"...पटियाला घराने को गान में यदि अनुभूत करना हो तो बड़े गुलाम अली खां को सुनें। वह गाते है और मन स्वर शुद्धता के साथ उनकी अनूठी लयकारी मे ही जैसे रमने लगता है। स्वर—उजास में आलाप का उनका माधुर्य इसलिए भी सदा सुहाता रहा है कि वहां बोल अंग में भावों की जैसे गगरी छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने को अपनी गायकी से समृद्ध ही नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों की जो विरल छटाएं उकेरी है, वह भी विरल है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह से दृश्य रूपान्तरण है। अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की अविश्वसनीय गति में 'काली घटा घिर आई सजनी', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी ठुमरियां हो या फिर ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों में भावों का अवर्णनीय रस घुला है..."
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दैनिक जागरण, 10 जून 2024 |
हिन्दुस्तानी
शास्त्रीय संगीत में पटियाला घराने का इस रूप
में विशेष महत्व है कि इसमें
पंजाब के लोक संगीत
की मिठास ही नहीं है
बल्कि स्वर अलंकरणों की भरमार है,
पर सुर की शुद्धता इतनी
कठिन भी है कि
हर कोई इस घराने में
अपने को साध नहीं
सकता है। कहने को यह दिल्ली,
ग्वालियर, रीवा और जयपुर से
प्रेरित और प्रभावित घरान
है परन्तु इस घराने में
निहित उच्च स्तर की पिच और
स्वरों के उतार—चढाव का विरल संतुलन
हरेक के लिए आसान
कहां है!
पटियाला
घराने की गायकी की
एक बडी विशेषता है, अलहदा फक्कड़पन! आरंभ
में इस घराने के
गायक ख्वाजा ग़रीब नवाज़ सूफी गुरु मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रति श्रद्धा
में अपने को निवेदित करते
रहे हैं। इसीलिए इस घराने की
आधुनिकी सूफी संगीत के तत्वों में
सम्मिलित दर्शन से आज भी
गहरे से जुड़ी है। मालकौंस
जैसे पंचकोणीय रागों के साथ दरबारी
कान्हड़ा, रामकली, शुद्ध कल्याण और बागेश्री में
इस गायकी में अकार, बोलबंत के साथ गायक
प्रकृति और जीवन का
जैसे दृश्य रूपान्तरण करते रहे हैं।
पटियाला
घराने की पहचान है,
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का गान। मुझे
लगता है, पटियाला घराने को गान में
यदि अनुभूत करना हो तो बड़े
गुलाम अली खां को सुनना जरूरी
है। वह गाते है
तो स्वर शुद्धता के साथ अनूठी
और विविधता भरी लयकारी मे ही मन
जैसे रमने लगता है। स्वर—उजास में आलाप का उनका माधुर्य
इसलिए भी सदा सुहाता
रहा है कि वहां
बोल अंग में भावों की जैसे गगरी
छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने
को अपनी गायकी से समृद्ध ही
नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों
की जो विरल छटाएं
उकेरी है, वह भी विरल
है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी
लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह
से दृश्य रूपान्तरण है। भांत—भांत
के रागों में इस घराने की
गायकी में दृश्य—गत्यात्मकता की भाव—संवेदना को अनुभूत किया
जा सकता है। बड़े गुलाम अली खां की आवाज की
कोमलता, अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की
अविश्वसनीय गति अद्भुत है। 'काली घटा घिर आई सजनी', 'परदेसी
बालम', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी
ठुमरियां हो या फिर
ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों
में माधुर्य का अनुष्ठान हो
रहा है।
पटियाला
घराने की जड़ परम्परा
को जीवंत करने का कार्य भी
बड़े गुलाम अली खां ने ही किया।
उन्होंने इस घराने की
कठोरताओं और कोणीयताओं को
दूर करते इसमें भावों का रस घोला।
बहरहाल, 19वीं शताब्दी
के मध्य में पटियाला घराने की स्थापना कालू-मिया खान ने की। कालू
मियां या काले खां
जयपुर दरबार के सारंगी वादक
थे। बाद में वह पटियाला महाराजा
के दरबारी संगीतकार बने। उनके बेटे अली बख्श खान और उनके करीबी
दोस्त फतेह अली खान ने इस घराने
को आगे बढ़ाया। यह महज संयोग
ही नहीं है कि जब
काले खां की मृत्यु हुई
तो एक संगीतकार ने टिप्पणी
की कि "काले खां के साथ पटियाला
घराने का संगीत भी
मर चुका है।" गुलाम अली को यह बात
नागवार लगी और उन्होंने संगीत
को ही फिर अपना
जीवन बना लिया। करियर की शुरुआत भले
ही उन्होंने अपने दिवंगत पिता अली बख्श खान और चाचा काले
खान की कुछ रचनाओं
को गाकर की पर पटियाला
घराने को शास्त्रीय शुद्धता
के अपने मौलिक अंदाज से उन्होंने ही
निखारा, बल्कि अपनी मधुर तानों से, गान के विरल अंदाज
से निरंतर समृद्ध भी किया।
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