ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, April 6, 2025

लोक संस्कृति में परम्पराओं का उजास

'पत्रिका', 5 अप्रैल 2025

लोक का अर्थ है देखना। यह देखना बाह्य ही नहीं आं​तरिक भी होता है। 

युगीन संदर्भों में लाक संस्कृति हमें सदा नई परम्पराएं सौंपती है। आधुनिक दृष्टि देती है। 

राजस्थान में कभी दूर तक पसरे रेत के धोरे, आंधियां,लू चलती। 

पानी की एक—एक बूंद के लिए लोग तरसते। अभाव ही अभाव थे पर जीवन से जुड़े संस्कारों ने चटख रंगों की चूंदड़ी, रंग—बिरंगी पाग ने भाव भरे। 

लोक में अभावों का रोना नहीं है। लोक कथाएं, गीत, संगीत आदि सभी संस्कृति का सधे ढंग से निर्माण करती है। 

वनस्पति उद्गम को भीलों के गायन 'बड़लिया—हिंदवा' में संजोया गया है

...धरती पर पेड़ आने के बाद की आशंका उनके कटने की है। 

इससे आगे की लोक संस्कृति 'सिर साटे रूंख तो भी सस्तो जाण' का खेजड़ली का बलिदान है...

लोक में ऐसे ही आधुनिक दृष्टि  जीवन को संपन्न करती जाती है।

साहित्योत्सव पर

 'अमर उजाला' नई दिल्ली और 'नवभारत' रायपुर में साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित एशिया के सबसे बड़े साहित्योत्सव पर लिखा है—

अमर उजाला, 19 मार्च 2025