ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, June 15, 2024

दरभंगा घराने की विरासत संजोते उसे समृद्ध करने वाले पं. रामकुमार मलिक

ध्रुवपद के दरभंगा, अमता घराने के पंडित रामकुमार मलिक का निधन ध्रुवपद के एक युग का अवसान है। वह जितने सरल थे उतना ही उनका गान मधुर—सहज था। उनकी लूंठी लयकारी, धैर्यपूर्ण आलाप और फिर उसका विरल विस्तार सुनते मन नहीं भरता।  पिता और गुरु पंडित विदुर मलिक से जो कुछ उन्होंने सीखा, उसमें अपने तई बढ़त करते उन्होंने ध्रुवपद की विरासत को निरंतर समृद्ध—संपन्न किया।  बहुत पहले समित मलिक के साथ गाई उनकी बंदिश 'त्रिवेणी, कालिंदी, सरस्वती...' सुनी थी। स्वरों की जैसे यह छलकती गगरी लगी। प्रयाग में त्रिवेणी को जीवंत करती। विद्यापति के पदों में निहित शृंगार ही नहीं दर्शन को भी जिस तरह से गान में उन्होंने जिया, वह अंदर तक मन को मथता है।

पत्रिका, 15 जून 2024

ध्रुवपद के दरभंगा घराने के संस्थापक पंडित राधाकृष्ण और पंडित कर्ताराम रहे हैं। तानसेन के उत्तराधिकारियों में से एक भूपत खां से उन्होंने ध्रुवपद सीखा। रोचक वाकया है, दरभंगा क्षेत्र में कभी भयंकर अकाल पड़ा था। लोगों ने सुना था कि यह दोनों भाई मेघ-मल्हार गाते हैं तो वर्षा होती है। दरभंगा नरेश से इनको गवाने की गुहार की गयी। दोनों भाइयों ने गाना शुरू किया। घन गरजे और बरसने लगे। तीन घंटे तक लगातार बारिश होती रही। इतना जल बरसा कि पूरा क्षेत्र जलमग्न हो गया। तत्कालीन दरभंगा नरेश महाराज माधव सिंह ने इससे प्रभावित होकर दोनों भाईयों को अमता ग्राम सहित कईं सौ एकड़ जमीन पुरस्कार स्वरूप दी। ब्राह्मण जमीन के मालिक बने। कालान्तर में मालिक शब्द मलिक बन गया। अमता गांव संगीत का बड़ा घराना हो गया। पंडित रामकुमार मलिक इसी घराने की बारहवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे।

विद्यापति माने ज्ञान के अधिपति। उन्होंने जो लिखाशब्द में घुला संगीत ही तो है! विद्यापति के कुछ पदों को जिस तरह से पंडित रामकुमार मलिक ने गाया हैउन्हें सुनेंगे तो लगेगा शास्त्र और लोक में गूंथी गान की मौलिक दृष्टि वहां है। एक पद है, 'बिगलित चिकुर मिलित मुखमंडल..'। जैसे स्वरों की बढ़त में दृश्य की मनोहरी छटाएं यहां है। विद्यापति ने क्या तो खूब लिखा है और पंडित रामकुमार मलिक ने उसे वैसे ही गान में जिया है। पद का अर्थ हैदो मुख-मंडल परस्पर सट गए हैं। शशि को घनमाला ने घेर लिया। कानों के जड़ाऊ कुंडल हिलने लगेतिलक पसीने में बह गया! सुंदरीतुम्हारा मुख मंगलकारी है। किंकिणियाँ बज रही हैं किन-किनकिन-किन... कंगन बज रहे हैं कन-कनकन-कन... घन बज रहे हैं नूपुर। रति-रण में कामदेव ने अपनी हार मान ली है। इन शब्दों में निहित अर्थ खोलते पंडित रामकुमार मलिक अपने गान में होले—होले शृंगार रस के अपूर्व से जैसे साक्षात् कराते हैं। ऐसे ही राग ललित और भैरव में 'नारायण हरि तुम...सुनेंगे तो लगेगा जैसे बहुत जतन से वह स्वरों का महल खड़ा करते हैं।

