आस्था और विश्वास में ही जीवन सदा उत्सवधर्मी बना रहता है। भारतीय काल-गणना पर गौर करेंगे तो पाएंगे लौकिक उत्सवों में ही वह पूरी तरह से गुंथी हुई है।
चैत्र से वर्ष प्रारम्भ होता है और दूसरा माह वैशाख ही है। हर मास का अपना गान है। चैत्र का स्वागत ’चैती’ गाकर होता है। वैशाख में 'घांटो’ का गान होता है। ठीक वैसे ही जैसे फागुन में ’फाग’, सावन में ’मल्हार’, भादों में ’कजली’ आदि।
राजस्थान पत्रिका, 22 अप्रैल 2023 |
अक्षय तृतीया कलाओं से जुड़ा दान पर्व भी तो है! अलंकृत घड़े, सुंदर सुराहियां, मिट्टी के बने और भी बर्तन, कलात्मक पंखियां दही, अन्न-धन आदि इस दिन बहन-बेटियों को देने का रिवाज है। अक्षयतृतीया पर लक्ष्मी सहित नारायण की पूजा होती है। वाणी जब सुसंस्कृत होती है, तब उसे सरस्वती का स्वरूप मिलता है पर शब्दों को फटक-फटक कर भाषा का जब निर्माण हुआ तो लक्ष्मी ने ही वाणी को निधि समर्पित की। वाणी, निधि सभी प्रतीक हैं। मंगलकामना, आध्यात्मिकता और पर्व रसिकता संग नवजीवन और पोषण देते प्रायः सभी उत्सवों में हम प्रतीकों का ही तो वरण करते हैं।
अक्षय-तृतीया पतंग उत्सव भी है। बीकानेर में चिलचिलाती धूप, लू में भी घरों की छतें इस दिन आबाद होती है। पतंगे उड़ती है। स्थानीय भाषा में इन्हें किन्ना कहते हैं। वैशाख शुक्ल बीज, 1545, शनिवार के दिन बीकानेर शहर की स्थापना हुई थी। स्थापना की उमंग में बीकानेर में उत्सव मनाया गया। घरों में खीचड़ा बना। घी भर इसे लोगों ने खाया और जीभर पिया इमली का शर्बत। असल में आखातीज पर बीकानेर के संस्थापक राव बीका ने खुशी का इजहार करते, आसमान में उड़ते मन के प्रतीक रूप में चंदा यानी बड़ी पतंग उड़ायी। बस तभी से परम्परा हो गयी। पूरे विश्व में शायद बीकानेर एक मात्र जगह है जहां तपते तावड़े में छत पर चढ़कर लोग पतंगे उड़ाते हैं। कागज पर कोरे चित्र, आकृतियों से सजी कलात्मक पतंगे। इन्हें उड़ाना भी अपने आप में कला है। आसमान में गोते खाती पतंगों के उड़ाके तगड़े लड़ाके होते हैं। दूसरे की पतंग काटने में मजबूत डोर नहीं बल्कि पेच लड़ाने की कला प्रमुख होती है। ऐसी जिसमें कलाबाजियों खिलाते पतंग को अनायास ढील या औचक कसते हुए काटने के गुर निहित होेते हैं।
वैशाख में शिवलिंग के ऊपर जल-पात्र बांधने की भी परम्परा है। समुद्रमंथन में निकले भयंकर कालकूट विष को शिव ने कंठ में धारण किया था। वैशाख में जब अत्यधिक गर्मी पड़ती है, इस विष से राहत देने के लिए शिवलिंग पर ’गलंतिका’ बांधी जाती हैं। गलंतिका माने जल पिलाने का करवा या बर्तन। मटकी में जल ठंडा रहता है, इसलिए प्रायः इसे ही बांधा जाता है। बूंद-बूंद जल इससे शिव को स्वयमेव अर्पित होता रहता है। इस रूप में शिव आराधना से भी जुड़ा है यह मास। मुझे लगता है-सत्यम्, शिवं और सुंदरम् की अनुभूति का आलोक पर्व ही है-वेशाख मास और इसमें आने वाली अक्षय तृतीया!