ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, February 4, 2024

राजस्थान पत्रिका, रविवारीय में 'कलाओं की अंतर्दृष्टि'

राजस्थान पत्रिका, रविवारीय में 'कलाओं की अंतर्दृष्टि' पर छायानट पत्रिका के पूर्व संपादक, समीक्षक राजवीर रतन की समीक्षा

कलाओं के आपसी सम्बंधों और उनकी अंतर्दृष्टि पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बहुत कम काम हुआ है। इस लिहाज से डॉ. राजेश कुमार व्यास की हाल ही प्रकाशित  पुस्तक  कलाओं की अंतर्दृष्टिगंभीर चिंतन और मौलिक दृष्टि लिए इस समय की महत्वपूर्ण कृति है।



कलाओं पर इस समय धीर गंभीर और अभिनव निजी दृष्टि से काम करने वाले, अपने विचार रखने वाले बहुत गिने चुने लोग ही हैं। डॉ.व्यास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। इस दौर के वह विरल संस्कृति चिंतक हैं। उन्होंने पुस्तक में अपने अनुभवों को मौलिक विश्लेषणात्मक दृष्टि से व्याख्यायित किया है।

. व्यास की इस पुस्तक में सभी कलाओं को समाहित करने वाले ग्रंथ भरत मुनि केनाट्यशास्त्र, पंचम साम वेद, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार, नारद संहिता जैसे बहुत से ग्रंथों के सूत्र और उल्लेखों के रोचक प्रसंग कलाओं के अंतर सम्बंधों को पुष्ट करते हैं। कलाओं में विज्ञान और शास्त्र से जुड़े संदर्भों में यह पुस्तक लेखक की मौलिक दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण है। पुस्तक में 23 खंड हैं, जिनमें कला बोध, कला इतिहास, सौंदर्य बोध, कलाओं से जुड़े पंचम वेद, कलाओं में अश्लीलता और श्लीलता पक्ष, गायन की ध्रुवपद परंपरा, वैचारिक भाष्य, परंपरा प्रयोग और नवाचार, कलाओं के अंतःसंबंध, समकालीनता के कला स्वर, देखने सुनने और गुनने के संस्कार, सांस्कृतिक नीति, सौंदर्य की सांस्कृतिक भाषा, छंद शास्त्र की महिमा, कलाओं से जुड़े देवी देवता जैसे विषयों के साथ ही महात्मा गांधी की कला दृष्टि पर भी महत्वपूर्ण मौलिक चिंतन है। पुस्तक में भारतीय कलाओं के महत्वपूर्ण ग्रंथों के आलोक में कलाओं की सुंदर विवेचना है।

पुस्तक में कलाओं  की भारतीयता की स्पष्ट छवि ध्वनित होती है। इस पर हम अगर गहराई से विचार करें तो अपने कला बोध और अवधारणा के आधार पर क्षमतानुसार प्रयोगधर्मिता के जरिये और भी आयामों में शोधात्मक तरीके से कलाओं को  विकसित करने के नये रास्ते तलाश सकते हैं। डॉ. व्यास की पुस्तक में अपनी अंतर्दृष्टि है- ‘...कलाओं का अर्थ कहना नहीं है, व्यंजित और ध्वनित होना है। समय की अनवरत द्योतक यह भारतीय कलाएं हीं हैं, जिनमें व्यष्टि के स्थान पर समष्टि के भाव है। आस्थाओं, विश्वास से उपजी हमारी कलाएं दर्शिता विश्वरूपा हैं। लौकिक उत्सवों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।

वैश्विक संदर्भ में पश्चिम से कला में आयी समकालीन कुरूपता को दरकिनार करते हुए यह पुस्तक प्राचीन भारतीय साहित्य और कलाकर्म का शोधात्मक विश्लेषण ही नहीं है, विचार की नवीन स्थापनाओं में कलाओं के अतीत से जुड़े अभिनव संसार से साक्षात्कार कराती है। डा.व्यास की यह पुस्तक पश्चिम की नकल के इस दौर में भारतीय कला दृष्टि के जरिए सौंदर्य के अभिनव संसार से हमें रूरू कराने वाली है। यह पुस्तक आम पाठक के साथ ही, कला में शोध करने वाले, कला शिक्षकों और सौंदर्य के अभिलाषी सभी पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। बहुत लम्बे समय बाद भारतीय कलाओं की अंतर्दृष्टि पर कोई मौलिक पुस्तक डॉ. राजेश कुमार व्यास ने हमें सौंपी है।

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