ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Wednesday, December 24, 2025

सारंगी का सौरंगी गान

जागरण, 22 दिसम्बर 2025

 सारंगी सौ रंगों से जुडा है। कुछ लोग संस्कृत शब्दसारंगसे भी इसे जोड़कर देखते हैं। जो हो, सारंगी करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करने वाला तत्वाद्य है। सुनेंगे तो लगेगा ध्वनियों का रस बरस रहा है। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी है। कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। राजस्थानी लोकवाद्यरावणहत्थाभी कुछ कुछ सारंगी सरीखा ही है। सारंगी कभी कोठों में बजती थी। पर, इसे कोठों की पहचान से शास्त्रीय रंगों में किसी ने साधा तो वह पंडित रामनारायण रहे हैं। पंडित रामनारायण की सारंगी बजती नहीं, गाती है। उनसे निकट का नाता रहा। जब भी मिले सारंगी के रस माधुर्य का नया कुछ सौंपा। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती उनकी सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज! तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सच! उनकी सारंगी सदा दृश्य भाषा रचती। ठुमरी ही नहीं राग जोगिया में वह असार संसार का सार समझाते। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते हैं, सारंगी के उनके सुर। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है उनका सारंगी नाद

उदयपुर में वह जन्में और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। उस्ताद अमीर खाॅं, गंगूबाई हंगल, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, केसर बाई, बड़े गुलाम अली खां के साथ उन्होंने सारंगी संगत की। यहूदी मेनुहिन, पैब्लो कासाल्स और रास्त्रोपोविच के साथ विश्वभर के मंचों पर उन्होंने सारंगी की प्रस्तुतियां दी। वह नहीं होते तो सारंगी कब की अतीत बन हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर पंडितजी ने सारंगी अपनायी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी गाने लगी। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की।

याद करेंकश्मीर की कलीकादिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुर क्या लाजवाब सधे हैं! बीन अंग आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की सदा बढ़त करते। उदयपुर से मुम्बई, लाहौर रेडियो स्टेशन पर स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में कार्य करने और फिर कोठों से निकालकर सारंगी को शास्त्रीयता की पवित्रता के साथ स्थापित पर उनसे एक दफा संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘सारंगी कोठों में कैद थी। बाहर तब बजती भी कहां थी! नृत्यांगनाओं के नृत्य मे ंप्रयुक्त संगीत के वाद्यों से निकाल एकल इसे बजाने की कार्यक्रम किए। फिल्मों में इसीलिए बजाया कि इसे मान मिले। संकट बहुत आए, परवाह नहीं की।" पंडितजी ने 1944 में रेडियों आर्टिस्ट के रूप में ऑल इंडिया रेडियो में स्टाफ आर्टिस्ट बने। पर वहां कार्यक्रम करने को नहीं मिलता। मिलता तो कार्यक्रम काट दिया जाता। उन्होंने सारंगी को ही अपने को समर्पित कर दिया। उनके प्रयास रंग लाए, सारंगी जन मन में बसने लगी।

सारंगी में गज का संतुलन उन्होंने ही पहले पहल समझाया। उनकी सारंगी बजते सौ रंगों की बरखा ही तो करती है, विश्वास नहीं है तो सुनें। मन करेगा, गुनें। गुनते ही रहें। वह नहीं हैं, पर सारंगी की उनकी दी सौगात स्वरों की हमारी थाती है।


Saturday, December 20, 2025

छायांकन—कला में समाई सौंदर्य—सृष्टि

पत्रिका, 20 दिसम्बर 2025

छायांकन  दृष्य- बंध कला है। दृश्यों में बाँधने की कला साधना। इसलिए तो कैमरे से निकली सुंदर छवियां  हमें भातीहै। किसी विशेष मुद्रा के भावों में हमारे अपने ही छाया चित्रों से हमें कई बार ऐसा मोह हो जाता है कि उनसे हम अपने को मुक्त नहीं कर पाते। छायाकार अनुभूतियों का सौन्दर्यान्वेषण करता है। देखने की विशिष्ट सूझ से दृश्यों का रूपक गढ़ता है। जो दिख रहा हैवही सत्य कहां होता है! सत्य उसमें निहित भाव भव होता है। स्थिर छायाचित्र में ही नहीं मूवी में भी  कैमरा साधन होता है, साध्य छायाकार की कला दृष्टि होती है। इसी से छायाकार यथार्थ को भी सौंदर्य- छटाओं में रम्य बनाता हमें लुभाता है।

