ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 19, 2025

कलाओं संग मन भी जुड़े

पत्रिका, 19 जुलाई 2025

कलाकार क्लेयर लीटन की सिरजी महात्मा गांधी की एक दुलर्भ पेटिंग 1.7 करोड़ रुपये में बिकी है। गांधी की यह कलाकृति तब की सिरजी है जब वह दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लंदन गए थे। असल में यह गांधी का चित्रभर नहीं है। यह वह दृष्टि है जिसमें गांधी के उस समय को कलाकार ने अपनी अनुभूति में रूपान्तरित किया है। इसमें गांधी की भाव—संवेदना, अंतर्मन दृष्टि को रंग—रेखाओं में जिया गया है। कोई भी कलाकार दृश्य में इस तरह संगतता नहीं रखेगा तो उसका सिरजा कालजयी नहीं बनेगा। कला क्या है? भावनाओं, विचारों और अनुभवों की रचनात्मक दृष्टि ही तो!  

छायांकन कला का जब जन्म हुआ, तो फ्रांसीसी चित्रकार पॉल डेलारोशे ने कहा था, आज से, चित्रकला खत्म हो गई है। पर चित्रकला और छायांकन दोनों ही उसके बाद निंरतर समृद्ध हुए। इसलिए कि कलाओं में दृश्य से अधिक उस अदृश्य की सत्ता होती है जो कलाकार अनुभूतियों के आलोक में संजोता है। छायांकन में कैमरा नहीं वह आंख महवपूर्ण होती है जिसमें कैमरे से दृश्य का मनोरम सिरजा जाता है। कभी छायाकार मित्र और कला—प्रशासक फुरकान खान के लद्दाख केन्द्रित छायाचित्रो से रू—ब—रू हुआ था। लद्दाख को तभी पहली बार उसकी संपूर्णता में मन ने सहेजा था। वहां की धूप, छांव, रात्रि और इन सबमें निहित रंगो की विरल दृष्टि जैसे उनके छायाचित्रों में घुली है। एक छायाचित्र में रेत रंग में खड़े वहां के सूखे पहाड़, पेंगोग झील और उसमें बसे आसमानी रंग संग बादलों की श्वेतिमा इतनी रम्य है कि प्रत्यक्ष देखने पर भी वह दृश्य हम पा नहीं सकते। ऐसे ही पहाड़ों से निकलती सर्पीली सड़को, बर्फ,हरितिमा से आच्छादित लद्दाख के उनके खेत औचक कलाकार वॉन गॉग की याद दिलाते हैं। उन्होंने हरे रंग में भी और घुले दूसरे हरे, नीले में निहित दूसरे आसमानी रंगो का जैसे अपने छायाचित्रों में छंद रचा है। ऐसे ही मांडू के उनके छायांकन की दृश्यभाषा लुभाती है। एक चित्र में शिवलिंग और उन पर चढे बिल्वपत्र संग वहीं अटका खड़ा बेल-पत्र और वहां के किले पर उतरती सांझ,स्थापत्य शिल्प, झरोखे और उनसे झांकते प्रकाश में हम  जैसे जीवन की सुगंध पा लेते हैं। फुरकान खान कला—मन के हैं, इसीलिए अच्छे कला प्रबंधक भी हैं। उत्तर क्षेत्र और पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्रों, जवाहर कला केन्द्र में रहते उन्होंने कला—आयोजनों की सधी दृष्टि से निरंतर संपन्न किया है। जवाहर कला केन्द्र के लोकरंग में देशभर के लोक कलाकार आते हैं पर निरंतर एक जैसी ही प्रस्तुतियां से ऊब से निजात उन्होंने ही दिलाई। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कभी रक्षा मंत्रालय और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से हुए 'आदिशौर्य' पर्व में एक साथ देशभर की कलाओं की सौंधी महक में गूंथी थीम धुन और उस पर 1 हजार 400 कलाकारों की मोहक संगत उनकी ही कल्पना थी।

मुझे लगता है, कलाएं जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही उनका प्रदर्शन भी सधा हुआ और बेहतर प्रबंधन से होगा तभी कलाओं से लोगों की निकटता बढ़ती है। अच्छे और सच्चे कलाकारों की कला को मंच भी तभी मिल पाता है जब उस कला की परख करने वाला हो। कोमल कोठारी इसीलिए राजस्थानी और दूसरे प्रांतों की  लुप्त हो रही कलाकारों को प्रश्रय दे सके कि उनके भीतर एक कला पारखी मन था। कपिला वात्स्यायन की बौद्धिक गहराई संग भारतीय कलाओं की संवेदनशील दृष्टि ने इन्दिरा गांधी कला केन्द्र को जीवंत किया। कलाओं और कला—प्रस्तुतियों में संलग्नता होगी तभी यह सब हो सकेगा। इसी से कलाओं के प्रति रसिकता जगेगी।