संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकला आदि कलाएं संस्कृति की जीवंतता हैं। इनकी प्रस्तुतियां पर हमारे यहां सूचनात्मक दृष्टि तो है, पर विचार प्रायः गौण हैं। कलाएं मन को रंजित ही नहीं करती, उनमें रचते-बसते ही हम अपने होने की तलाश कर सकते हैं। पर कला प्रस्तुतियों का जितना महत्व है, उतना ही उन पर सूक्ष्म दृष्टि से लिखे, व्याख्यायित किए जाने का भी है। यह लिखा खाली सूचनाप्रद, समाचार रूप में ही होगा तो उसकी कोई सार्थकता नहीं है। सोचिए, क्योंकर हम फिर कलाओं के निकट जाने के लिए प्रेरित होंगे! पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने कभी कहा था, ‘हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।’ यह उन्होंने इसीलिए कहा था कि तानसेन जैसे गुणी संगीतकारों को सुनने के लिए ध्यान से उन्हें सुनने वालों की भी जरूरत है।
आनंद कुमार स्वामी ने पहले पहल जब श्री कृष्ण के बांसुरी बजाते बांकपन स्वरूप, शंख, चक्र, गदा, हस्त के विष्णु, शिव के नटराज स्वरूप को देखा तो चकित रह गए। मानव स्वरूप से इतर इन विग्रहों के निहितार्थ में वह वेद, पुराणों में लिखे, व्याख्याओं पर गए। भारतीय कलाओं पर उनकी सूक्ष्म आलोचना दृष्टि से ही कला-कृतियों को वहृद स्तर पर हम संजो सके, सहेज पाए।
बहरहाल, कलाओं पर लिखे की सार्थकता तभी है, जब समय संदर्भों के साथ कला और कलाकार की विधा विशेष के अंर्तनिहित को छुआ जाए। दृष्य-श्रव्य कला में दिख रहे, सुने जा रहे संसार के परे भी भाव संवेदनाओं का आकाश बनता है। यह आकाश कलाकृति में रमते बसते ही सिरजा जा सकता है। समीक्षा को हमारे यहां रचना के समानान्तर और बहुत से स्तरों पर तो रचना से भी बड़ा इसीलिए माना गया है, कि वह कलाओं से हमें प्रेम करना सिखाती है। कलाओं के समग्र परिवेश को समझने की प्रक्रिया से भी आगे यह जीवन से जुड़े व्यापक और उदात्त दृष्टिकोण से भी हमें जोड़ती हैं। इससे ही तो बनता है, कलाओं का रसिक संसार।
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राजस्थान पत्रिका, 20 मई 2022 |