ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, August 18, 2022

जड़ में चेतन की तलाश करती दृश्य-छंद कला

छायांकन विरल कला है। जो दिख रहा है और जैसा दिख रहा है वह तो हमारी आंख भी देख लेती है परन्तु छायांकन  दृश्य  में  बसे अदृश्य सौंदर्य को अंवेरने की अद्भुत कला है। बल्कि कहूं छायाकार बहुतेरी बार यथार्थ को अपने तईं मौलिक कला—दीठ से रूपांतरित करता है। छायाकार  रंग, स्पेस, रेखाओं और परिवेश से जुड़ी तमाम कलात्मक संभावनाओं का एक तरह से हम सबके समक्ष आकाश खोलता है।मुझे लगता है, छायांकन देखने को संस्कारित करने की दृश्य -छंद कला है। परिवेश को समग्रता में अनुभूत करने को प्रेरित करती वह कला जिसमें किसी दृश्य को उसके किसी एक पक्ष में नहीं, समग्रता में निहारा जा सकता है। सूक्ष्म पर्यवेक्षण में इस कला के अंतर्गत छायाकार चीजों, व्यक्तियों और यथार्थ से जुड़े दृश्यों में एक प्रकार से रमता है। ध्यानस्थ होते नया कुछ गढ़ता है। छायांकन असल में देखे, अनुभूत किए हुए यथार्थ को अपनी मौलिक दीठ में सर्वथा नए ढंग से रूपायित करने की ही विरल कला है।


रघुराय ने इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की परन्तु भारतीय जन जीवन, प्रकृति दृष्यावलियों, युद्ध, आस्था स्थलों, स्मारकों के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक जीवन से जुड़े विशिष्ट व्यक्तियों के उनके छायाचित्र जड़ को जीवंत करने वाले हैं। एक छायाकार की  अंतर्मन अनुभूतियों के भव को उनकी छायांकन कला संग पढ़ा ही नहीं देखा जा सकता है।  रघुराय के  संगीत, नृत्य, नाट्य आदि कलाओं से जुड़े कलात्मक छायाचित्रों में कलाकारों के जरिए कला के समय को भी हम सुन-गुन और बांच सकते हैं।  किसी सांगीतिक प्रस्तुति में ध्यानस्थ गायक-गायिका, नृत्यरत नर्तक की कोई खास भंगिमा, नाट्य से जुड़ा कोई ऐसा विरल भाव जो बीत चुका होता है, छायाकार उसे छायांकन कला में ऐसे छायाचित्रों में सदा के लिए फिर से जीवंत ही तो करता है!
छायाकार महेश स्वामी ने कभी नृत्य में छाया—प्रकाश से उभरती भंगिमाओं का ध्यान—लोक सिरजा था। इधर कुछ बरसों से वह कैमरे से ली पेड़—पौधों की जीवंत छवियों का कैनवस रूपान्तरण कर रहे हैं। ऐसा करते छायांकन प्रयोगधर्मिता में दृश्य से जुड़े मूल रंगो को दृश्य में छितराते, उन्हें परिवेश में सजाते, परिवर्तित करते हल्का—गहरा करते और बहुतेरी बार एक रंग में दूसरा घोलते एब्सट्रेक्ट कलाकृतियां का जैसे नव्य लोक वह सिरज रहे हैं। छायांकन का उनका यह कलाकृति आस्वाद लुभाने वाला है।
