ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 29, 2023

भगवान शिव का कंठ मेघ

राजस्थान पत्रिका, 29 जुलाई 2023

सावन में घिर-घिर घटाएं बरसती है। बादलों से ढके आसमान का दृश्य और बरखा कला-मन को नया रचने को भी उकसाती है। मेघ माने जीमूत। वह जो जीवन-जल को अपने में बद्ध रखता है। माने बांधे रखता है। सूर्य, मेघ, पशु-पक्षी, मंद बहती हवाएं और आम जन जब एक स्वर में गुनगुनाने लगे, समझ लीजिए तभी धरती-धन अन्न उपजता है। ब्राह्मण ग्रंथों में इसीलिए कृषि ’सर्वदेवतामयी’ है। कालिदास ने मेघ को ’कामरूप’ कहा है। इच्छानुसार रूप धरने वाला। उसका सौंदर्य अवर्णनीय है। इसीलिए मेघ की एक उपमा भगवान शिव का कंठ भी है।

थेर गाथाओं में वर्षा की विरल रसानुभूतियां हैं। थेर माने ध्यानलीन भिक्षु। बुद्ध वहां शास्ता है। वह, जिसका मन बस में है। थेर गाथा असल में प्रकृति काव्य ही है। इसमें आता है, ’देव! तुम मन भर बरसो। देव! तुम पेट भर बरसो।’ हृदय से उपजती कविता में इसी तरह संगीत घुलता है। लय और ताल में हर कोई इसे अनुभूत कर सकता है। हमारे समूचे भक्ति काव्य को ही लें। वह राग तत्व में गुंथा है। रीति काव्य में छंद समाया है। कविता में बजते संगीत की इससे बड़ी और क्या गवाही होगी! भक्ति में राग की अनुभूति इसलिए होती है कि वहां अभिभूत होकर, सुध-बुध खोकर ईश्वर के प्रति अभ्यर्थना है। रीति काव्य में आए छंद स्वयमेव शब्द की अलंकृति है। प्रयास करेंगे और वर्णाडम्बर से जटिल बुनेंगे तो कविता में संगीत नहीं घुलेगा। मुझे लगता है, ध्वनि का माधुर्य कविता का ही नहीं भाषा का भी सहज गुण है। 

राजस्थानी कविताओं में भी ठौड़-ठौड़ राग-रस ऐसे ही समाया हुआ है। रेवतदान चारण की एक कविता है, ’बिरखा बिनणी’। इसमें आए शब्द देखें-’ठुमक-ठुमक पग धरती, नखरौ करती, हिवड़ौ हरती...छम-छम आवै बिरखा बिनणी।..’ नई बहु के ठुमक-ठुमक चलने, मन हर्षाने के साथ बरखा की छम-छम की इस व्यंजना में संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्र सभी तो समाए हैं! ऐसे ही वर्षा से जुड़ा बहुत प्यारा लोक गीत भी है, ’झिरमिर बरसै मेह’। सुनता इसे बचपन से ही रहा हूं पर इधर सावन में बार-बार यह सुन रहा हूं और कभी बिन बरसे मेह की बूंदो से इसी में नहा लेता हूं। कविता में सहज बरते शब्द ऐसे ही सौंदर्य बरसाते है। पर मरू-भूमि में बूंदे जब नहीं बरसती तो लोक ने ’मारण मारग मोकळा, मेह बिना मतमार।’ जैसी व्यंजना भी की है। माने हे, सांवरे! बहुत सारे और भी मार्ग हैं, वर्षा के बिना मत मार। अकाल से जूझते मनुष्य की पीड़ा का यह विरल गान है।

कविता में निहित शक्ति और उसका शिल्प ऐसे भाव ही तो है। इससे ही छंद-गति, ताल-लय में कविता अन्य कलाओं से जुड़ी अनुभूतियां कराती हैं। यह सच है, चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाट्य के मेल से महती सिरजा जा सकता है पर यह स्वतः हो तभी ठीक है। प्रयास से कलाओं के अंतःसंबंध स्थापित करने या दर्शाने की चेष्टा सदा निर्थक होगी। कविता या कोई भी दूसरी कला हृदय से ही उपजती है। सुनाने के लिए, छपवाने के लिए वहां आग्रह होगा, तो कुछ सार्थक न होगा। यह तो बाद की स्थितियां हैं। कालिदास और भास की कविताएं दृश्य से साक्षात् है। शुद्ध राजस्थानी कविताएं भी प्रायः ऐसी ही है। एक छोटे से पट पर समर्थ चित्र जैसे कवि वहां आंक देता है। इन शब्दों पर भी गौर करें, ’उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र।’ बताईए, यहां भाषा बाधा बनी है! कविता में समाई कलाएं ही उत्सव को मनुष्य की जाति और आंनद को गोत्र बनाती है।


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