ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, January 15, 2022

‘देखने’ से बनता कलाओं का संसार

कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा हमारे यहां शिल्प है। शिल्प माने संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र आदि सभी कलाएं। पर विचार करता हूं, इन सभी कलाओं का मूल आधार ‘देखना’ है। राजा रवि वर्मा भोर में उठते। यह वह समय होता जब अंधकार विदा ले रहा होता और भोर का उजाला छा रहा होता था। कहते हैं, रवि वर्मा ने प्रकृति के उन रंगो को ही अपनी कलाकृतियों में सदा के लिए अंवेर लिया। इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदय शंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गयी। उनकी कला में रमते फिर वह भारत आकर यहां की कलाओं में ही रच—बस जाती है।

याद है, जयपुर के रविंद्र मंच पर कुछ वर्ष पहले पणिक्कर नाट्य समारोह हुआ था। पणिक्कर जी ने तब कहा था, ‘मेरे नाटकों को मन से देखें।' उनका कहा तब समझ नहीं आया था पर एक रोज़ उनका ‘कर्णभार’ नाटक देखा तो इसे जैसे गहरे से अनुभूत किया। पणिक्कर जी के साथ ही तब मंच के करीब बैठा हुआ था। घटोत्कच की भूमिका कर रहे अभिनेता ने पहाड़ उठाने का अभिनय किया। घटोत्कच की भार उठाती मुद्राएं देख एकबारगी तो सिहर उठा। अनुभूत हुआ, कहीं किसी चूक से पहाड़ हम पर न गिर जाए! जबकि असल में वहां पहाड़ था ही नहीं बस उसे उठाने का अभिनय भर था। तभी यह समझ आया कि बड़ा सत्य वह नहीं होता जो दिख रहा होता है, वह होता है जो दिखने के बाद मन में घट रहा होता है। सच्ची कलाएं यही कराती है। आपको उस स्थान पर ले जाती है, जहां आप पहले कभी नहीं गए हों। उस अनुभूति से साक्षात् कराती है जो पहले आपने कभी न की हो। मुझे लगता है, कलाएं इसी तरह देखने का अपना समय गढ़ती है।

राजस्थान पत्रिका, 15 जनवरी, 2022

हरेक कला में छंद, गति, विराम और लय का अपना गुणधर्म होता है। कालिदास के ‘मेघदूत’ को पढेंगे तो लगेगा पृथ्वी की विस्तारमयी छटाओं का विरल लोक जैसे उन्होंने सिरजा है। यह उनका उर्ध्व-आकाशीय देखना ही तो है जिसमें गतिमयता के सूक्ष्म बिम्ब उद्घाटित हुए हैं। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ को याद करें। राजदरबार में वज्रकीर्ति निर्मित वीणा को कोई कलावंत बजा नहीं सका। आखिरकार प्रियंवद आता है और वीणा को गोद में लेकर बैठ जाता है। आंखे मूंद कर वह देखना प्रारम्भ करता है। वृक्ष से वीणा के बनने, वन्य प्राणियों के वहां से गुजरने, सांझ केे तारों की तरल कंपकंपी के स्पर्शहीन झरने आदि के कितने-कितने दृश्य प्रियंवद समाधिस्थ देख लेता है। और फिर जब औचक वीणा से संगीत झरता है तो राजदरबार में बैठा हर सुनने वाला अपनी भावनाओं के अनुरूप उसे मन में देखने लगता है। कलाएं इसी तरह बाहर से व्यक्ति को भीतर से देखने के लिए प्रेरित करती है। बौद्ध दर्शन में यही प्रक्रिया ‘तथता’ है। देखकर ही तो अंतर्मन सच को पाया जा सकता है।

इसीलिए कहता हूं, अनुभूत किए को लिखे गए शब्दों में, उकेरे किसी चित्र में, संगीत के सुरों में यदि मन के किसी दृष्य में उद्घाटित करने की क्षमता नहीं होगी तो वहां कला भी नहीं होगी। चिड़िया गाती है तो उसका कलरव हमें सुहाता है पर यह कला नहीं है। जब अनेक स्वरों में विशेष सांमजस्यपूर्ण ढंग से मन की आंखो से देखते किसी छंद में गूंथ उसे रागिनी में सिरज दिया जाता है, वह कला हो जाएगी। प्रकृति की धुनों को सुनने भर से नहीं, देखने से कला का भव बनता है। स्वाति मुनि ने जलाशय में खिले कमल के पत्तों पर वर्षा की बूंदो के गिरने को देखा। अनुभूत किया कि भिन्न भिन्न प्रकार के बड़े, मध्यम, छोटे पत्तोें पर गिरने वाली वर्षा बूंदों के स्वर गंभीर, मधुर, हृदयस्पर्षी आदि अलग-अलग ध्वनियां में है। उन्होंने इन्हें मन में गुना और मृदंग और अन्य वाद्यों का आविष्कार हो गया। देखे को मन में गुनते ऐसे ही तो सिरजा जाता है, कलाओं का संसार!

3 comments:

  1. बहुत सुंदर, हार्दिक बधाई।

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  2. कला क्या है इस गहराई से अन्वेषण करता हुआ पहला ही आलेख पढ़ा है । सतही स्तर पर बॉस उपमाएँ और अलंकार से ही कला या शिल्प परिभाषित किया जाता रहा है जो की ऊँची दुकान फीका पकवान सा लगता है । लेखन की सार्थकता जब ही है कि पाठक पढ़ने के बाद और पढ़ने के बारे में सोचे । आप का लेखन सार्थक है । बहुत आभार ।

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  3. जी आपने इस गहराई से इसे अनुभूत किया। बहुत आभार।
    आप जैसे सुधि पाठक होना मेरा शौभाग्य हैं।

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