ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, August 27, 2022

साहित्य—कला और पुरातत्व के अन्त:संबंधों के संवाहक-वाकणकर

 शैल चित्र मनुष्य की संभावनाओं का कला—इतिहास है। स्पेन के आल्तामीरा से भी 12 वर्ष पहले भारत में पुराविद् आर्किबोल्ड कार्लाइल ने बहुत से स्थानों पर शैल चित्रों की खोज कर ली थी। पर कला की दृष्टि से सर्वाधिक सुंदर शैल चित्रों की खोज देश में किसी ने की तो वह डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर थे। भोपाल से होशंगाबाद जाते उन्होंने 1957&58 में पर्वतों में गुम भीमबेटका गुफाओं की तलाश की थी। पर उन्होंने यही बड़ा कार्य नहीं किया था। कला इतिहास की भारतीय दृष्टि के और भी महत्वपूर्ण सूत्र हमें दिए हैं। यह विडम्बना ही है कि इस पर बहुत अधिक ध्यान अभी तक नहीं गया है।

डॉ. वाकणकर ने चंबल और नर्मदा के नालों की खोज की। सारनाथ, बनारस, अमरावती, महेश्वर आदि के कला इतिहास का सूक्ष्म अन्वेषण कर मौलिक भारतीय स्थापनाएं दी तो सरस्वती नदी के उद्गगम और प्रवाह मार्ग के साथ देश के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मानचित्र की भी भारतीय दीठ से पुर्नव्याख्या की। स्वयं वह बहुत अच्छे चित्रकार थे। संगीत की उन्हें गहरी समझ थी और नृत्य से जुड़ी भारतीय विरासत से यह उनका सरोकार ही था कि उन्होंने शैल चित्रों के रूपात्मक से भावात्मक सौंदर्य के बहुतेरे अनछुए पहलुओं की ओर भी हमारा ध्यान दिलाया। वह बहुत सारी लिपियों के भी जानकार थे।  जंगलों, पहाड़ों में घूमते उन्होंने चार हजार से अधिक रॉक गुफाओं की खोज ही नहीं की इतिहास के विस्मृत उन पन्नों की भी धूल उतारी जिनमें कलाओं की हमारी मूल दृष्टि कहीं गुम हो रही थी। 

राजस्थान पत्रिका, 27 अगस्त, 2022


सतपुड़ा, विंध्याचल पर्वत शृंखलाओं में शैलचित्रों का जो भव उन्होंने तलाशा उसके साथ प्रागैतिहासिक भारतीय कलाओं का उपेक्षित प्राय: सौन्दर्यान्वेषण भी इस दौरान किया। उन्होंने परम्पराओं और लोक मान्यताओं, पुराकथाओं के संदर्भ टटोलते अपनी खोज को प्रमाणित किया। ब्रिटिश पुरातत्वेताओं के पास उत्खनन के लिए समुचित साधन रहे हैं, सहयोगी रहे हैं परन्तु वाकणकर कला—मन के धुनी थे सो उन्होंने अपनी राह सदा खुद बनाई। पर यह आसान नहीं था। न कोई रास्ता, न कोई संकेत। बस धुन थी। बड़ी—बड़ी चट्टानों पर चढ़ते—उतरते वह आदि मानव द्वारा सिरजी कलाओं तक पहुंच जाते। ऐसे ही ट्रेन में राह चलते एक दफा उन्होंने लोगों को बातचीत करते सुना कि दूर पहाड़ों में भूत—प्रेत रहते हैं। रात में वह प्रकट होते हैं और दिन में चट्टानों में चित्र बन समा जाते हैं। उन्होंने वहीं उतरकर भीमबेटका की गुफाएं ढूंढ निकाली। वह कोट की जेब में कच्चे आलू रखते। भूख लगती तो रेत में भूनकर उन्हें खा लेते।

असल में वाकणकर पुरातत्ववेता भर ही नहीं थे, सौंदर्यबोध और विरल भारतीय कला दृष्टि उनमें थी। यह था तभी तो शैल चित्रों के जरिए उन्होंने भारतीय कलाओं के यथार्थ,उनकी वास्तविक छवि और सौंदर्य की दृष्टि से जुड़े भी महती अध्ययन हमें दिए। मसलन प्रागैतिहासिक चित्रों में बरते रंग] उनमें संगीत, नृत्य और वैदिक भारतीय धर्म—अनुष्ठानों के संदर्भ में उनका वह शोध अभी भी कहां प्रकाश में आया है! जिसके जरिए भारतीय कला—इतिहास को नई दृष्टि मिल सकती है।

डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने प्रागैतिहासिक शैल चित्रों की खोज के साथ प्रागैतिहासिक कला की व्यवस्थित भारतीय दृष्टि हमें दी। अध्ययन, अन्वेषण के साथ चित्रों के विषय—वस्तु एवं कला सौंदर्य का उनका अनुशीलन हमारे सांस्कृतिक इतिहास की और भी बहुत सी खिड़कियां खोलने वाला है। मुझे लगता है, यह वाकणकर ही थे जिन्होंने साहित्य—कला और पुरातत्व के अन्त:संबंधों में अपने अन्वेषण से सनातन भारतीय संस्कृति के बीज अंकुरित किए हैं। प्रयास करेंगे तो इसके और भी मीठे फल हम भविष्य में पा सकते हैं।


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