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'पत्रिका', 5 अप्रैल 2025 |
लोक का अर्थ है देखना। यह देखना बाह्य ही नहीं आंतरिक भी होता है।
युगीन संदर्भों में लाक संस्कृति हमें सदा नई परम्पराएं सौंपती है। आधुनिक दृष्टि देती है।
राजस्थान में कभी दूर तक पसरे रेत के धोरे, आंधियां,लू चलती।
पानी की एक—एक बूंद के लिए लोग तरसते। अभाव ही अभाव थे पर जीवन से जुड़े संस्कारों ने चटख रंगों की चूंदड़ी, रंग—बिरंगी पाग ने भाव भरे।
लोक में अभावों का रोना नहीं है। लोक कथाएं, गीत, संगीत आदि सभी संस्कृति का सधे ढंग से निर्माण करती है।
वनस्पति उद्गम को भीलों के गायन 'बड़लिया—हिंदवा' में संजोया गया है
...धरती पर पेड़ आने के बाद की आशंका उनके कटने की है।
इससे आगे की लोक संस्कृति 'सिर साटे रूंख तो भी सस्तो जाण' का खेजड़ली का बलिदान है...
लोक में ऐसे ही आधुनिक दृष्टि जीवन को संपन्न करती जाती है।