अविनाश पसरीचा के हिमालय के चित्र, निमाई घोष के सत्यजीत राय की सिने कला और व्यक्तित्व से जुड़े चित्र, राजदीप राकेश  के लोक संवेदना से जुड़े उत्सवधर्मिता से जुड़े छायाचित्रों को देखते बहुतेरी बार यह भी लगता रहा है कि बजरिए छायाचित्र हम कला की उस प्रस्तुति समय में प्रवेश  कर गये हैं। माने छायांकन -कला स्मृति को समृद्ध-संपन्न ही नहीं करती, बीते हुए समय में प्रवेश करने की अनुभूति भी है।
अकबर पदमसी ने कलाकृतियां का विरल लोक सिरजा है पर छायांकन की उनकी दृष्टि भी महती है। वह लिखते हैं,‘मैं चित्रकार हूं पर कई बार कैमरे से चित्रकारी करता हूं। परछाइयां रौशनी  को शिल्पित  करती है।’ यह सच है, छायांकन में परछाई में भी रोशनी से बहुत कुछ नया सिरजती है। छायाकार देखे हुए में अपनी संवेदना, घटित किसी तात्कालिकता में उपजे क्षण के सौंदर्य, दृश्य  में निहित गहराई, गंभीरता या व्यक्ति या वस्तु से जुड़े किन्हीं अचरज भावों को अपने तई कैमरे की आंख से जब परोटता है, तब उसका वह कैमरे का छायाकंन, कला में रूपान्तरित हो जाता है।
आज ही विश्व छायांकन दिवस पर पुष्पेंद्र उपाध्याय की पहली छायाचित्र प्रदर्शनी जवाहर कला केन्द्र में हो रही है। यह देखना सुखद है कि अपने चित्रों में उन्होंने प्रकृति रचे परिवेश को अंतर के अपने उजास से शिल्पित किया है। मुझे लगता है, छायाकार अपने देखे में सौंदर्य की तलाश  ही नहीं करता बल्कि अपने तई देखे इस सौंदर्य को विशेष  दृश्य-छंद से श्रृंगार भी करता है। इस दीठ से प्रकृति में क्षण-क्षण में जो परिवर्तित होता है, उस सत्य का सौन्दर्यान्वेषण  है, छायांकन कला। इसीलिए कहें, छायांकन में कैमरे की तकनीक और उसे बरतना ही महत्वपूर्ण नहीं होता। छायाकार के रंगो की, प्रकृति को अनुभूत करने की, दृष्य में लय को तलाशने की गहरी समझ उसकी कला के मूल तत्व है।
कुछ समय पहले ही प्रख्यात कलाकार हिम्मत शाह अपनी कलाकृतियों की एक किताब ‘हाई रिलीफ वर्क बाई हिम्मत शाह’ स्वयं वह घर आकर देकर गए थे। उनके द्वारा 1968-69 में सेंट जेवियर स्कूल, अहमदाबाद में दीवार पर सीमेंट, कंक्रीट, पत्थर और ईटों से बेहद कलात्मक म्यूरल कार्य के चितराम इसमें है।  पुस्तक में छायाकार सुरेन्द्र पटेल और राघव कनेरिया ने उनके सिरजे उस समय के सुंदर भित्ति चित्र, दीवार के खंड खंड सौन्दर्य के अखंड को गहरे से जिया है। उनके उन छाया चित्रों को देखकर ही मुझे यह भी अनुभूत हुआ, यह छायांकन ही है जिसमें किसी दूसरी कला साधना को इस तरह से सदा के लिए जीवंत कर कला इतिहास की सौंदर्य सृष्टि होती है। युवा छायाकार आकाश शर्मा ने इधर गोविंद देव जी, नाथद्वारा की कृष्ण मूर्तियों के छायाचित्रों को अपने स्तर पर परस्पर एक साथ संयोजित कर डिजिटल प्रिंट के विरल प्रयोग किये हैं ।  इन्हे देखकर मन में विचार आते हैं, छायांकन यथार्थ के बरक्स नवीन यथार्थ रचने की कला ही क्या नहीं है!
