ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 31, 2011

थम गए जिनके सुर...


बीते वर्ष के सांगीतिक परिद्र्श्य पर लखनव से प्रकाशित जनसन्देश टाइमस का यह संगीत स्तम्भ


Saturday, December 17, 2011

यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख

-राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा-

देवभूमि, प्रहरी, रत्नखानि, इतिहास विधाता और संस्कृति का मेरूदण्ड और भी न जाने कितने ही नाम हिमालय के हैं। भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि का उत्स है देवात्मा नगाधिराज हिमालय। इसका हर षिखर, नदी, सरोवर पवित्र है। यायावर लेखक कृष्णनाथ का लिखा याद आ रहा है, ‘हिमालय का दरस-परस है। यह त्रिक का एक पद है।’ सच ही तो है। इतिहास, संस्कृति, पुराण कथाओं का नाद है हिमालय।
लब्धप्रतिष्ठि मलयालम लेखक एम.पी. वीरेन्द्रकुमार लिखित और डॉ. पी.के राधामणी अनुवादित सद्य प्रकाषित ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक का आस्वाद करते हिमालय का यह वर्णन आंखों के सामने जैसे साकार होता है। हिमालय के बहाने वह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े किस्से, कहानियां और प्रसंगों का जब उल्लेख करते हैं तो लगता है उनकी यह यात्रा बाह्य स्थानों भर की नही है बल्कि आंतरिक स्तर पर निरंतर चलती है। आंतरिक यात्रा के इस अन्वेषण में इतिहास, पुराण कथाओं, लोक कथाओं, मिथकों, जन श्रुतियों के साथ प्रकृति और संस्कृति, देह और चित का उनका वर्णन लुभाता भी है तो बहुत से स्तरों पर झकझोरता भी है। जोषी मठ के यात्रानुभव को देखें, ‘...हम पहाड़ स्खलन के एक खतरनाक प्रदेष मंे पहुंचे। सड़क की एक ओर से पहाड़ ढह रहा है। दूसरी तरफ अतल गहराई में अलक नंदा का तेज़ तर्रार प्रवाह। ...अचानक एक सफेद अंबेसडर कार ने अरविंद की वैन को पार करने की कोषिष की।...पल में उस गाड़ी का ब्रेक नाकाम हो गया। गाड़ी से चीखें निकली। कार बेकाबू होकर नीचे की ओर लुढ़कने लगी। उषा, आषा, नंदन और मैं जिस गाड़ी में थे उसकी ओर वह आ रही थी। हमारी भी चीखें निकली। सौभाग्य से एक चट्टान से टकराकर वह कार रूकी।’ रोमांचक, साहसिक यात्राओं के प्रसंग और भी है। बरकोट की ठंड में तंबू में बितायी रात की बात है तो भारतीय सीमा के आखिरी गांव माना का हाल भी है। मसूरी की सैर करते वह मषहूर लेखक रस्किन बॉण्ड के उस व्यक्तित्व पर भी गये है जिसमें नर्सों से प्यार के चलते दिनों तक अकारण अस्पतालांे में वह भर्ती हो जाया करते थे तो उनके लिखे का यह कहा ‘प्यार करना और प्यार पाना दुनिया का सबसे सुखद अनुभव है’ का जिक्र करना भी वह नहीं भूले हैं।
हिमालय की वादियों का एम.पी. वीरेन्द्रकुमार का प्रकृति चितराम जरा देखें, ‘...दूर कंबल ओढ़कर सूरज की किरणों को गले लगाने के इंतजार में लेटी चोटियां। पहले धूंधली दिख रही थी मगर आहिस्ता आहिस्ता प्रकाष फेलने लगा तो रंगीन होने लगी। घाटियों का जंगल सूरज की रोषनी मंे डूब गया। हर रंग और ज्यादा चमकने लगा। सूरज धीरे धीरे ऊपर उठने लगा। चिड़ियों के कलरव से वातावरण संगीतमय बन गया।’
‘वादियां बुला रही है हिमालय की’ पुस्तक यायावरी अनुभूतियों के दृष्यालेख हमारे समक्ष रखती है। इन दृष्यालेखों में स्थान विषेष के इतिहास, संस्कृति और समय सरोकारों से को ही नहीं बल्कि दर्षन के नये आयामों को भी पढ़ा जा सकता है। घुम्मकड़ी में भारतीय नदी परिकल्पना पर विचार करते एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘एक बार मैं महेष्वर नामक जगह गया। यह अहल्या की धरती है। वहां पहुंचने पर पहरेदार ने मुझे प्रणाम करके पूछा कि किस नदी के साथ मेरा संबंध है? मैं दंग रह गया। बड़ा अजीब सवाल था। मेरी भाषा या शहर के बारे में पूछने की बजाय उसने मुझसे पूछा कि कस नदी से ताल्लुक रखते हो? यही भारतीयों की नदी परिकल्पना है।’ ऐसे ही हरिद्वार के रास्ते में मोर पंख से सजे कांवर के बहाने वह मोर से जुड़े अनगिरत प्रसंगों के साथ ही इस पक्षी के षिकार, अत्याचार की भयावहता में चेताते भी हैं कि मोर के साथ ऐसे ही अत्याचार होते रहे तो धरती पर इन्द्रधनुषी छटा बिखरने वाले मयूर वंष का विनाष हो जायेगा।
बहरहाल, एम.पी. वीरेन्द्रकुमार ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पुस्तक के अपने यात्रानुभवों में हिमालय के इतिहास में भी ले जाते हैं तो वर्तमान में लौटाते भी हैं। भूदृष्य अंकन के अंतर्गत पुस्तक में संस्कृति, प्रकृति का यात्रा गान ही नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं की ओर ध्यानाकर्षण भी है। यात्रा अनुभवों और दृष्यों का पुस्तक ऐसा रोचक कोलाज है जिसमें विकसित होते और बदलते दृष्य परिप्रेक्ष्यों को समय संवेदना के साथ समझ की गहराई से लेखक ने उकेरा है। यात्रा संस्मरण के बहाने, आत्मकथा, ललित निबंध, रिपोर्ताज, डायरी आदि साहित्य की तमाम विधाओं का मेल यहां है। यात्रानुभूतियों को इन सबके बगैर कहीं पूर्ण लिखा जा भी सकता है! ‘वादियां बुलाती है हिमालय की’ पढ़ते न जाने क्यों लारेन्स उरेल का कहा याद आ रहा है, ‘यात्राएं हमें बाहर केवल स्पेस में ही नहीं ले जाती, उन अज्ञात स्थानों की ओर भी ले जाती है, जो हमारे भीतर है।’
पुस्तक : वादियाँ बुलाती हैं हिमालय की
लेखक : एम. पी. वीरेंद्रकुमार
अनुवाद: डॉ. पी. के. राधामणि
प्रकाशक: राजस्थान पत्रिका प्रकाशन
मूल्य : चार सौ