खंडार वाणी और गौहर वाणी के संयोजन में पंडित रामकुमार मलिक ने स्वरों का सौंदर्य रचा है। राग भीम पलासी में 'शंभु हर गंगाधर...में शिव के महादेवत्व को जैसे हम पा लेते हैं तो ‘ओमहरि ओम अनंत हरि ओम’ का उनका आलाप भी मन में घर करता है। स्वर—शुद्धता के अन्त:उजास में माधुर्य की सहजता को अनुभव करना हो तो पंडित रामकुमार मलिक को सुनें। मन करेगागुनें और बस गुनते ही रहें। उनका निधन स्वर को रंजक और श्रुति मधुर बनाते भावों की गहराई वाले दरभंगा—अमता घराने की ध्रुवपद संगीत—दृष्टि की अपूरणीय क्षति है।


Monday, June 10, 2024

बोल अंग में भावों की गगरी

"...पटियाला घराने को गान में यदि अनुभूत करना हो तो बड़े गुलाम अली खां को सुनें। वह गाते है और मन स्वर शुद्धता के साथ उनकी अनूठी लयकारी मे ही जैसे रमने लगता है। स्वर—उजास में आलाप का उनका माधुर्य इसलिए भी सदा सुहाता रहा है कि वहां बोल अंग में भावों की जैसे गगरी छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने को अपनी गायकी से समृद्ध ही नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों की जो विरल छटाएं उकेरी है, वह भी विरल है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह से दृश्य रूपान्तरण है। अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की अविश्वसनीय गति में 'काली घटा घिर आई सजनी', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी ठुमरियां हो या फिर ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों में भावों का अवर्णनीय रस घुला है..."

दैनिक जागरण, 10 जून 2024

            संगीत में घराना शब्द 'घर' से आया है। असल में यह वह परम्परा है जिसमें किसी स्थान की ख्याति से जुड़ी एक विशेष संगीत शैली का निर्वहन करते हुए कलाकार गान में बढ़त करते रहे हैं। घराना माने विशिष्ट गायकी में आवाज लगाने की एक खास पद्धति। मुझे लगता है, हर घराना स्वरलय के विशिष्ट मिश्रण में गायकी की अपनी एक मौलिक दृष्टि सिरजता रहा है। यह है तभी तो आवाज लगाने के अंदाज भर से पता चल जाता है कि गायकगायिका किस घराने में स्वरों का महल खड़ा कर रहे हैं।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पटियाला घराने का इस रूप में विशेष महत्व है कि इसमें पंजाब के लोक संगीत की मिठास ही नहीं है बल्कि स्वर अलंकरणों की भरमार है, पर सुर की शुद्धता इतनी कठिन भी है कि हर कोई इस घराने में अपने को साध नहीं सकता है। कहने को यह दिल्ली, ग्वालियर, रीवा और जयपुर से प्रेरित और प्रभावित घरान है परन्तु इस घराने में निहित उच्च स्तर की पिच और स्वरों के उतारचढाव का विरल संतुलन हरेक के लिए आसान कहां है!

पटियाला घराने की गायकी की एक बडी विशेषता है, अलहदा फक्कड़पन!  आरंभ में इस घराने के गायक ख्वाजा ग़रीब नवाज़ सूफी गुरु मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रति श्रद्धा में अपने को निवेदित करते रहे हैं। इसीलिए इस घराने की आधुनिकी सूफी संगीत के तत्वों में सम्मिलित दर्शन से आज भी गहरे से जुड़ी है।  मालकौंस जैसे पंचकोणीय रागों के साथ दरबारी कान्हड़ा, रामकली, शुद्ध कल्याण और बागेश्री में इस गायकी में अकार, बोलबंत के साथ गायक प्रकृति और जीवन का जैसे दृश्य रूपान्तरण करते रहे हैं।

