राजस्थान पत्रिका 28 जनवरी 2023
तबला
एकल वाद्य नहीं है। प्राय: गायन और दूसरे वाद्यों की संगत से जोड़कर ही इसे देखा जाता रहा है पर जाकिर हुसैन ने इसे स्वतंत्र पहचान दी। बल्कि कहूं इस साज़ को लुभाने वाली ज़बान दी। ऐसी जिसमें जीवन से जुड़े भांत—भांत
के अनुभवों को हम सुन सकते हैं, सुनते हुए निंरतर गुन सकते हैं। तबले में निहित उनकी ताल मानों काल से होड़ करती है। समय के अनंत प्रवाह से साक्षात् कराती। संगीत में लय की प्रतिष्ठा किससे है? ताल से ही तो! उस्ताद जाकिर हुसैन ने ताल की स्वतंत्र प्रतिष्ठा में इसे निरंतर जीवन की लय से जोड़ा है। उनका तबला सुनेंगे तो लगेगा, अन्तर्दृष्टि संवेदन में ध्वनि से भावों की अद्भुत व्यंजना वहां है।
याद
पड़ता है, एक कार्यक्रम में तबले का उनका ‘कायदा’सुना
था। तबले में परम्परागत शास्त्रीय संकेतो को न बिगाड़ते हुए इसमें तेज दौड़ते घोड़े की टापों के साथ कड़कती बिजली में झमाझम होती बारिश की वह जैसे अनुभूति करा रहे थे। ऐसा ही तब भी होता है जब वह अपने तबले पर डमरू के नाद का आभाष कराते हैं। तबले पर डमरू के नाद की अनुभूति से हम जुड़ते ही हैं कि औचक शंख ध्वनि से साक्षात् होने लगता है। ऐसे ही नदी की कल—कल,
झरनों के झर—झर
और भी बहुत सी ध्वनियों के भांत—भांत के भावलोक में ले जाते वह लय और छंद में ताल का विरल आधार खड़ा करते है। उनके तबले में बंधे अंतराल की नियंत्रित अवधि यानी मात्राओं के छोटे—छोटे सुगठित गुच्छे भी लुभाते हैं। काल के अंतरालों का विशेष विन्यास! चुप्पी और फिर होले—होले होती गूंज! छंदों के इस अन्तर्विन्यास में उनका तबला ध्वनि के विस्तार और उसकी सीमाओं को पहचानता सुनने वालों से संवाद करता है। तबले पर थिरकती उनकी अंगूलिया जैसे दृश्यभाषा रचती है। गत-फर्द और अद्भुत उठान के इस दौर के
वह विलक्षण कलाकार हैं।
जाकिर
हुसैन ने ताल वाद्य में पूर्व-पश्चिम के मेल के साथ अंतर्मन अनुभूतियों का अनूठा रूपान्तरण किया है। यह लिख रहा हूं और उनके एकल तबले की लय में ही मन जैसे रमने लगा है। होले होले तबले की उनकी थाप गति पकड़ती औचक थम जाती है! रह जाती है बस एक गूंज। आवृत्तियां...विलम्बित लय में मध्य और फिर द्रुत… प्रस्तार! प्रस्तार माने विस्तार, फैलाव। त्रिताल का ‘धिन’ और
एकताल का ‘धिन’ भिन्न
आघात पर अनूठी साम्यता!
उनका एकल तबला वादन तो विरल है ही पर उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली, ओंकारनाथ ठाकुर, पं. रविशंकर, अली अकबर खाँ,प. हरि प्रसाद चौरसिया और उसके बाद की पीढी में शाहिद परवेज़, राहुल शर्मा, अमान-अयान के
साथ उन्हें सुनेंगे तो लगेगा वहां तबले की ‘संगत’ भर
नहीं है लयात्मक गतियों में जीवन जैसे गुनगुना रहा है। पिता उस्ताद अल्ला रक्खा खां की विरासत में मिली तबला वादन परम्परा में उन्होंने निंरतर बढ़त ही नहीं की बल्कि उसे जीवंत करते जन—मन से जोड़ा है। उन्हें पद्म विभूषण का अर्थ है, संगीत की हमारी महान परम्परा का सम्मान।