Sunday, December 11, 2011

उस्ताद सुलतान खान की सारंगी


लखनऊ से प्रकाशित "जनसन्देश टाइम्स" में उस्ताद सुलतान खान की सारंगी पर प्रकाशित यह मेरा आलेख. आस्वाद करें -

Monday, December 5, 2011

देवानंद : रोमांस के साथ जिन्दगी


राजस्थान पत्रिका समूह के समाचार पत्र "डेली  न्यूज़"  के सम्पादकीय पेज पर 5 दिसम्बर 2011 को प्रकाशित आलेख

सिनेमा ने जीवन में सर्जनात्मकता के नये द्वार खोले हैं। जीवन से जुड़ी यह वह कला है जिससे मानव मन सदा ही स्पन्दित होता आया है। कभी पंडित नेहरू ने सिनेमा को विष्व को सबसे अधिक प्रभावित करने वालों में से ‘एक’ बताया था। उनके इस कहे में अपनी बात मिलाते हुए कहूं तो भारतीय सिनेमा में किसी शख्स ने दर्षकों को अपनी अदाओं से और अपने कहे से सर्वाधिक प्रभावित किया है तो वह देवानंद हैं। शायद इसीलिये उनके साथ सदाबहार शब्द का विषेषण भी जुड़ा।