पटियाला घराने की पहचान है, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का गान। मुझे लगता है, पटियाला घराने को गान में यदि अनुभूत करना हो तो बड़े गुलाम अली खां को सुनना जरूरी है। वह गाते है तो स्वर शुद्धता के साथ अनूठी और विविधता भरी लयकारी मे ही मन जैसे रमने लगता है। स्वरउजास में आलाप का उनका माधुर्य इसलिए भी सदा सुहाता रहा है कि वहां बोल अंग में भावों की जैसे गगरी छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने को अपनी गायकी से समृद्ध ही नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों की जो विरल छटाएं उकेरी है, वह भी विरल है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह से दृश्य रूपान्तरण है।  भांतभांत के रागों में इस घराने की गायकी में दृश्यगत्यात्मकता की भावसंवेदना को अनुभूत किया जा सकता है। बड़े गुलाम अली खां की आवाज की कोमलता, अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की अविश्वसनीय गति अद्भुत है। 'काली घटा घिर आई सजनी', 'परदेसी बालम', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी ठुमरियां हो या फिर ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों में माधुर्य का अनुष्ठान हो रहा है।

पटियाला घराने की जड़ परम्परा को जीवंत करने का कार्य भी बड़े गुलाम अली खां ने ही किया। उन्होंने इस घराने की कठोरताओं और कोणीयताओं को दूर करते इसमें भावों का रस घोला।

बहरहाल19वीं शताब्दी के मध्य में पटियाला घराने की स्थापना कालू-मिया खान ने की। कालू मियां या काले खां जयपुर दरबार के सारंगी वादक थे। बाद में वह पटियाला महाराजा के दरबारी संगीतकार बने। उनके बेटे अली बख्श खान और उनके करीबी दोस्त फतेह अली खान ने इस घराने को आगे बढ़ाया। यह महज संयोग ही नहीं है कि जब काले खां की मृत्यु हुई तो एक संगीतकार ने  टिप्पणी की कि "काले खां के साथ पटियाला घराने का संगीत भी मर चुका है।" गुलाम अली को यह बात नागवार लगी और उन्होंने संगीत को ही फिर अपना जीवन बना लिया। करियर की शुरुआत भले ही उन्होंने अपने दिवंगत पिता अली बख्श खान और चाचा काले खान की कुछ रचनाओं को गाकर की पर पटियाला घराने को शास्त्रीय शुद्धता के अपने मौलिक अंदाज से उन्होंने ही निखारा, बल्कि अपनी मधुर तानों से, गान के विरल अंदाज से निरंतर समृद्ध भी किया।

Saturday, June 8, 2024

'रंग संवाद' का हबीब तनवीर पर के​न्द्रित अंक

 'रंग संवाद' का नया, पर महती अंक हबीब तनवीर पर के​न्द्रित है। 

संपादक विनय उपाध्याय का आभारी हूं कि उनके आग्रह पर यह लिख सका--

"हबीब तनवीर ने लोक से जुड़ी संवेदना को अपने नाटकों के रूपबंध में गहरे से गुना और बुना है। लोक नाट्यों का ध्येय मनोरंजन प्रायः रहा है, पर हबीब तनवीर के नाटकों को देखेंगे तो यह भी पाएंगे कि उन्होंने अनुभूति की सार्थकता में आधुनिक कथानकों में लोक नाट्यों की सहज संप्रेष्य दृष्टि तो ली है परन्तु उनमें रूप की कलात्मकता में विचार सघनता की मौलिक समझ घोली है। यह शायद इसलिए भी हुआ है कि नाट्य की जो शास्त्रीय परम्परा है, उससे उनके निकट के सरोकार रहे हैं। इसलिए भी कि पश्चिम की नाट्यशैलियों से भी उनका जुड़ाव रहा। उनका समग्र नाट्यकर्म आधुनिक रंग दृष्टि में लोक नाट्यों की परम्परा के सामयिक संदर्भ और उनमें छूटने वाली सधी हुई वास्तु संरचना का अनूठा शोध है।...







