कलाओं के उद्भव का मूल लोकभावना और सामूहिक चेतना ही है। असल में कला सृजन और उपभोग में भी सामुदायिक भावना ही हमारे यहां प्रधान रही है। आरम्भ में समूह मिल-जुल कर गाता, नाचता था। तब अभिप्रायों (मोटिव्स) में कलाएं मन को गहरे से रंजित करती थी। पर इधर आधुनिकता की आंधी में लोक से जुड़ी कलाओं की हमारी वह दृष्टि लोप प्रायः होती जा रही है। अब संगीत और नृत्य प्रस्तुतियों में तड़क-भड़क और इतना शोरोगुल होता है कि मन न चाहते हुए भी उनमें ही अटक-भटक जाता है। सोचिए, भटका और कहीं अटका मन कभी शांत होता है! पर लोक कलाओं के आलोक में जीवन धन, मन के चैन को हम सहज सहेज सकते हैं।
जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के आमंत्रण पर पिछले दिनों जब ‘लोकरंग 2021’ में जाना हुआ तो मन यही सब-कुछ गुन रहा था। मुक्ताकाश मंच पर देशभर से आए लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से रू-ब-रू होते लगा, मन अवर्णनीय उमंग से जैसे सराबोर हो उठा है। जम्मू-कश्मीर, झारखंड, असम, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के कलाकारों की लोक कलाओं में ही मन जैसे रचने-बसने लगा था। कश्मीर के लोक कलाकारों की लोक नृत्य प्रस्तुत ‘रऊफ’ मन को तरंगित करने वाली थी। ‘रऊफ’ असल में कश्मीर में वसंत ऋतु के जश्न और ईद-उल-फितर की उत्सव व्यंजना है। पंक्तिबद्ध, हाथ में हाथ डालकर महिलाएं पारंपरिक कश्मीरी वेशभूषा में इसे करते जैसे मौसम के रंग में पूरी तरह से रंग जाती है।
जवाहर कला केन्द्र में भी ऐसा ही हुआ। संगीत के साथ होले-होले उठते कदमों की सामुहिक थिरकन में ‘रऊफ’ में बढ़त हुई और औचक जाने-पहचाने बोल ‘बुम्बरो बुम्बरो श्याम रंग बुम्बरो’ जैसी अनुभूति हुई तो चौंका। लगा, लोक कलाकारों ने फिल्म संगीत को लोक में घोला है पर पता चला, मूलतः यह कश्मीर का ही लोक संगीत है, जिस पर राहत इन्दौरी ने गीत लिखा और लोक संगीत को हूबहू संगीतकार शंकर-एहसान-लॉय ने उनके बोलों में ‘मिशन कश्मीर’ फिल्म में सजा दिया। पर लोक कलाकारों की मूल प्रस्तुति इस कदर उम्दा थी कि चाह कर भी मन उसे कहां बिसरा सकता है!झारखंड के लोक कलाकारों की कर्मा नृत्य प्रस्तुति भी कुछ ऐसी ही थी। महिला-पुरूषों का नाचता-गाता समूह! खेती और दूसरे श्रम से जुड़े कार्यों के दौरान सहज नृत्य करते गायन की इस विरल प्रस्तुति में झारखंड का लोक जीवन जैसे गहरे से रूपायित हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में कर्मा लोक मांगलिक नृत्य है। करम पूजा, यानी कार्य करने को ही पूजा मानते वहां के लोगों को सहज थिरकते देख लोक में जैसे आलोक अनुभूत होता है। असम के कलाकारो द्वारा प्रस्तुत ‘बारदोही षिकला’ नृत्य, हरियाणा के लोक कलाकारों के ‘घूमर’ में लोक आस्था का अनूठा उजास था तो झारखंड का ‘षिकारी नृत्य’ आदिवासी जीवन से जुड़े जश्न का जैसे आख्यान था।
राष्ट्रदूत, 30 दिसम्बर 2021 |
ऐसे ही राजस्थान के ‘कालबेलिया’, पंजाब के झुमुर, और होली पर किए जाने वाले शेखावटी अंचल के ‘डफ’ नृत्य के उल्लास में जीवन की सौंधी महक सदा ही अनुभूत होती रही है। असम के ‘झुमुरू’ नृत्य में ड्रम की थाप के साथ थिरकती नृत्यांगनाएं जीवन-संगीत से जैसे साक्षात् कराती है। चाय बागानों में काम करते जीवन की एकरसता तोड़ते वहां यह नृत्य किया जाता है। गुजरात के कलाकारों ने आदिवासी संस्कृति को ‘सिद्धि धमाल’ में अनूठे रंग में जीवंत किया। तेजी से बजते ड्रम और नगाड़े की गूंज में लोक कलाकारों के मुंह से निकलते अजीबो-गरीब बोल और इसके साथ ही उछलते कूदते किए जाने वाले इस नृत्य में गुजरात के कलाकारों की प्रस्तुति तन और मन को झंकृत करने वाली थी। उत्सव में कैसे कलाकार अपने आपको भुलकर गाते-नाचते हैं और ऐसा करते असंभव को भी कैसे सिद्ध किया जाता है, यह नृत्य जैसे इसकी गवाही दे रहा था। अनूठे बोल और संगीत-नृत्य संग देह की अद्भुत हरकतों से रोमांचित करते कलाकारों की यह प्रस्तुति आदिवासी जीवन की छटा का जैसे अनूठा छंद है।