फिल्मों में हीरो-हिरोइन सुंदर दिखते है।  क्या वह वास्तव में वैसे होते है?  हां, सुंदर बहुत सा होता है, पर उसे स्वप्न-सौंदर्य में रूपांतरित कैमरामैन करता है। राजकपूर की,  सत्यजित राय की और मणिकौल की फिल्में देखें। वहां दृश्यों में छाया-प्रकाश संवेदना की कथा कहते मिलेंगे ।  सिनेमेटोग्राफर  राधु करमाकर ने राजकपूर की प्रायः सभी फिल्मों में छायांकन किया। उनका अनुभूति आलोक है, "नर्गिस सर्वश्रेष्ठ सुंदरी नहीं थी। पर कैमरे में दिखती है।" यह सच है। असल में नर्गिस का व्यक्तित्व गरिमापूर्ण था। आभामंडल मोहक था। यह उसे फिल्माने वाले छायाकार थे जो चेहरे के उन भावों को पढ़ उसे अपनी छायांकन-कला में रूपांतरित कर देते थे। छायांकन में भाव, दृश्य में निहित संवेदना पढ़ना आना ही कला है।  इसीलिए कैमरे की आंख से नर्गिस गतिशील चेहरे में गरिमा संपन्न ऐसे भव्य सौंदर्य में हमें नजर आती है, जैसे ईश्वर रचित चेहरे से हम साक्षात हो रहे हैं। यह सब उनके चेहरे का जितना सच था उससे अधिक छायाकार की वह सौंदर्य दृष्टि है, जिसमें कैमरे ने इतने अच्छे कोणों से चेहरा संजोया कि वह अप्रतिम सौंदर्य बन हमें लुभाता है।

छायांकन कला का बड़ा सच क्षण जो घट  रहा है,  उसमें कुछ खास लगा त्वरित संजोना है। इसी से साधारण भी बहुत बार असाधारण या कालातीत बन जाता है। कैमरे की तकनीक अद्भुत तो कर सकती है पर सौन्दर्य का सृजन तो वह कला दृष्टि ही करती है जिसमें  दृश्य  के समानान्तर संवेदनाओं को सहेजा जाता है।  

कैमरामैन छाया प्रकाश की संवेदना और दूर, नजदीक में भाव भरने का अर्थ सामर्थ्य रखता है। इसी से दृश्य जितना सुंदर होता नहीं उससे अधिक सुंदर बन जाता है। फिल्मों में एक समय वह भी था जब हिरोइनें हीरो से नहीं अच्छे भविष्य के लिए कैमरामैन से विवाह करती थी। या कहें प्यार करने का कईं बार नाटक रचती थी। इसलिए कि कैमरामैन राजी नहीं तो सुंदर चेहरे का भी भद्दे कोण से चित्र ले अभिनेत्रियों का भविष्य चौपट कर देता था। आरंभिक अभिनेत्रियों में शांता आप्टे कैमरे से बाहर देखने में इतनी सुंदर नहीं थी पर उनका चेहरा सदा ही सुंदर दर्शाया गया। बकौल राधु करमाकर मूवी कैमरा प्रकाश के सहारे चित्रकारी करता है। जिंदगी, प्रकृति और समाज को देखने और मानव मन को आत्मसात करने की सूझ जितनी अधिक छायाकार में होगी, सुंदर से अति सुंदर घटित होगा। इसीलिए कहूं, छायांकन अन्वेषण कला है। जो छायाकार जिंदगी को, व्यक्ति को जितना अधिक बारीकी से भांत भांत की अर्थ छटाओं में देखने की कला दृष्टि रखेगा, वही सार्थक और सुंदर स्थिर और चलायमान चित्र सिरज सकेगा।