Saturday, June 1, 2024

कला, कलाकार और कला—बाजार

 हुरुन रिसर्च इंस्टीट्यूट ने 'इंडिया आर्ट लिस्ट-2024'  जारी की है। इसके अनुसार विश्व बाजार में भारत के प्रमुख कलाकारों की कलाकृतियां 301 करोड़ रुपये में बिकी हैं। कलाकृतियों की बिक्री के यह आंकड़े उत्साह जगाने वाले हैं। पर इसके बरक्स सच यह भी है कि बहुत बेहतर कलाकृतियां सिजने वाले कलाकार की कलाकृति अभी भी करोड़ों क्या हजारो में ही बिक नहीं पाती है।  

राजस्थान पत्रिका, 1 जून 2024

यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि जो कलाकृतियां बिकती हैं
, वह बेहतरीन नहीं होती परन्तु इतना सच अवश्य है कि जो इन्हें खरीदता है, प्राय: वह कलाकृतियों की उत्कृष्टता की कसौटी की बजाय उनमें निवेश की अच्छी संभावनाएं तलाशता है। कला के बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण स्वरूप में कलादीर्घाएं इधर उपभोक्ता और उत्पादक के रूप में जो कार्य करने लगी है! कलाकृतियों में निवेश की बढ़ती प्रवृति ने कला बाजार को तो पंख लगाए हैं परन्तु इससे सृजन सरोकार बाधित भी हुए हैं।

विचारमाध्यम और तकनीक के हो रहे अधुनातन परिवर्तनोंप्रयोगधर्मिताओं की बजाय बाजार यह बताने में ज्यादा रूचि लेता है कि कौनसे कलाकार ने कीमतों का रिकॉर्ड तोड़ा है। हुरुन रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने 2019 में पहले—पहल 'इंडिया आर्ट लिस्टजारी की थी। हर वर्ष जारी इस सूची में बहुत से चेहरे अब तक वही है। कभी कोई पहले स्थान पर होता है तो कभी दूसरातीसरा या दसवां।  जब बड़े-बड़े पूंजीपति,  व्यवसायी और आर्ट गैलरियां ही कला में प्रमुख होंगे तो बाजार मूल्य प्रमुख होगाकलाकार गौण।

किसी जमाने में कला—रसिक उद्यमी कलाकृतियों की उत्कृष्टता आधार पर कलाकारों को आश्रय देते थे।  बद्री विशाल पित्ती को ही लें। वह देश के बड़े व्यवसायी थे परन्तु कला प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने का कार्य भी उन्होंने निरंतर किया। हुसैन ने अपने आरंभिक दौर में उनके आग्रह पर रामायण और महाभारत की कलाकृतियां सिरजी थी। ब्रिटेन की महारानी ने आजादी से पहले अवनीन्द्रनाथ टैगौर की तिष्यरक्षिता कलाकृति देखी और बस देखती ही रह गई। उसने इसे खरीद लिया था। अवनीन्द्रनाथ तब इतने चर्चित नहीं हुए थे पर अपनी कला के कारण उनका बाद में बड़ा स्थान बना। राजा रवि वर्मा ने भारतीय परिवेशमिथकोंपुराणों को आधार बनाकर अर्थगर्भित कथा—चित्र सिरजे तो वे अपनी मौलिक दृष्टि से जगचावे हुए। तब बाजार की बजाय कला में निहित गुण ही उसका मूल्य हुआ करता था। आनंद कुमार स्वामी ने बंगाल के कलाकारों पर जब लिखा तो विश्व भर का ध्यान भारतीय कला पर गया। माने बाजार नहींकला की उत्कृष्टता से कलाकार सदा प्रकाश में आता रहा है।

लोक कलाकार बहुत से स्तरों पर अपनी परम्पराओं संग अभी भी बहुत महती सिरज रहे हैं पर उन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं होती। इसके ठीक उलट लोक कलाओं को बाजार की भाषा में रूपान्तरित कर बाजार की समझ वाले कलाकार लाखों-करोड़ो कमा रहे हैं। बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण में कला जीवन के उपादान रूप में नहीं होकर जिस तरह से बाजार प्रायोजित हो रही हैउससे औचक कला का महत्व बढ़ता हुआ भले हमें लगे परन्तु भविष्य में कला क्या इससे आम जन से निरंतर दूर नहीं होती चली जाएगी!