देवानंद से करीबी नाता तब हुआ जब पहले पहल उनकी फिल्म ‘गाईड’ को देखा था। याद नहीं कितनी बार इसे देखा परन्तु जितनी बार भी देखा, नयेपन को अनुभूत किया। राजू गाईड के इसके संवेदनषील किरदार पर जब भी जाता हूं, मुझे लगता है यह देवानंद ही थे जो आर.के. नारायण के गढ़े इस चरित्र को इस खूबी से निभा सकते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल बक और देवानंद ने मिलकर गाईड का अंग्रेजी संस्करण भी बनाया परन्तु फिल्म खास कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। बाद में जब इसका हिन्दी संस्करण बना तो भारतीय सोच के हिसाब से कुछ परिवर्तन किये गये। मसलन मूल कृति में नैराष्य लिये अंत है, जिसमें राजू की मृत्यु हो जाती है और बारिष भी नहीं होती है परन्तु देवानंद की ‘गाईड’ में स्वामी बने राजू गाईड की मृत्यु के साथ ही बारिष होते दिखाई जाती है। खूबसूरती यह भी है कि संगीत और संवेदना की दीठ से इसमें विजय आनंद और देवानंद जैसे अपने आपको झोंक दिया है। विषय की गूढ़ता के और भी बहुत से रचनात्मक पहलू हैं जो भीतर से झकझोरते हैं। वहीदा रहमान के नृत्य सौन्दर्य के साथ देवानंद ने अपने किरदार को इस गहराई से इसमें जिया कि जितनी भी बार गाईड देखें वह सोच में बढ़त करती है। मुझे लगता है, देवानंद गूढ़ विषय की गहराई में इस फिल्म में इस कदर रमे हैं कि एक प्रकार से उनका कायारूपान्तरण वहां हुआ है। राजू की भाव-भंगिमाएं, उसकी मुस्कान, उसकी मासूमियत, संवाद अदायगी, संवेदनाओं का आकाष और किरदार में रमा मन चरित्र को जीवंत करता है।

बहरहाल, देवानंद के जीवन में यदि ‘गाईड’ नहीं होती तो शायद उनका मूल्यांकन वह नहीं होता जो आज हो रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘ज्वैल थीफ’ ‘हम दोनों’, ‘प्रेम पूजारी’, ‘हरे रामा हरे कृष्णा’,‘गेस्ट, ‘बाजी, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘सीआईडी’ जैसी देवानंद की फिल्मों में उनका अभिनय महत्वपूर्ण नहीं था परन्तु ‘गाईड’ के किरदार को जिस षिद्दत से उन्होंने जिया, वह कभी बिसराया नहीं जा सकता। उनके जीवन के अभिनय का यह ऐसा मुकाम है जिससे अभिनय संवेदना की उनकी गहराई को समझा जा सकता है। याद पड़ता है, कभी देवानंद ने कहा था, ‘ड्रामा फिर से उकेरा जा सकता है। केवल कुछ रहस्य, कुछ परछाईयां, कुछ स्याह जगहें ऐसी हैं जिन्हें चाहकर भी फिर से दिखाया नहीं जा सकता।’ सिनेमा की उनकी यह वह समझ है जो गाईड में हर ओर, हर छोर दिखाई देती है।

