ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 15, 2025

नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति

पत्रिका, 15 नवम्बर 2025

आज जनजातीय गौरव दिवस है। जनतातीय माने जल, जंगल, जमीन और जानवर से जुड़े जीवनाधार का जातीय समूह। जंगलों, पर्वतीय क्षेत्रों में रहनेवाली जाति। आदिम सभ्यता से जुड़ा है यह समुदाय इसलिए आदिवासी भी कहा गया है। अफ्रीका में अभी भी सर्वाधिक यही लोग है। इसके बाद इनकी सर्वाधिक संख्या भारत में है। हमारे यहां संथाल, गौड़, भील, मीणा और मुंडा प्रमुख जनजाती समुदाय है।  झारखंड,मेघालय, नागालैण्ड,दादरा, अरूणाचल नगर हवेली, अंडमाननिकोबाद, लक्ष्यद्वीप आदि में अभी भी अस्सी प्रतिशत बादी इन्हीं की है। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि सभी कलाओं को आधार इस आदिवासी जन ने ही दिया है।

कईं बार कोई उक्ति चल पड़ती है और उसे ही संदर्भित करने कीफिर होड़ मच जाती है। जर्मन दार्शनिक हेगेल के इस कहे को ही देखें, “वास्तुकला सभी कलाओं की मां है।“  मां माने जननी। पर, वास्तु कलाओं की जननी कैसे हो सकती है? यह शब्द संस्कृत के "वस" से आया है। अर्थ है, जहां बसा जाए। निवास या कहें घर। आदिम समुदायों के घर कहां होते थे!  वह जंगलों में खुले आकाश के नीचे रहते थे। घर की संकल्पना तो बहुत बाद में आई। समझ बढ़ी तो मनुष्य ने गुफाओं में आश्रय लिया। उमंग, उल्लास और उत्साह का कुछ घटा तो वह उछल पड़ा होगा! माने नाचने लगा। इसका अर्थ है, नृत्य ही सभी कलाओं की जननी है। बाद में अपनी इस अभिव्यक्ति को उसने गुफाओं में उकेरा तो चित्र प्रकटे। घरों में बसने, वास्तु की प्रक्रिया तो बहुत बाद में अस्तित्व में आई। पर हम प्राय: पश्चिम की आंख से ही सब कुछ देखते रहे हैं, इसी से 'आर्किटेक्ट इज मदर आफ आल आर्ट' चल पड़ा।

यह महज संयोग नहीं है कि आदिम कला के उद्गम नृत्य पर ही इसी 19 नवम्बर को राजस्थान भर में महोत्सव हो रहा है। यह नृत्य है, घूमर। मुझे लगता है, यही एक वह नृत्य हैजो थोड़ेबहुत बदलाव में पूरे भारत में किया जाता है। 'घूमना' शब्द से बना घूमर। राजस्थान में मंथर गति में वृत्ताकार घूमते हुए यह नृत्य करने की परम्परा लगभग सभी स्थानों पर  है। आंध्र प्रदेश का पारंपरिक जनजातीय नृत्य ढिमसा भी घूमर जैसा ही है। ढिमसा का अर्थ हैपैरों की आहट। घूमर की तरह समूह में पैरों की लयबद्ध ध्वनि संग घूमघूम कर यह एक घेरे एक-दूसरे का कंधा या कमर पकड़कर किया जाता है।

राजस्थान का घूमर भी मूलत: आदिवासी समुदाय की ही उपज है। मूलत: यह भीलों का नृत्य है। कालान्तर में इसमें शृंगार तत्व जुड़ते गए। घूमर के सौंदर्य पक्ष से फिर यह जनमन का बनता चला गया। गोल घेरे में घेरदार घूमाव वाले घाघरे में इसमें हाथों के लचकदार संचालन संग गोल चक्कर लगाकर थोड़ा झुककर महिलाएं ताल लेती है।  'म्हारी घूमर छै...', 'घूमर रमवा म्हैं...' आदि बोलों पर प्राय: सवाई यानी अष्टताल कहरवा लगता है।  मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती में थोड़े बहुत अंतर से यह होता है। मारवाड़ का रजपूती घूमर शृंगारिक है। मेवाड़ी घूमर गुजरात से निकटता के कारण गरबा की भांत है।   

घूमर नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति है। बहुत से स्तरों पर शास्त्रीय नृत्यों की प्रेरणा भी। पश्चिम में नृत्य देह के करतब से जुड़ा है जबकि हमारे यहां घूमर और दूसरे सभी नृत्यों में नर्तक देह में रहते हुए भी उससे परे चला जाता है। आत्म का विसर्जन कर देता है। देह पृथ्वी तत्व है, इसलिए नीचे की ओर धंसती है। आत्मा आकाश तत्व है।  ऊपर की ओर उठता है। देह से ऊपर उठने की आकांक्षा ही तो नृत्य है! घूमर नृत्य नहीं भारतीय संस्कृति है। 

बहुत से स्तरों पर शास्त्रीय नृत्यों की प्रेरणा भी। पश्चिम में नृत्य देह के करतब से जुड़ा है जबकि हमारे यहां घूमर और दूसरे सभी नृत्यों में नर्तक देह में रहते हुए भी उससे परे चला जाता है। आत्म का विसर्जन कर देता है। देह पृथ्वी तत्व है, इसलिए नीचे की ओर धंसती है। आत्मा आकाश तत्व है।  ऊपर की ओर उठता है। देह से ऊपर उठने की आकांक्षा ही तो नृत्य है!

No comments:

Post a Comment