ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, July 9, 2023

गंगा निहार

कल श्रावण का पहला सोमवारहै। पर मैं तो एक दिन पहले ही शिव को स्मरण करते हरिद्वार में गंगा स्नान कर लौट आया हूं। मन कह रहा है, ‘तीर्थ बड़ा केदार, मन का मोक्ष हरिद्वार।’ हरिद्वार मन का मोक्ष ही तो है! न जाता तो भी क्या फर्क पड़ता! पर मन कहां मानने वाला है। हम वही करते हैं, जो मन कहता है। प्रातः पहुंचते ही मां गंगा के दर्शन किए। असल में इस बार एक छोटे पर अच्छे, साफ सुथरे घाट किनारे के होटल "गंगा निहार" में रुकना हुआ। गंगा के बिलकुल समीप। रात्रि वहां सोया तो वेग में बहती गंगा को ही सुनता रहा। दूसरे दिन प्रातः अलसुबह जगा तो देखा, घाट पर नहाने वाले पहुंच गए थे। भोर विष्णु घाट पर गंगा में डुबकी लगाई। ठंडा-टीप पानी! एक बार तो कंपकपी छुड़ाने वाला पर जब डुबकी लग गई तो मां की गोद से निकलने का मन न करे। मां गंगा लाड-लडाती है। आप फिर उसमें सहज हो जाते हैं। गंगा माने लोकमातरः। हम सबकी माता। निर्बन्ध! तीव्रतम इसके वेग को कौन पहले सहता सो भगवान शिव ने जटाओं में धारण किया। और फिर गंगा बह निकली। शिव जटा से मुक्ति, जह्नु गंधा, विष्णु पद से छूटने का अर्थ ही है-बंधन मुक्ति। गंगा स्नान भी मुक्त करता है, जीवन की विषमताओं से।

हरिद्वार शिव तक पहुंचने का द्वार ही तो है! घाट पर स्नान में गंगा का तीव्र वेग इस कदर होता है कि सांकल न पकड़ी हो तो व्यक्ति बह जाए। बारिश होने पर दूर पहाड़ों से बहती चली आने वाली गंगा बहुत सारी मिट्टी भी अपने संग बहा ले आती है। हरिद्वार में घाटों के पास गंगा का वेग बहुत प्रचण्ड होता है। इसलिए कि यहां वह कृत्रिम रूप से लायी धारा है।
पर प्रचण्ड या कम वेग में बहती नदी की यात्रा का ध्येय है सागर में समाना। और गंगा तो भागीरथी के रूप में सगर के साठ हजार पुत्रों की ही उद्वारक नहीं, हम सबकी भी मोक्षदायिनी है। तर्पणी! सप्तपुरियों में से एक हरिद्वार में ही यह पहाड़ों की गोद से उतरती है। हरिद्वार इसीलिए ‘गंगद्वार’ भी है! यूं हरिद्वार न भी कहें, हरद्वार से काम चल सकता है। हरद्वार में अपनापा है। आत्मीयता का भाव है। ...गंगा के मिले अपनापे को अंवेरते जयपुर लौट आया हूं। पर वह जो प्रातः काल विष्णु घाट पर किया स्नान है, मन उसमें ही नहा रहा है।
—राजेश कुमार व्यास
छायाचित्र—राजेश

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