बहरहाल, प्रख्यात प्रिंट मेकर, कलाकार जयकृष्ण अग्रवाल की जवाहर कला केन्द्र में कभी जयपुर के जन्तर-मन्तर पर केन्द्रित एक छायाचित्र प्रदर्शनी देखी थी। इसमें उन्होने जंतर मंतर की सीढ़ियों, समय यंत्रों के  चित्रीय तत्वों को  खगोलीय घटना की अनुभूति में जीते हुए  शिल्प स्थापत्य के  अनंत विस्तार का अदभुत छाया चित्र रूपान्तरण किया है। मुझे लगता है, छायांकन में देखना ही महत्वपूर्ण नहीं है, उसे देखे को अपने तईं विकसित करते और फिर ऐसे को  अंतर्मन अनुभूति में कैमरे के जरिए रूपांतरित करने की कला अधिक महत्वपूर्ण है।
राजा रवि वर्मा प्रातः 4 बजे उठकर चित्र बनाते थे। यह वह समय होता है जब भोर के हल्के उजास का आगमन हो रहा होता है और रात्रि के अंधकार का गमन हो रहा होता है। कहते हैं, राजा रवि वर्मा ने प्रकृति के इसी उजास और अंधकार के रंगों की अनुभूतियों को अपनी कलाकृतियों में बरतें रंगों में रूपान्तरित किया है। गौर करें, उनकी कलाकृतियों में रंग संयोजन ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। छायांकन कला का तो बड़ा सच भी यही है कि वहां छायाकार प्रकृति में घूले रंगो को अपनी दीठ से अनुभूत कर उसमें नया दृश्य  यथार्थ रचता है।
नर्मदा के अनथक यात्री अमृत लाल वेगड़ ने नर्मदा के किनारे बसे गांवों के बेहद मोहक शब्द चित्र ही अपनी यात्रा संस्मरणें में नहीं उकेरे हैं बल्कि अपने रेखांकन में भी नर्मदा यात्रा को गहरे से जिया है। छायांकन कला के बारे में जब भी विचारता हूं, ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ पुस्तक में लिखी यात्रा अनुभूति की उनकी यह पंक्तियां जहन में कौंधती है। वह लिखते हैं, ‘...सारा दिन मंडला की उस पहाड़ी पर रहा। वह पेपरवेट जैसी लग रही थी। आस-पास के खेत कहीं उड़ नहीं जाए, इसलिए उन पर रखा पेपरवेट।’ जिस तरह से वेगड़जी यहां आंख से देखे दृश्यों को अपने मन की आंख से अनुभूतियों में रूपान्तरित कर रहे हैं, ठीक वैसे ही छायाकार भी कईं बार दृश्य  में ऐसे ही संवेदनाओं को घोल कर यथार्थ को देखे से इतर  नवीन ढंग से रूपायित करता हमारे समक्ष रखते  है। इसीलिए कहें, छायाकार जो देखता है वह कोई और नहीं देखता है।  
भारतीय फिल्मों के भीष्म पिता कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के कैमरे से सिरजी दुनिया के प्रति इतना अधिक जुनूनी थे कि उन्हें इसके लिए अपनी एक आंख तक गंवानी पड़ी थी। ‘द ग्रोथ ऑफ द प्लांट’ के अंतर्गत मटर बोने और उसके बाद उसके क्षण-क्षण में बढ़ते समय को उन्होंने छायांकन में अद्भुत ढंग से जिया है। फिल्मों में अभी जो ‘स्पेशल  इफेक्ट’ हम देखते हैं, उसके जनक यही दादा साहब फाल्के ही रहे हैं। सत्यजित राय के साथ भी यही था, उन्होंने साधारण विषयों, दृश्यों के भी सूक्ष्म ब्योरों के इतने कलात्मक रूप चलचित्र में सिरजे हैं कि अचरज होता है, कैसे यह संभव हुआ होगा। काशी  में कभी उन्होंने ‘अपराजित’ फिल्म की शूटिंग की थी। ‘माई इयर्स विद अपू’ में वह लिखते हैं,  ‘बंगाली टोला मे जाकर वहां के मकानों को ध्यान से देखा। गणेश  मोहल्ले के मकान फिल्म में शायद सबसे अच्छे आंएगे। ऐसा लगने की वजह क्या है? यहां की गलियां घुमावदार है, मकानों के सामने के हिस्से कुछ टूटे-फुटे से हैं, दरवाजे, खिड़कियां, रेलिंग, बरामदे और खम्भे-कुल मिलाकर चित्र सा उभरता है।’ गौर करें, दृश्य के कितने सूक्ष्म ब्योरों पर सत्यजीत राय यहां गए है। कितने-कितने अर्थों में उन्होंने दिख रहे दृश्यों की छवियों का अंकन अपनी कला दीठ में  किया है।
छायांकन कला का बड़ा सच यही है। इस कला में दृश्य से अधिक उसमें निहित और उभरती छवियों की विरलता अधिक महत्वपूर्ण होती है। आईए, विश्व छायांकन दिवस पर दृश्य छंद की इस कला के ऐसे ही मोहक छंदो में रमें। बहुत कुछ नया, अभूतपूर्व मिलेगा।  

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