देवानंद ने सिनेमा में रोमांस को नया मोड़ दिया। यह ऐसा था जिसमें असल जीवन के साथ रोमांस की लय है। वहां जीवन के साथ परदे की कथाओं में रची रोमांस, प्यार की कहानियां की फतांसियां भरी पड़ी है। सिनेमा और जिन्दगी के रिष्तों का गठजोड वहां है़। हालांकि सच यह भी है कि जीवन का सच पूरी तरह से सिनेमा का सच कभी हो ही नहीं सकता। चुनांचे हरकोई जिन्दगी की वही सच्चाईयां आंखो से देखना चाहता है जिसमें सब कुछ सुखद हो, प्यार भरा हो, रोमांस से लबरेज हो। देवानंद इसलिये दर्षकों को भाते रहे हैं कि रोमांस की जो चाह व्यक्ति के भीतर सजी होती है, उसे उन्होंने सिनेमा में गहरे से जिया। पर्दे के सच के अंतर्गत जिन्दगी का साभ निभाते हर फिक्र को धूंए में उड़ाते इस शख्स ने भरपूर सराहना पायी। बाकायदा इस सच में संवाद निर्वहन का अपना एक नया स्टाईल भी उन्होंने विकसित किया। यह ऐसा है जिसमें दर्द है तो उसकी तड़प, गहराई है। खुषी है तो उसकी उमंग है। प्यार है तो उसका रोमांस भी है। उनकी फिल्मों से रू-ब-रू होते लगता है, कहानी के अंतर्गत गढ़े चरित्र में अपनापन मिलाते अदाओं का नया मुहावरा विकसित किया गया है। बोलने, कपड़े पहनने, दृष्य में भाव-भंगिमाओं के निरालनेपन पर जाएं तो लगेगा, सिनेमा की संवेदना की गहराई में ही वह रच-बस से गये थे। कुछ इस तरह से कि बाद में स्वयं उनके निजी जीवन में भी सिनेमा हरदम छाया रहा।


असल जीवन में भी वह सिनेमा के गढ़े अपने व्यक्तित्व की इस सच्चाई से शायद कभी फिर मुक्त नहीं हो पाये। खुद उनका बनाया यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसमें व्यक्ति कभी बीमार नही होता। जिसमें कभी व्यक्ति उम्र दराज नहीं होता और जिसमें व्यक्ति जवां ईष्क के खुमार से कभी बाहर नहीं निकलता। इस जिये में ही बाद में उनकी जो फिल्में आयी, भले वह ‘अव्वल नम्बर’, हो या फिर ‘सौ करोड़’ या फिर ‘मिस्टर प्राईम मिनिस्टर’ या फिर ‘सेंसर’ जैसी फिल्में-सबमें देवानंद ने कभी अपनी रोमांस की हीरो इमेज से बाहर निकलना ही नहीं चाहा। और यही कारण है कि वह अपने को कभी हारा हुआ नहीं पाते भले उनकी फिल्में बॉक्स आफिस पर बाद में पिटती भी रही। यह भीतर की उनकी ऊर्जा, उनकी लगन और जीवन की वह उमंग ही कही जायेगी जिसमें वह अपने को चिरयुवा ही समझते रहे।

गुरूदत्त, राजकपूर सरीखे अभिनेताओं के बाद यह देवानंद ही थे जिनमें सर्जनात्मकता की भूख सदा ही रही है। उनकी लिखी आत्मकथा ‘रोमांस विद लाईफ’ पढ़ते लगता है, उम्र को दरकिनार करते सदा कुछ नया करते रहने और उसमें ही सुकून की तलाष की उनकी जीवटता ने ही जीवन की असफलताओं को सदा पीछे भी धकेला। यह जब लिख रहा हूं, उनका कहा याद आ रहा है, ‘चित्रकार जिस तरह से अपनी पेंटिंग के प्रति भावुक रहता है, उसी तरह से मैं अपनी फिल्म के प्रति भावुक रहता हूं।’


Thursday, December 1, 2011

साहित्य अकादमी की यह यादगार यात्रा







विश्व कवि रविन्द्र नाथ टेगौर के 150 वें जन्मशती वर्ष पर केन्द्रीय साहित्य अकादेमी ने इस बार महत्वपूर्ण पहल की. भारतीय भाषाओं के लेखकों के एक दल को रविन्द्र की जन्भूमि जोडासाकुं, उनके द्वारा स्थापित शांति निकेतन विश्वविध्यालय ले जाया गया. राजस्थानी कवि के रूप में इस दल में सम्मलित हुआ. साहित्य अकादेमी सभागार में कविता पाठ भी किया. इससे पहले दो दिन शांति निकेतन, ठाकुरबाड़ी, कोलकता में देश भर से आये लेखको के साथ कभी न भुलाने वाले पलों को जिया. साहित्य अकादमी की यह यादगार यात्रा 16 से 18 नवम्बर को की गयी...जेहन में अभी भी बसी है यादें. छाया-चित्र फिर से यादें जीवंत कर रहे हैं...





