ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 15, 2023

संस्कृति की मौलिक स्थापनाओं से जुड़ा उजास

आदिवासी और लोक कलाओं पर हमारे यहां लिखा तो बहुत गया है परन्तु उनके जरिए मौलिक स्थापनाओं पर काम अभी भी गौण प्राय: है। यह समझने की बात है कि जो कुछ लोक—संस्कृति का है, उसे संकलित किया जाता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। इससे भविष्य की नई दृष्टि की संभावनाओं पर कार्य यदि होता है तभी सार्थक कुछ हो सकता है। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद् द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'चौमासा'  के प्रकाशित अंक और उसकी सामग्री आलोक देने वाली है।


राजस्थान पत्रिका, 15 जुलाई 2023


अव्वल तो कलाओं पर ढग की पत्रिकाएं ही नहीं है और जो हैं
, वह या तो अकादमिक बोझिलता से लदी है या फिर उनमें वही सामग्री अधिक है जो यत्र—तत्र—सर्वत्र है। पर 'चौमासा' इस दृष्टि से विरल है कि इसके हर अंक में भारतीय संस्कृति से जुड़ी सूक्ष्म सूझ को युगीन अर्थों में कला—संस्कृति मर्मज्ञ और इसके संपादक अशोक मिश्र ने मौलिक स्थापनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। अरसा पहले इसका एक अंक 'मृत्यु' जैसे अछूते विषय पर प्रकाशित हुआ था। इस अंक में जीवन प्रवाह के अंतिम विश्राम से जुड़े संस्कारों, मान्यताओं के लोक—आलोक में 'मृत्यु' से जुड़ी संस्कृति का अनूठा संधान है। ऐसे ही घुमंतू समुदायों के कला—सौंदर्य, काल की भारतीय दृष्टि, बांस की जीवन सृष्टि,  प्रदक्षिणा से जुड़ी भारतीय परम्परा जैसे विषयों में जीवन से जुड़े रहस्यों का अनावरण है। अभी 'चौमासा'  का जो नया अंक आया है, वह भी भू—अलंकरण से जुड़ी हमारी लोक संस्कृति का उजास है। इस अंक के अपने सम्पादकीय में अशोक मिश्र लिखते हैं, 'भूमि का अलंकरण धरती के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के साथ मांगलिकता और अभ्यागत के स्वागत का आह्वान है।'  अपने लिखे के इस आलोक में ही उन्होंने​ भित्ति चित्रों के अनछूए पहलुओं से जुड़ी विरल सामग्री इसमें जुटाई है।

अशोक मिश्र के पास लोक परम्पराओं, विश्वास और मान्यताओं से जुड़े लूंठे सन्दर्भ और उनकी वैज्ञानिक व्याख्या है। अभी कुछ दिन पहले ही भोपाल के जनजातीय संग्रहालय में उनके कक्ष में बैठे बातचीत चल रही थी कि उन्होंने गोत्र परम्परा से जुड़े कुछ सूत्र सौंपे। कहा, शिष्ट और लोक समुदाय में भारत की अपनी एक प्राकृतिक संतुलन की दृष्टि गोत्र का हमारा जो विचार है, उसमें समाया है। वनस्पति, जीव—जंतु, पवित्र स्थल और ज्ञान की हमारी समस्त धाराओं में मानव समुदाय के उद्भव का कारण निरूपित कर उनके संरक्षण एवं विकास का आग्रह गोत्र चिन्हों के रूप में है। जीव जंतु, वनस्पतियां और प्रकृति से जुड़ी हमारी धरोहर के भी अपने—अपने गोत्र हैं। मन में आया, हमारे यहां एक गोत्र में विवाह नहीं किया जाता है। गोत्र संरक्षण इसी से होता है। अशोक मिश्र इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि जातीय समुदायों के गोत्रों के अध्ययन आलोक में संस्कृति की इस विरासत पर कुछ नया प्रकाश में आए। मुझे लगता है,  संस्कृति से जुड़ी इस दृष्टि से ही भविष्य के कुछ मौलिक में रचा—बसा जा सकता है।

बहुत बार लगता है, यह समय मूल ज्ञान से च्युत लोगों का है। ऐसे दौर में लोक सस्कृति मर्मज्ञ, लाक कलाविद्, विशेषज्ञ जैसी संज्ञाओं से अपने को अलग रखते अशोक मिश्र को देखता हूं तो अचरज होता है। मेरी जानकारी में लोक से जुड़े किसी एक अछूते विषय पर हर बार आग्रह करके निंरतर उन्होंने लेखकों से 'चौमासा' के लिए लिखवाया है। इसी से यह पत्रिका फल—फूल रही है। कला—संस्कृति में ऐसे उजास की ही तो इस समय सवार्धिक जरूरत है!


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