ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, June 10, 2024

बोल अंग में भावों की गगरी

"...पटियाला घराने को गान में यदि अनुभूत करना हो तो बड़े गुलाम अली खां को सुनें। वह गाते है और मन स्वर शुद्धता के साथ उनकी अनूठी लयकारी मे ही जैसे रमने लगता है। स्वर—उजास में आलाप का उनका माधुर्य इसलिए भी सदा सुहाता रहा है कि वहां बोल अंग में भावों की जैसे गगरी छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने को अपनी गायकी से समृद्ध ही नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों की जो विरल छटाएं उकेरी है, वह भी विरल है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह से दृश्य रूपान्तरण है। अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की अविश्वसनीय गति में 'काली घटा घिर आई सजनी', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी ठुमरियां हो या फिर ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों में भावों का अवर्णनीय रस घुला है..."

दैनिक जागरण, 10 जून 2024

            संगीत में घराना शब्द 'घर' से आया है। असल में यह वह परम्परा है जिसमें किसी स्थान की ख्याति से जुड़ी एक विशेष संगीत शैली का निर्वहन करते हुए कलाकार गान में बढ़त करते रहे हैं। घराना माने विशिष्ट गायकी में आवाज लगाने की एक खास पद्धति। मुझे लगता है, हर घराना स्वरलय के विशिष्ट मिश्रण में गायकी की अपनी एक मौलिक दृष्टि सिरजता रहा है। यह है तभी तो आवाज लगाने के अंदाज भर से पता चल जाता है कि गायकगायिका किस घराने में स्वरों का महल खड़ा कर रहे हैं।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पटियाला घराने का इस रूप में विशेष महत्व है कि इसमें पंजाब के लोक संगीत की मिठास ही नहीं है बल्कि स्वर अलंकरणों की भरमार है, पर सुर की शुद्धता इतनी कठिन भी है कि हर कोई इस घराने में अपने को साध नहीं सकता है। कहने को यह दिल्ली, ग्वालियर, रीवा और जयपुर से प्रेरित और प्रभावित घरान है परन्तु इस घराने में निहित उच्च स्तर की पिच और स्वरों के उतारचढाव का विरल संतुलन हरेक के लिए आसान कहां है!

पटियाला घराने की गायकी की एक बडी विशेषता है, अलहदा फक्कड़पन!  आरंभ में इस घराने के गायक ख्वाजा ग़रीब नवाज़ सूफी गुरु मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रति श्रद्धा में अपने को निवेदित करते रहे हैं। इसीलिए इस घराने की आधुनिकी सूफी संगीत के तत्वों में सम्मिलित दर्शन से आज भी गहरे से जुड़ी है।  मालकौंस जैसे पंचकोणीय रागों के साथ दरबारी कान्हड़ा, रामकली, शुद्ध कल्याण और बागेश्री में इस गायकी में अकार, बोलबंत के साथ गायक प्रकृति और जीवन का जैसे दृश्य रूपान्तरण करते रहे हैं।

पटियाला घराने की पहचान है, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का गान। मुझे लगता है, पटियाला घराने को गान में यदि अनुभूत करना हो तो बड़े गुलाम अली खां को सुनना जरूरी है। वह गाते है तो स्वर शुद्धता के साथ अनूठी और विविधता भरी लयकारी मे ही मन जैसे रमने लगता है। स्वरउजास में आलाप का उनका माधुर्य इसलिए भी सदा सुहाता रहा है कि वहां बोल अंग में भावों की जैसे गगरी छलकती है। मुझे लगता है, बड़े गुलाम अली खां ने पटियाला घराने को अपनी गायकी से समृद्ध ही नहीं किया बल्कि गान के जरिए दृश्यों की जो विरल छटाएं उकेरी है, वह भी विरल है। उन्हें सुनेंगे तो यह भी लगेगा पटियाला घराना संगीत का एक तरह से दृश्य रूपान्तरण है।  भांतभांत के रागों में इस घराने की गायकी में दृश्यगत्यात्मकता की भावसंवेदना को अनुभूत किया जा सकता है। बड़े गुलाम अली खां की आवाज की कोमलता, अप्रत्याशित स्वर-संयोजन और तानों की अविश्वसनीय गति अद्भुत है। 'काली घटा घिर आई सजनी', 'परदेसी बालम', 'तिरछ नजरिया के बाण' जैसी ठुमरियां हो या फिर ईश्वर आराधना में निवेदित स्वर 'महादेव महेश्वर' सुनेंगे तो लगेगा स्वरों में माधुर्य का अनुष्ठान हो रहा है।

पटियाला घराने की जड़ परम्परा को जीवंत करने का कार्य भी बड़े गुलाम अली खां ने ही किया। उन्होंने इस घराने की कठोरताओं और कोणीयताओं को दूर करते इसमें भावों का रस घोला।

बहरहाल19वीं शताब्दी के मध्य में पटियाला घराने की स्थापना कालू-मिया खान ने की। कालू मियां या काले खां जयपुर दरबार के सारंगी वादक थे। बाद में वह पटियाला महाराजा के दरबारी संगीतकार बने। उनके बेटे अली बख्श खान और उनके करीबी दोस्त फतेह अली खान ने इस घराने को आगे बढ़ाया। यह महज संयोग ही नहीं है कि जब काले खां की मृत्यु हुई तो एक संगीतकार ने  टिप्पणी की कि "काले खां के साथ पटियाला घराने का संगीत भी मर चुका है।" गुलाम अली को यह बात नागवार लगी और उन्होंने संगीत को ही फिर अपना जीवन बना लिया। करियर की शुरुआत भले ही उन्होंने अपने दिवंगत पिता अली बख्श खान और चाचा काले खान की कुछ रचनाओं को गाकर की पर पटियाला घराने को शास्त्रीय शुद्धता के अपने मौलिक अंदाज से उन्होंने ही निखारा, बल्कि अपनी मधुर तानों से, गान के विरल अंदाज से निरंतर समृद्ध भी किया।

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