Saturday, December 6, 2025

'नाट्यशास्त्र' पर एकाग्र


नाट्यशास्त्र ने सदा ही मन को मथा है। सुखद है, मर्मज्ञ विद्वानों ने मेरे आग्रह का मान रखते हुए इस ग्रंथ पर एकाग्र संपादन—कार्य में सहयोग किया। शुक्रवार 5 दिसम्बर 2025 को चंडीगढ़ में पंजाब के राज्यपाल श्री गुलाबचंद कटारिया ने इसका लोकार्पण किया। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन स्थापित उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक, मित्र फुरकान खान जी की पहल पर नाट्यशास्त्र पर महती विमर्श से जुड़े इस संपादन कार्य को कर सका। उन्होंने बहुत सुंदर रूप में पुस्तक प्रकाशित की है। जब इसके संपादन के लिए कार्य प्रारंभ किया तब लगा था, लेखक—मित्र जल्द अपना लिखा भेज देंगे। पर, लेखकों से लिखवाना आसान कहां है! देवेन्द्र सत्यार्थी जी निरंतर याद आते रहे। वह 'आजकल' के संस्थापक—संपादक थे। उनसे संपादन अनुभव के बारे में एक दफा पूछा गया तो उनका कहना था, "लेखक से लिखवाना सबसे मुश्किल काम है।" मेरा यह अनुभव भी ऐसा ही रहा हैं। बार—बार आग्रह करता रहा। तगादे भी खुब किए कईं बार यही लगा, लिखना आसान है, लिखवाना कठिन! पर, कृतज्ञ हूं...उन सभी विद्वान लेखकों का जिन्होंने नाट्यशास्त्र पर लेखन—सहयोग किया। नाम पर जाएंगे तो 'नाट्यशास्त्र' नाट्य विधा से जुड़ा लगेगा पर गायन, वादन, नर्तन, अभिनय आदि के साथ कोई कला इससे अछूती नहीं है। यह विडंबना ही है कि कलाओं के मर्म में ले जाता नाट्यशास्त्र विमर्श में बहुत अधिक रहा नहीं। विश्वास है—इस दृष्टि से यह संपादन—कृति पाठकों को नाट्यशास्त्र की वृहद ज्ञान परंपरा से जोड़ती सर्वथा नया अनुभव देगी।




नृत्य विसर्जन है...

 'रंग संवाद', नवीन अंक में—

"...नृत्य विसर्जन है। देह से, अपने आप का। देह से परे चले जाना ही नृत्य की असल परिणति है। कालिदास के नाटकों में 'चलित' नृत्य का संदर्भ आता है। चतुष्पद आधारित इस नृत्य—रूप में नर्तक अभिनय करता भावों में गुम हो जाता है। हमारे सभी शास्त्रीय और लोक नृत्य इसी रूप में अनुष्ठान हैं। रूसी नर्तक निजिंस्की नृत्य करते इतनी ऊंची छलांग लगाया करते थे कि गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत धरे रह जाते थे। किसी ने उनसे पूछा नृत्य में आप यह कैसे करते हैं? निजिंस्की का जवाब था नहीं पता। नृत्य करते मैं लापता हो जाता हूं।"








Saturday, November 29, 2025

एब्स्ट्रेक्ट से चुनौतीपूर्ण है यथार्थ कलाकृतियां का अंकन

पत्रिका, 29 नवम्बर 2025

ऑस्ट्रिया के आर्टिस्ट गुस्ताव क्लिम्ट की "एलिजाबेथ लेडरर का पोर्ट्रेट" कलाकृति हाल ही में 2 हजार करोड़ रुपए में बिकी है। इसमें एक लड़की को सफेद शाही चीनी पोशाक पहने हुए दिखाया गया है। एब्सट्रेक्ट आर्ट के इस दौर में आकृतिमूलक कला की यह बाजार दृष्टि बहुत कुछ जताती है।

