ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, February 4, 2024

'अहा! जिंदगी' में -'कलाओं की अंतर्दृष्टि'


...भारतीय कलाओं के अंत:संबंधों का विश्लेषण

 'अहा! जिंदगी' पत्रिका में 'कलाओं की अंतर्दृष्टि' पुस्तक पर पुरु शर्मा जी की दीठ.--
भारत की उर्वर भूमि कलाओं की समृद्ध विरासत को अनंत काल से संभाले हुए है। जब पश्चिम के देशों सभ्यता के सूर्य का उदय नहीं हुआ था, तब उस समय हमारे यहां कला के नए-नए सोपान रचे गए। वेद की ऋचाओं से लेकर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, शुक्रनीति, ललितविस्तर, समरांगणसूत्रधार, काश्यपशिल्प, नरदसंहिता, वास्तुशिल्प सहित कितने ही और ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें कला-सृजन और उससे जुड़े विचार का मूल समाया हुआ है। डॉ. राजेश कुमार व्यास जी ने इन्हीं ग्रंथों में निहित कलाओं की अंतर्दृष्टि को अपनी पुस्तक में सहेजने का महनीय कार्य किया है।
कलाएं अर्थ के आग्रह से मुक्त होती हैं। उनमें अंतर का आलोक होता है, दृष्टि होती है। यही दृष्टि हमारे अंतस को सींचती है, समृद्ध करती है। किंतु पराधीनता के लंबे कालखंड और औपनिवेशिक शासन के कारण हमारी कलाओं की निजता, उनकी शुद्धता और अंतर्दृष्टि पश्चिमी दृष्टिकोण से आच्छादित रही। पश्चिम ने भाषा के जरिए कला की भारतीय दृष्टि को निरंतर लीलने का प्रयास किया है। इस परिप्रेक्ष्य में कलाओं की हमारी समृद्ध अंतर्दृष्टि में जाने की अत्यंत आवश्यकता है।
यह पुस्तक हमारी समृद्ध कला विरासत को देखने, समझने तथा अनुभूत करने की ऐसी नवीन दृष्टि उपलब्ध कराती है जो आयातित न होकर, मौलिक और भारतीय परंपरा सम्मत है। पुस्तक पढ़ने से भारतीय कलाओं के अंतस के उजास की अनुभूति के साथ ही संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति, वास्तु आदि सभी कलाओं के अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के आकलन एवं अन्वेषण की सूक्ष्म दृष्टि भी विकसित होती है।

पुस्तक में भारतीय कलाओं से जुड़ी हिंदी और संस्कृत परंपरा को किस्सों-कहानियों के रूप में अत्यंत सरस रूप में संप्रेषित किया गया है जिसमें तर्क की शुद्धता, चिंतन की गहनता और विचारों की मौलिकता का अद्भुत साम्य है। भाषा का प्रवाहमय लालित्य, रोचकपूर्ण प्रस्तुतिकरण एवं कला-सौंदर्य बोध पाठकों की विचार-मंथन की सुखद यात्रा को और अधिक सहज करता है।

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नमस्ते सर, आपकी नवीन कृति 'कलाओं की अंतर्दृष्टि' पढ़ी। आपके तर्क की शुद्धता, भाषा की सिद्धता, चिंतन की गहनता और विचारों की मौलिकता अद्भुत है। पुस्तक पर छोटी सी पाठकीय टिप्पणी 'अहा! जिंदगी' पत्रिका के लिए लिखी है, जो संभवत: इस अंक में प्रकाशित भी हो। (-मैसंजर पर प्राप्त पुरु शर्मा जी का संदेश)

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