Sunday, November 27, 2011

अल्लाह जिलाई बाई पर यह आलेख ...

लखनऊ से प्रकाशित जन सन्देश टाइम्स में प्रति सप्ताह प्रकाशित संगीत यह स्तम्भ...रविवार, २७ नवम्बर को प्रकाशित यह आलेख
















लखनऊ से प्रकाशित जनसन्देश टाईम्स में प्रकाशित यह आलेख ...आस्वाद करें

Saturday, April 2, 2011

...जहां आम्रपाली बनी बोद्ध भिक्षुणी

-डॉ. राजेश कुमार व्यास -
आर्यावर्त्त प्रदेष रहा है आज का बिहार। भगवान बुद्ध और महावीर की चरणधूली से पवित्र हुआ प्रदेष।... पटना से कोई 60 किलोमीटर ही दूर है-बाखिरा। बाखिरा माने कोल्हुआ।...मौर्य सम्राट अषोक के सिंह स्तम्भ के साथ ही राजनर्तकी आम्रपाली का हृदय परिवर्तन स्थल। प्राचीन बौद्ध नगरी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस स्थान का विवरण अपनी यात्रा में विषेष रूप से किया है। चीनी उल्लेखों तथा सीमित उत्खननों के पुष्टि करने के बाद सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861-62 में इस स्थान को प्राचीन बौद्ध नगरी के रूप में पहचाना। तत्पष्चात टी.ब्लाच (1903-04 ई.) तथा डी.बी. स्पूनर (1913-14 ई.) द्वारा यहां उत्खनन किया गया। कुदालों द्वारा स्पूनर ने कोल्हुआ के निचले स्थानों की खोज जब प्रारंभ की तो 16 से 18 फुट नीचे पहुंचते ही धरातल का जल मिल गया, पर क्वांरी भूमि अभी और नीचे थी। पानी में हाथ डालते ही उसमंे से मूर्तियांे, भांडों आदि के प्राचीनतम खंड निकल पड़े, इनमें ही अषोक कालीन पॉलिष किया हुआ चिकना पाषाण खंड भी था। भग्नावषेषों का स्तर मौर्यकाल तक पहुंच गया। बाद में कुछ मुहरें और सिक्के भी यहां से मिले।...यहां हुई खुदाई से ही पता चलता है कि कभी यह स्थान व्यापार का भी प्रमुख केन्द्र रहा है। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की पत्नी ध्रुवस्वामिनी का नाम भी यहां मिली एक मुहर में भी लिखा मिला है।

...यहां कोल्हुआ में दूर तक सुनसान है। कुछ झोपड़ें जरूर बने हुए हैं। आस-पास कोई घनी आबादी नहीं है। पुरातत्व विभाग की टिकट खिड़की और उसके सामने मिनरल बोतल, बिस्किट के पैकेट और दूसरे कुछ सामानों, यहां से जुड़े इतिहास और पर्यटन साहित्य से सजी झोपड़े में ही एक दुकान बनी हुई है।...टैक्सी से हमें कोल्हुआ पुरावषेष स्थलों की ओर प्रवेष करते देख बहुत सारे बच्चे हमारी ओर लपक आए हैं। पुरातत्व विभाग के कर्मचारी उन्हें वहां से भगाते हैं।...

कोल्हुआ यानी बाखिरा में हुई खुदाई के बाद निकले अवषेषों को पुरातत्व विभाग ने यहां अलग से चारदीवारी बनाकर सहेज कर रख लिया है।...चारदीवारी के अंदर प्रवेष करता हूं।...सामने ही खुदाई में मिला इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अषोक स्तम्भ दिखायी दे रहा है। पास में ही छोटा सा एक सरोवर भी नजर आ रहा है। यत्र-तत्र खुदाई के अवषेष यहां जैसे बिखरे पड़े हैं...नई इमारत में जिस प्रकार नींव भरते हैं, ठीक वैसे ही इंटों का निर्माण भी यहां अलग से दिखायी दे रहा है। कुछ-कुछ अन्तराल में प्राचीन प्रासादों, भवनों की याद दिलाते इंटों के अवषेषों से स्पष्ट पता चलता है कि कभी यहां पूरी एक सभ्यता का वास था।

