पत्रिका, 22 फरवरी, 2025
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक को लोक का अनुकरण नहीं अनुकीर्तन कहा गया है। माने जो कुछ हुआ है या हो रहा है—उसका कथन। उसकी व्याख्या। यथार्थ को हुबहू व्यंजित किया भी कैसे जा सकता है! नाट्य ही नहीं संगीत, नृत्य, चित्र आदि दूसरी कलाएं भी यथार्थ की प्रस्तुति नहीं उसका संवेदना कहन ही होता है। संवेदना नहीं होगी तो वहां कला नहीं होगी। कलाएं संवेदना, भाव और रस का संयोजन है। एब्सट्रेक्ट या अमूर्त कहां कुछ होता है! जो होता है, उसमें रूप ही बसा होता है।
चित्रकला की ही बात करें, हुबहू का चित्रण तो कैमरा भी कर देता है। फिर कैनवस पर रंग रेखाओं से रूप सृजन की क्या जरूरत! असल में जिसे एब्सट्रेक्ट कहकर यूरोप की कला—देन कहा जाता है, भारत तो आरम्भ से ही इससे जुड़ा रहा है। हमारे यहां कलाएं बाह्य से अधिक आंतरिक दृष्टि की मांग करती है। शुक्रनीति सार में मूर्ति देखने और उससे एकमेक होने के लिए ध्यान के ज्ञान की बात कही गई है। मंदिर में मूर्ति का बाह्य स्वरूप ही कहां होता है! वहां दैवीय स्वरूप होता है जिसे ध्यान से साधा जाता है। कलाएं सिरजे जाने में ही नहीं देखे जाने में भी इसी ध्यान की मांग करती है। एब्सट्रेक्ट या नॉन फिगरेटिव के लिए अमूर्त ठीक शब्द नहीं है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इसके लिए बहुत सुंदर शब्द आया है, "स्वप्रतिष्ठ"। माने किसी कलाकृति मे पूरा यथार्थ नहीं, पूरा दृश्य नहीं उसका भाव—भव, सार—रूप प्रदर्शित किया जाए। रंग और रेखाओं की भाषा में लय की साधना। एब्सट्रेक्ट में क्या होता है? दृश्यों, अनुभूतियों और स्मृतियों का खंड—खंड में अखंड ही तो रचा जाता है। ऐसी कलाकृति जो हमारी संवेदना को निरंतर जगाती है। हर बार अलग अलग अर्थ में देखने को जो आकृष्ट करे, वही एब्सट्रैक्ट या अमूर्त और रूप का स्वप्रतिष्ठ संयोजन है।
चित्रकला के जो छ: भेद बताए गए हैं उनमें सादृश्य के साथ भाव और लावण्य के संयोजन की बात कही गयी है। इनमें वर्णिकाभंग रंगों का वस्तु यथार्थ जगत के हिसाब से भराव है। रंगों की, रेखाओं की उपस्थिति से संवेदनाओं का निरूपण वहां होता है। प्रकृति और जीवन का हुबहू नहीं भावों से, निहित रस से अंकन! लोक और आदिवासी कलाओं की हमारी पूरी की पूरी परम्परा प्रतीक—बिम्बों में आधुनिक कही जाने वाली एब्सट्रेक्ट कला ही तो है। वहां हूबहू की बजाय खड़ी, तिरछी, समतल रेखाओं, पिरामीड, त्रिभुज आदि से, अलंकरणों से, मांडणों से कथा—कहानियों का विरल चित्रण ही तो होता है। पर उसका मूल्यांकन भारतीय दृष्टि से हमने इसीलिए नहीं किया कि हमने समीक्षा की दृष्टि पश्मि से पाई है। जो दृष्टि ही बाहर की है, उसमें अंतर—आलोक की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
जे.जे. स्कूल आफ आर्ट के शिक्षक और ख्यात कलाकार गणेश तरतरे ने भारतीय कलादृष्टि को इधर विरल सांगीतिक अर्थ दिए है। उनकी अपनी रंग—भाषा है, जिसमें दृश्य का मनोरम है। एक रंग दूसरे में घूलकर, कैनवस की तह पर प्रवाहित होकर या फिर कहीं किसी सतह पर ठहर कर उनकी कलाकृतियां अनगिनत आशय के गवाक्ष खोलती हैं। एक साथ कैनवस पर बहुत से रंग वह बरतते हैं, पर औचक किसी रंग का अपना अस्तित्व उभरने लगता है और अनुभूत होता है वहां संगीत की गमक सरीखा अलंकृत कुछ हमने पा लिया है। कोई एक रंग कहीं इतना अधिक प्रवाहमय होता बहा चला जा रहा है कि उसके आलाप में हम अंतर्मन मौन से जुड़ जाते है। औचक वहां दूसरे और तीसरे की रंग—छटा मींड बन हमारी चेतना को उत्सवधर्मी बना देती है। कोई रंग इतना चटख नहीं है कि आप पर हावी हो जाए और कोई इतना हल्का—अलोप भी नहीं है कि उसकी उपस्थिति ही हम खो बैठे। धवल के भीतर भी एक और धवल या कि पीले के भीतर, नीले और हरे रंग के भीतर भी कैसे—कैसे कितने ही वैसे ही और रंग बसते हैं। चित्रों को देखते बहुतेरी बार स्वस्तिक, यज्ञ और उसके धूंए संग पसरी सुगंध हममें समाती है। आकार का यही तो वह निराकार है जिसमें रंग—रूपायित होते अव्यक्त की ढेर सारी अर्थ संभावनाओं से हमें जोड़ते हैं। रंगान्वेषण में अमूर्तन की भारतीय कला—दृष्टि लिये है, तरतरे की कलाकृतियां।
No comments:
Post a Comment