ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, July 3, 2023

अनुभवातीत भव्यता लिए रोबिन डेविड के मूर्तिशिल्प

राजस्थान पत्रिका, 1 जुलाई 2023

कलाओं के मर्म में जाएंगे तो एक रोचक तथ्य यह भी पाएंगे कि मूर्तिकला के जरिए इतिहास का संधान तो हमारे यहां हुआ है पर मूर्तिकारों पर कलम प्रायः मौन ही रही है। मूर्तिकला असल में हमारे यहां नृत्य के सर्वाधिक निकट रही है। जब कोई नर्तक मूर्ति की भांति परिमाप, परिप्रेक्ष्य और गति में संतुलन साधता है, हम कह उठते हैं, ’अद्भुत’! यह जो सराहने की व्यंजना है, असल में वही सौंदर्य का उत्कर्ष है। भांत-भांत के मूर्ति-रूपों पर जाएंगे तो पाएंगे समभंग, अभंग, त्रिभंग और अतिभंग की संरचना वहां है। भावानुकूल मुद्राओं का सौंदर्य संसार लिए। यही गति और संतुलन की साधना है। पर इधर मूर्तिकला में देषभर में जो सिरजा जा रहा है, उसे देखकर लगता है, सादृष्य के नाम पर भदेस और आधुनिकता की आड़ में अर्थहीन भी बहुत सारा रचाजा रहा है।

ऐसे दौर में रोबिन डेविड की मूर्तियां उम्मीद जगाती है। रोबिन भोपाल के हैं। देश-विदेश   में विशाल मूर्तिकला शिविरों के जरिए उन्होंने मूर्तिशिल्प  की भारतीय परम्परा को एक तरह से पुनर्नवा किया है। रोबिन की मूर्तियां अपनी विशिष्ट व्यंजकता मंे ही नहीं परिप्रेक्ष्य, परिमाप और गति-संतुलन में सौंदर्य की सृष्टि करती है। दिल्ली में यमुना नदी के पास बारापुला के उजाड़ स्थान पर बैंग्लोर की संस्था अ-फोरेस्ट द्वारा विकसित जंगल में उन्होंने कुछ समय पहले बड़ी-बड़ी मार्बल षिलाओं को तराष कर मूर्तियों का संुदर भव निर्मित किया है। चंडीगढ के रोज गार्डन में ली कार्बूजियर की स्मृति को समर्पित उनकी प्रतिमा, ग्वालियर में ’एक पत्थर की बावड़ी’ और देष-विदेष में ’द कॉलेजियम’, ‘इवोल्यूसन ऑफ द आर्क’, ‘फॉलोवर’, ‘कल्पतरू जैसे उनके मूर्तिषिल्प प्राचीन भारतीय स्थापत्य सौंदर्य के सर्वरूपों में आधुनिकता को भी समय-संदर्भों के साथ समाहित किए है। इमारतों, स्थानों और यहां तक कि संगीत के वाद्य यंत्रों के भी प्रतिमानित सौंदर्य को उन्होंने अपने सिरजे से एक तरह से पुर्नव्याख्यायित किया है।

उनकी मूर्तियों में मीनार, सीढ़ियों, बावड़ियों, प्राचीन नाटकों के प्रेक्षागृहों सरीखी आकृतियों का जीवंत परिवेश भी अलग से लुभाता है। यह ऐसा है जिसे भले ही ठीक से हम पूर्व में देखे की किसी परिभाषा में व्यक्त नहीं कर सकते परन्तु अचानक हम जाने-पहचाने के बोध मे उनसे हम रमते हैें। मुझे लगता है, तमाम उनका शिल्प इमारतों, प्राचीन स्थापत्य के बाह्य ही नहीं आंतरिक लोक में भी हमें प्रवेश कराता है। काले, लाल, पीले, श्वेत पत्थरों के साथ ही बहुत से रंगों की आभा की रंग-लहरियों का आस्वाद भी उनके सिरजे षिल्प में होता है। इधर टूकड़ों-टूकड़ों में और कुछ समय पहले भोपाल में कोई तीन-चार दिन तक निरंतर रोबिन डेविड से संवाद हुआ। इसी से बहुत कुछ महत्वपूर्ण पा सका। पता चला, देषभर में वह अपने सृजन के लिए अनुकूल पाषाणों की तलाष में भी निरंतर भटकते रहे हैं। कभी इसी तलाष में वह मकराना पहुंच वहीं बस गए थे। बरसों वह मकराना में रहे और यहीं ’होमेज टू ताजमहल’ जैसी सुंदर मूर्ति शृंखला रची। पर बाद में यहां से भोपाल लौट गए। 

भांत-भांत के पत्थरों, चट्टानों को अपनी कला के लिए प्रयुक्त करते वह पत्थर को इतना घना तराषते हैं कि उसके खुरदुरेपन में पत्थर का मूल रंग उभरकर सामने आ जाता है। उन्होंने मार्बल ही नहीं मिट्टी, धातु, लकड़ी आदि के साथ ही कांच में भी मार्बल की ही तरह कलाकृतियां सिरजने के अनूठे सफल-असफल प्रयोग भी निरंतर किए हैं। कांच में कलाकृतियां सिरजने वह कोई एक साल फिरोजाबाद भी रहे। यह सच है, रोबिन का तमाम सिरजा मूर्तिशिल्प भारतीय परम्परा में आधुनिक बोध लिए अनुभवातीत भव्यता लिए है। 


 


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