...यहीं सिंहषीर्षक युक्त स्तम्भ भी अलग से दिखायी दे रहा है। मैं मुख्य बौद्ध स्तूप के पास बने इस अषोक स्तम्भ को देखकर बेहद रोमांचित हूं। बरसों तक बस इसके बारे में पढ़ा ही था, आज अपनी आंखों से देख रहा हूं।...चीनी यात्री फाहियान ने इसे 50 फुट ऊंचा बताया था। कहते हैं, इसकी पहचान पुरातत्वविद कनिंघम ने लेख रहित अषोकीय स्तम्भ से की थी। कोल्हुआ यानी प्राचीन कोल्लग।...कालान्तर में कोल्लग कोल्हुआ हो गया।

‘यह भीमसेन की लाठी है।’

अशोक स्तम्भ के पास खड़े उसे गौर से मुझे देखकर वहीं पुरातत्व विभाग के कर्मचारी ने मुझे बताया तो मैं चौंका। मैंने उसी का कहा फिर से दोहराया, ‘भीमसेन की लाठी!’

‘हां, यहां के स्थानीय लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं।’

मुझे विस्मय में पड़े देख वह बताने लगा, ‘मौर्य सम्राट अषोक ने देषभर में स्तम्भों का निर्माण करवाया था। उन्हीं मे से एक है यह। पुरातत्व विभाग के अन्वेषण के अनुसार पत्थर का 1100 मीटर का उंचा चमकदार यह एकाष्म स्तम्भ है। अषोक द्वारा स्थापित किए प्रारंभिक स्तम्भों में से एक है जिन पर उनका कोई अभिलेख अंकित नहीं है। इस पर शंख लिपि में उकेरे गए कुछ अक्षर गुप्तकाल के हैं।’

मैं गौर से अषोक स्तम्भ के बारे में कही बातें सुन रहा हूं।...पुरातत्व विभाग के कर्मचारी के साथ बतियाते मुझे देख वहीं जापान से आये तीन पर्यटक भी हमारी ओर ही चले आए हैं।...हिन्दी उन्हें समझ में नहीं आती इसलिए वे अंग्रेजी में मुझसे स्तम्भ के इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं। मैं उन्हें कुछ समय पहले बतायी जानकारी का अनुवाद अंग्रेजी में कर सुना देता हूं। वे ‘थैंक्स’ बोलते हुए तीनों का एक साथ स्तम्भ के पास छायाचित्र खिंचने का मुझसे आग्रह करते हैं। उनके डिजिटल कैमरे से मैं उन्हें उनके ही कैमरे में कैद करके कैमरा वापस उन्हें सौंप देता हूं।...कृतज्ञता के भाव उनके चेहरे पर साफ दिखायी देने लगे हैं।

सिंहषीर्ष अषोक स्तम्भ को देखते मैं उसके इतिहास और उनमें निहित वास्तु कला पर ही विचार कर रहा हूं।...बसाढ़-बाखिरा यानी कोल्हुआ का यह अषोक स्तम्भ अपने लघु आकार, अधिक भार, वर्गाकार चौकी तथा अनुपात एवं सौन्दर्य की कमी के कारण स्तम्भ स्थापना के प्रारंभिक चरण की ओर संकेत करता है। ऐसा लगता है, मौर्य सम्राट अषोक ने स्तम्भों के निर्माण की पहल इसी स्तम्भ से की थी। इसके बाद के जो स्तम्भ सारनाथ से प्राप्त हुए हैं, वे हैं तो इसी परम्परा के परन्तु इनसे कहीं अधिक सुन्दर परिष्कृत रूप में मिलते हैं। इन अषोकीय स्तम्भों से पूर्व कहीं भी भारत में एकाष्म स्तम्भ, पशु शीर्षक तथा उच्च कोटी की ओप के उदाहरण नहीं हैं। बौद्धधर्म की स्थापना की स्मृति को स्थाई बनाने की ईच्छा से ही इन स्तम्भों का निर्माण हुआ है। अषोक द्वारा निर्मित पशु शीर्षक युक्त एकाष्मक स्तम्भों को मौर्य वास्तु के विकास की पराकाष्ठा के प्रतिनिधि स्मारक माना जा सकता है।

