। जर्मन दार्शनिक हेगेल के इस कहे को ही देखें, “वास्तुकला सभी कलाओं की मां है।“  मां माने जननी। पर, वास्तु कलाओं की जननी कैसे हो सकती है? यह शब्द संस्कृत के "वस" से आया है। अर्थ है, जहां बसा जाए। निवास या कहें घर। आदिम समुदायों के घर कहां होते थे!  वह जंगलों में खुले आकाश के नीचे रहते थे। घर की संकल्पना तो बहुत बाद में आई। समझ बढ़ी तो मनुष्य ने गुफाओं में आश्रय लिया। उमंग, उल्लास और उत्साह का कुछ घटा तो वह उछल पड़ा होगा! माने नाचने लगा। इसका अर्थ है, नृत्य ही सभी कलाओं की जननी है। बाद में अपनी इस अभिव्यक्ति को उसने गुफाओं में उकेरा तो चित्र प्रकटे। घरों में बसने, वास्तु की प्रक्रिया तो बहुत बाद में अस्तित्व में आई। पर हम प्राय: पश्चिम की आंख से ही सब कुछ देखते रहे हैं, इसी से 'आर्किटेक्ट इज मदर आफ आल आर्ट' चल पड़ा।

यह महज संयोग नहीं है कि आदिम कला के उद्गम नृत्य पर ही इसी 19 नवम्बर को राजस्थान भर में महोत्सव हो रहा है। यह नृत्य है, घूमर। मुझे लगता है, यही एक वह नृत्य हैजो थोड़ेबहुत बदलाव में पूरे भारत में किया जाता है। 'घूमना' शब्द से बना घूमर। राजस्थान में मंथर गति में वृत्ताकार घूमते हुए यह नृत्य करने की परम्परा लगभग सभी स्थानों पर  है। आंध्र प्रदेश का पारंपरिक जनजातीय नृत्य ढिमसा भी घूमर जैसा ही है। ढिमसा का अर्थ हैपैरों की आहट। घूमर की तरह समूह में पैरों की लयबद्ध ध्वनि संग घूमघूम कर यह एक घेरे एक-दूसरे का कंधा या कमर पकड़कर किया जाता है।

राजस्थान का घूमर भी मूलत: आदिवासी समुदाय की ही उपज है। मूलत: यह भीलों का नृत्य है। कालान्तर में इसमें शृंगार तत्व जुड़ते गए। घूमर के सौंदर्य पक्ष से फिर यह जनमन का बनता चला गया। गोल घेरे में घेरदार घूमाव वाले घाघरे में इसमें हाथों के लचकदार संचालन संग गोल चक्कर लगाकर थोड़ा झुककर महिलाएं ताल लेती है।  'म्हारी घूमर छै...', 'घूमर रमवा म्हैं...' आदि बोलों पर प्राय: सवाई यानी अष्टताल कहरवा लगता है।  मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती में थोड़े बहुत अंतर से यह होता है। मारवाड़ का रजपूती घूमर शृंगारिक है। मेवाड़ी घूमर गुजरात से निकटता के कारण गरबा की भांत है।   

घूमर नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति है। बहुत से स्तरों पर शास्त्रीय नृत्यों की प्रेरणा भी। पश्चिम में नृत्य देह के करतब से जुड़ा है जबकि हमारे यहां घूमर और दूसरे सभी नृत्यों में नर्तक देह में रहते हुए भी उससे परे चला जाता है। आत्म का विसर्जन कर देता है। देह पृथ्वी तत्व है, इसलिए नीचे की ओर धंसती है। आत्मा आकाश तत्व है।  ऊपर की ओर उठता है। देह से ऊपर उठने की आकांक्षा ही तो नृत्य है! घूमर नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति है। 

बहुत से स्तरों पर शास्त्रीय नृत्यों की प्रेरणा भी। पश्चिम में नृत्य देह के करतब से जुड़ा है जबकि हमारे यहां घूमर और दूसरे सभी नृत्यों में नर्तक देह में रहते हुए भी उससे परे चला जाता है। आत्म का विसर्जन कर देता है। देह पृथ्वी तत्व है, इसलिए नीचे की ओर धंसती है। आत्मा आकाश तत्व है।  ऊपर की ओर उठता है। देह से ऊपर उठने की आकांक्षा ही तो नृत्य है!