कोई भी कलाकृति चाहे वह अमूर्त हो या मूर्त, प्रभावित तभी करती है जब उससे अंतर आलोकित हो। माने वहां दृश्य इस तरह से नियोजित हो कि वह आपको बारबार देखने को आमंत्रित करे। हर बार यह अनुभूत हो कि कुछ है जो देखने से छूट गया है, याकि यह लगे एक बार और भरपूर उसे देखें। एब्सट्रेक्ट में यह आसान है कि वहां हरेक को अपना अर्थ मिलता है। बहुत सारी देखने की संभावना देखने के बाद भी वहां बची रहती है। यथार्थ या कहें ऐसी कलाकृति जिसमें किसी कथा, व्यक्ति या प्रकृति का रूपांकन हो वह प्रायः अपना एक सबका साझा अर्थ हमें सौंपती है,त्वरित आकृष्ट करती है। पर यह आकर्षण थोड़ी देर का होता है। फिर मोनालिसा, किशनगढ़ की बणी ठणी, हमारी लघु चित्रशैलियां, हुसैन के घोड़ों में ऐसा क्या है कि वे बारबार देखने को ललचाते हैं। शायद इसलिए कि वहां आकृतियों का अनुकरण नहीं है, मूल की अपनी मौलिक दृष्टि है! कहन की दृश्य छटा में और भी अर्थ बसे हैं। मुझे लगता है, इस अर्थ में यथार्थ का अंकन बहुतेरी बार एब्स्ट्रेक्ट से अधिक चुनौतीपूर्ण होता है।

कुछ दिन पहले हैदराबाद जाना हुआ तो कलाकार अंजनी रेड्डी के स्टूडियों में उनकी सिरजी कैलाश पर शिवनृत्य की एक कलाकृति ऐसी ही लगी। बारबार उसे देखा। हर बार कुछ नया मिला। एक दृष्टि में कैलाश पर्वत और वहां शिव संग पार्वती के आनंद नृत्य को उन्होंने उकेरा है। हिमाच्छादित कैलाश और वहां शिव का तांडव, पार्वती का लास्य हो रहा है। पर, एक खास तरह की एकांतिकता वहां है। नृत्यरत शिव की मुद्रा पार्वती को देखती हुई और पार्वती की शिव को। पर दोनों आंगिक रूप में मानो एकाकार हैं। रेखाओं की लय में आकारों का विलय। शिव संग शक्ति! भंगिमाओं में गति का आख्यान। नृत्य मुद्राओं में रंग घुले हैं, पर यह कहीं बाहर से नहीं आए। संध्या नृत्य है, इसलिए सूर्य की लालिमा वहां समाई है। नभ का नीला बीच बीच में मुखरित है। धवल रंग संपूर्ण नृत्य का ओज बना है। नंदी और दूसरे गण हैं, पर परछाई रूप में। शिव का त्रिशूल भी श्वेतिमा में घुला उभरा है। शिव गणों की नृत्य में तुरही, डग्गा, ढोल आदि वाद्यों की संगत की भंगिमाएं भी तो छाया, प्रकाश में परछाइयों का गत्यात्मक प्रवाह है। और यही क्यों, नंदी संग यक्ष, गंधर्व, देवताओं की अर्चना में उठे हाथ भी शिव पार्वती के आनंद नृत्य को ही पूर्ण करते संयोजन में यहां है।

अंजनी रेड्डी की कलाकृति आकार में निराकार है। ध्यान में समाहित ज्ञान रूप। प्रकृति में समाए रंगों में आकार घुलकर यहां स्वयंप्रतिष्ठित हैं। यह स्थिर रूपांकन नहीं जैसे चलायमान है। नृत्य में देह यहां गौण है। है तो बस शिव और पार्वती की समाधिस्थ नृत्य अवस्था। कैलाश का परिवेश और आनंद रस! मुझे लगता है, आकृतिमूलक कलाकृति में कलाकार जब अपने आपको विसर्जित कर देता है, तब इस तरह का चित्र स्वयमेव आकार लेता है। यही क्यों हमारे अजंता के, राग रागिनियों के, बारहमासा के और पहाड़ी पेंटिंग में निहित दृश्य जीवंतता का भी यही राज है। वहां अनुकरण नहीं है। संवेदना का रूपांकन है। तो कहूं, कलाएं कहां मूर्त या अमूर्त होती है। वहां कलाकार अंतर आलोक उड़ेलता है तभी वह जीवंत, कालजयी बनती है।