...चुनार के पत्थर से बने अषोक सिंह शीर्षक 50 फुट तक ऊंचाई वाले इस स्तम्भ के दण्डों पर चमकदार ओप है। ताड़ वृक्ष की भांति नीचे से मोटा और ऊपर की ओर पतले इस स्तम्भ के नीचे दण्ड यानी लाट तथा ऊपर का शीर्षक सिंह की ओजस्वी मूर्ति रूप में है। सिंह की मूर्ति सारनाथ के स्तम्भ में भी है और उसे हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में भी स्वीकार किये जाने का गौरव प्राप्त है।...अषोक का यह एकाष्म स्तम्भ ही तो ललित कला अकादेमी का भी प्रतीक चिन्ह। सम्राट अषोक ने सिंह शीर्षकों युक्त ही स्तम्भों का निर्माण क्योंकर किया? शायद इसलिए कि सिंह स्वयं भगवान बुद्ध का प्रतीक है। बौद्ध साहित्य में बुद्ध को शाक्य ही कहा गया है। शाक्य माने सिंह। इतिहासकार वासुदेवषरण अग्रवाल का मत थोड़ा भिन्न है। उन्होंने अषोक के स्तम्भों में उकेरी सिंह मूर्तियों को सम्राट की तेजस्विता के प्रतीक के रूप में व्याख्यायित किया है। कहते हैं, मौर्य सम्राट अषोक ने तथागत यानी गौतम बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी। पाटलीपुत्र, लौरियानन्दनगढ़, लौरिया अरराज, वैषाली के निकट बाखिरा या कोल्हुआ आदि के ये स्तम्भ संभवतः उसकी यात्रा मार्ग की ओर ही संकेत करते है।

मुझे लगता है, सिंह शीर्षक युक्त अषोक स्तम्भ कोल्हुआ की खुदाई के अवषेषों का प्रहरी है। पुरातत्व विभाग के उत्खनन के दौरान यहां मिला इंटो द्वारा निर्मित मुख्य स्तूप मूलतः मौर्यकाल में बना था। इंटों की गोलाई का ढ़ेर मानिंद यह और इसके साथ ही खुदाई में मिली कुटागारषाला, स्वस्तिस्काकार विहार, पक्का जलकुंड,, बहुसंख्य मनौती स्तूप तथा लघु मंदिर सभी की जैसे सिंहषीर्ष युक्त लाट यानी स्तम्भ रखवाली कर रहा है।...यही सब सोचते हुए मैं खुदाई में मिले अवषेषों का अवलोकन करने में लगा हूं। इंटों की यहां व्यवस्थित उपस्थिति स्पष्ट इस बात की ओर संकेत करती है कि कभी यहां भव्य भवन बने रहे हैं।

पुरातत्व विभाग द्वारा संजोयी गयी सूचना के अनुसार बुद्ध के मुख्य इंटों के स्तूप का आकार कुषाण काल में परिवर्धित करके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तदुपरान्त गुप्तकाल और परवर्तित गुप्तकाल में पुनः इंटों से आच्छादित करके स्तूप को सवंर्धित किया गया और चारों ओर नियमित अन्तराल पर आयक भी जोड़े गए। कहते हैं, भगवान बुद्ध ने अनेक वर्षावास यहां ही व्यतीत किए तथा अंत में अपने निर्वाण की घोषणा भी उन्होंने यहीं कोल्हुआ में ही की। भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित आठ अनोखी घटनाओं में से एक, बंदरों द्वारा बुद्ध को ‘मधु’ भेंट करने के प्रतीक के रूप में भी भगवान बुद्ध का यह मुख्य स्तूप याद किया जाता है।

