ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, October 5, 2024

शक्ति की आराधना से जुड़ी संस्कृति

 

पत्रिका, 5 अक्टूबर, 2024

भारतीय संस्कृति समग्रता में शिव और शक्ति में समाई है। ​शिव स्रोत हैं, शक्ति गति। शिव निर्गुण, निराकार ब्रह्म है। शक्ति उसकी अभिव्यक्ति। बांग्ला कवि कृत्तिवास रचित रामायण में राम रावण को हराने इन्हीं दिनों शक्ति पूजा करते है। 

बंग्ला में यह नवरात्रा अकाल बोधन है। माने असमय पूजा।  कथा आती है, देवी अम्बिका रावण के साथ थी इसलिए राम उसे हरा नहीं पा रहे थे। राम ने 108 नील-कमल से देवी आराधना प्रारंभ की। राम एक—एक कर फूल चढाने लगे कि देवी ने परीक्षा ली। एक कमल कम पड़ गया। राम को याद आया, उनकी मां उन्हें कमल नयन कहती थी। उन्होंने अपनी आंखे निकाल देवी को भेंट करना चाहा। देवी प्रकट हुईं और उन्हें रावण को मारने की शक्ति प्रदान की।

हमारी संस्कृति इसी तरह शक्ति—रूप में प्रतीक धर्मी है।​ ​शिव देवों के देव महादेव क्यों हैं? इसलिए कि अकेले वह हैं, जिन्होंने शक्ति को अपने समान, बल्कि अपने से भी अधिक सम्मान दिया। भृंगी उनके बहुत बड़े भक्त हुए। शिव को मानते थे, शक्ति को नहीं। एक बार शिव परिक्रमा करने कैलाश गये। देखा, मां पार्वती निकट बैठी है। उन्होंने प्रदक्षिणा करने बीच से गुज़रने की कोशिश की। शक्ति शिव के वामांग पर विराज गई। 

भृंगी ने सर्प रुप धारण कर बीच से निकलने का यत्न किया। शिव अर्द्धनारीश्वर हो गए। दाहिने भाग से पुरुष और बाएं भाग से स्त्रीरूप। भृंगी कहां माने? उसने चूहे रुप में मां पार्वती को विलग करना चाहा। क्रोधित हो मां ने शाप द‍िया। तू मातृशक्ति को नहीं मान रहा। जा इसी समय तेरे शरीर से तेरी माता का अंश अलग हो जाए। तंत्र विज्ञान कहता है, शरीर में हड्डियां और पेशियां पिता से और रक्त-मांस माता से प्राप्त होता है। शाप से भृंगी के शरीर से रक्त और मांस गिरने लगा। अविमुक्त कैलाश में मृत्यु तो हो नहीं सकती थी। असह्य पीड़ा में क्षमा मांगी। शिव—शक्ति ने भृंगी को अपने गणों में प्रमुख स्थान दे तीसरा पैर दिया। इसी से अपने भार को संभाल वह शिव-पार्वती संग चलते हैं। आरती में हम गाते भी तो हैं, नंदी-भृंगी नृत्य करत हैं...।

नवरात्र दुर्गा पर्व है। दुर्गा शब्द भी तो दुर्ग से बना है। माने जिसे जीता नहीं जा सकता। 

भवानी अष्टकम् में आदि शंकराचार्य लिखते है, 'गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।'  माने मां मेरी शरण- गति आप ही हैं। कहते हैं, शंकराचार्य जब कश्मीर पहुंचे तो एक दफा भूख प्यास से शक्तिहीन हो गए। निकट से एक महिला निकली। उन्होंने पानी पिलाने का आग्रह किया। महिला ने कहा, पुत्र पास आकर पी लो। वह बोले, मां मैं शक्तिहीन हूं। मुस्कराते हुए उसने कहा,  शिव को मानते हो तो शक्ति की क्या जरूरत? शंकराचार्य को आदि शक्ति का भान हुआ। उन्होंने वहीं आराधना की। कहा, चराचर जगत को चलाने वाला कोई और नहीं आद्याशक्ति है।

शिव पूर्ण पुरुष है। इसलिए कि वह शक्ति को धारण किए हैं। शक्ति माने प्रकृति। मातृ शक्ति इसीलिए वंदनीय है​ कि वह अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीती है। 

पंडित विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं, नदी ऊंचाइयों का मोह त्याग ढ़लान की ओर बहती है। उसी तरह मां धीरे धीरे अपने पिता, पति से संतान की ओर अभिमुख होती, उसी के सुख के लिए जीती है। इसमें ही अपनी संपूर्ण सार्थकता पाती है। जननी कौन? वही जो जने को प्यार करें। जब तक जननी है—प्यार, नेह का भाव भी बना रहेगा। नवरात्रि नौ ​देवियों की आराधना का नहीं, मातृ—शक्ति के वंदन—अभिंनदन का पर्व है।

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