कोल्हुआ के अवषेषों को तारबन्दी से सुरक्षित किया हुआ है। थोड़ी दूरी पर ही स्वस्तिक के समान आधार विन्याय का इंटों का निर्माण कार्य दिखायी दे रहा है।...पुरातत्व विभाग का कर्मचारी मुझे यूं गौर से यहां की चीजों को देखकर मेरे पास आ गया है। वह जो कुछ बता रहा है, वही सब कुछ पास ही लगे पुरातत्व विभाग के हिन्दी और अंग्रेजी के सूचना पट्ट में भी लिखा हुआ है।...यहां बहुत कम लोग आते हैं, लगता है पुरातत्व कर्मचारी भी अकेलेपन से उब जाते होंगे। मेरे जैसे हिन्दी भाषी घुम्मकड़ों से बात करना उन्हें भी अच्छा लगता होगा...यही सब सोच रहा हूं। यह भी कि मुझे भी तो कितनी मदद मिल रही है, मुफ्त में गाईड का कार्य हो रहा है। औचक मैं उससे प्रष्न करता हूं, ‘भगवान बुद्ध ने संघ में भिक्षुणियों को प्रवेष की अनुमति यहीं तो नहीं दी थी?’

‘आपने बिल्कुल सही सोचा। अपने परम षिष्य आनंद के परम आग्रह पर उन्होंने इसी स्थान पर संघ में स्त्रियों को प्रवेष करने की अनुमति दी थी।’ मैं जैसे भगवान बुद्ध के समय में पहुंच गया हूं। आनंद उनसे आग्रह कर रहे हैं, ‘भगवन इसमें बुराई ही क्या है?...प्रतिदिन आपके उपदेषों को सुनने इतनी स्त्रियां आती है। वे आपसे तो कुछ कह नहीं सकती। मुझे उलाहना देती है, जब पुरूष भिक्षु बन सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। क्यों भगवन, उन्होंने क्या अपराध किया है...आप इस पर विचार करें भगवन!’

...और महात्मा बुद्ध ने अपने परम षिष्य आनंद की बात मान ली है। आनंद के आग्रह पर महाप्रजापति गौतमी-अपनी धर्म माता को भिक्षुणी के रूप में उन्होंने दीक्षित कर स्त्रियों को संघ का अंग बनने का अधिकार प्रदान कर दिया।...झुंड की झुंड स्त्रियांे संघ में प्रवेष कर रही है। बौद्ध धर्म से पहले स्त्रियों का भिक्षुणी होना, उनका मर्द साधुओं के साथ मठों में वास करना प्रचलित नहीं था।...भले ही स्त्रियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने की प्रक्रिया को स्वीकार कर बुद्ध ने नारी को नर के समकक्ष समादर दिया परन्तु इसकी विकृतियों से बाद में बुद्ध धर्म का पराभव भी हुआ। बुद्ध ने शायद इसीलिए आनंद के बहुत अधिक आग्रह पर ही संघ में स्त्रियों के प्रवेष की बात मानी थी। वे शायद इसके परिणामों को पहले से ही जानते थे, इसीलिए उन्होंने एक दिन अपने षिष्य आनंद को कहा भी, ‘आनंद! मैंने जो धर्म चलाया वह पांच हजार वर्ष तक टिकने वाला था लेकिन अब वह सिर्फ पांच सौ वर्ष तक ही चलेगा, क्योंकि हमने स्त्रियों को संघ में शामिल होने की प्रथा चला दी है।’

...मन में विचार आ रहे है। आम्रपाली को भी तो भगवान बुद्ध ने यहीं संघ में प्रवेष करवाया था। कितनी बातें, कितने किस्से उस राजनर्तकी के साथ जुड़े हुए हैं। गणिका अम्बपाली। सौन्दर्य की मलिका। कभी भगवान बुद्ध भिक्षुओं के साथ आम्रपाली के मेहमान बने।...आम्रपाली ने रूप के गौरव को त्याग दिया।...भगवान बुद्ध के उपदेषों को आत्मसात कर लिया। विनम्र भिक्षुणी हो गयी आम्रपाली।...ऐसी ही बहुत सारी घटनाओं का साक्षी है कोल्हुआ। भगवान बुद्ध, राजनर्तकी आम्रपाली, प्रजापति गौतमी, गुप्त साम्राज्य के बारे में ही सोचते कोल्हुआ उत्खनन में प्राप्त अवषेष परिसर से बाहर निलता हूं।