ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, March 3, 2025

दिक्-काल को संबोधित कला के एक युग का अवसान

हिम्मत शाह का बिछोह दिक्-काल को संबोधित कला के एक युग का अवसान है। इस दौर के वह अप्रतिम कलाकार थे। अंतिम समय तक सक्रिय रहकर कलाओं में रमने वाले, जोड़-तोड़ से दूर अपने एकाकीपन में निरंतर सृजन में सुख तलाशने वाले। कुछ दिन पहले की ही बात है। उनके घर पर लम्बा संवाद हुआ था। दूरदर्शन के कला-केन्द्रित अपने कार्यक्रम ’संवाद’ में बातचीत के लिए उन्हें राजी किया था। वह बार-बार कहते रहे, ’अभी तो सीख रहा हूं। बहुत कुछ करना है। पर आपसे बात करूंगा। ठंडी थोड़ी कम हो जाए। फिर ठीक रहेगा।’ मार्च के प्रथम सप्ताह में बातचीत के लिए वह तैयार हो गए थे। पर यह समय आता उससे पहले ही वह अनंत की यात्रा पर निकल गए। उनसे जब-तब अनौपचारिक लम्बी बातें होती रही है।  एक मासूम बचा उनके भीतर था, जो अभी भी बहुत कुछ और करना चाहता था। इस दुनिया को सर्वथा अलग ढंग से देखना और दिखाना चाहता था। ऐसा कुछ रचने को आतुर जो अब तक किसी ने नहीं रचा है। मुझे लगता है, हिम्मत शाह की यह भीतर की अकुलाहट ही उनके सृजन का मूल थी। हर बार उन्होंने नया सिरजा। याद है, जब वह नब्बे के हुए तो उन्होंने अपनी वर्षगांठ अपने नव निर्मित हो रहे स्टूडियो में मनाई थी। एक दिन पहले ही फोन कर वत्सल आदेश दिया था कि कुछ भी हो उसमें तुम्हे रहना है। दिल्ली से किरण नादर म्यूजियम ऑफ आर्ट की रूबीना, ख्यात कलाकार जी.आर.इरन्ना, अहमदाबाद से उनकी छोटी सगी बहनें भी आई थी। नया स्टूडियो निर्माणाधीन था पर वह नब्बे की वय में भी उत्साह से उसमें काम करने के लिए मचल रहे थे।

अमर उजाला, 3 मार्च 2025
हिम्मत शाह जड़ता से परे थे। उनकी कलाकृतियों में भी कहीं कोई एकरसता नहीं रही। अपने सिरजे मूर्तिषिल्प, रेखांकन और संस्थापन में देखने वालों को सदा ही वह नया कुछ सौंपते रहे। उन्हें कलाकृतियां सिरजते देखने का अनुभव भी अद्भुत था। मूर्तिषिल्प, रेखांकन रचते हुए वह अपने आपको भी भुल जाते थे। ...और कुछ सृजित हो जाता तो इतना उत्साहित हो उठते, उमंग से भर जाते कि बच्चे की तरह उछल-कूद करने लगते थे। कहते, ’षू..कितना अद्भुत हुआ है।’ एक दफा रविवार को घर आ गए। कुमार गंधर्व की सीडी लेकर आए थे। हमने साथ सुनी। सुनते रहे और औचक हिम्मत जी नृत्य करने लगे थे। वह ऐसे ही थे, मन से निर्मल। निष्छल। कोविड के समय पूरा विष्व थम गया था, पर वह रेखांकन कर रहे थे। तीन सौ के करीब उन्होंने तब कलाकृतियांे सिरजी। बाद में नई दिल्ली स्थित बीकानेर हाऊस और आर्ट मैग्नम में ‘अंडर द मास्क’ शृंखला से चयनित कुछ कलाकृतियों प्रदर्षित हुई। रघुराय उनके करीबी रहे हैं। उन्होंने हिम्मतषाह की कला-साधना में रत भांत-भांत की छवियों को ’थ्रू द लेंस ऑफ हिम्मतषाह’ में संजोया है। उन्होंने कहा भी है, हिम्मत शाह की कलात्मक यात्रा को देखना और सहेजना मेरे अनुभवों की विरासत है।’ 

हिम्मतषाह दस वर्ष की वय में सृजन से जुड़ गए थे। जैन व्यापारी परिवार से वह आते थे पर परिवार के व्यवसाय में उनका मन नहीं रमा और जेजे स्कूल ऑफ आर्ट, बॉम्बे और फिर एमएस यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में उन्होंने अध्ययन किया। वर्ष 1967 में फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर दो साल के लिए पेरिस गए। वहां एटलियर 17 में प्रिंटमेकर एसडब्ल्यू हेटर और कृष्णा रेड्डी के अधीन अध्ययन किया। हमारे यहां इन्स्टॉलेषन का दौर बहुत बाद में आया। हिम्मत शाह ने पचास के दषक में ही ’बर्न पेपर कोलाज’ जैसा महती इन्स्टॉलेषन किया था। कला में नया कुछ तलाषने के लिए कभी वह राजस्थान के गांव-गांव घूमे थे। इस भ्रमण से उन्होंने ’होमेज टू राजस्थान’ शृंखला सिरजी, जिसे बाद में इब्राहिम अल्का जी ने खरीद लिया था। वास्तुशिल्प भित्ति चित्र, चित्र और टेराकोटा और कांस्य में अमूर्तन का इतिहास रचा। मिट्टी की मूर्तियों में उभार, बल और रस्सी जैसे रूपाकारों में उनका टैक्सचर विरल है। अपने सृजन के काम आने वाले, मूर्ति तराशने, आकार देने और ढालने के लिए कई तरह के हाथ के औजारों, ब्रश और उपकरणों को उन्होंने खुद ईजाद किया। कईं बार इन उपकरणों को देख उनसे पूछता तो वह कहते, मैंने कुछ न्हीं किया, अपने आप ही बन गए। सीमेंट और कंक्रीट में भित्ति चित्र भी उन्होंने निरंतर सिरजे। वह ग्रुप 1890 के संस्थापक सदस्य थे। साठ के दषक में हिम्मतषाह, राघव कनेरिया, एम.रेड्डीप्पा नायडू, अंबादास, राजेश मेहरा, गुलाम मोहम्मद शेख , जगदीश स्वामीनाथन, जेराम पटेल, एसजी निकम, एरिक बोवेन , ज्योति भट्ट और बालकृष्ण पटेल ने साथ मिलकरयह कला-समूह बनाया था। इस समूह की प्रदर्षनी पर तत्कालीन मैक्सिकन राजदूत और सुप्रसिद्ध कवि ऑक्टेवियो पाज ने ’सराउंडेड बाय इनफिनिटी’ शीर्षक से लिखा कि यह प्रदर्शनी नए समय का एक संकेत है, एक ऐसा समय जो आलोचना के साथ-साथ सृजन का भी होगा। इन कलाकारों के साथ कुछ अनमोल पैदा हो रहा है।’

यह समूह तो बाद में बिखर गया परन्तु हिम्मतषाह ने अनमोल रचना-कर्म उम्रपर्यन्त जारी रखा। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अपने समय के महती कवियों ने उनकी सिरजी कलाकृतियों पर अपने दौर में कविताएं लिखी। एक सप्ताह पहले जब उनका फोन आया तो भविष्य की ढेर सारी योजनाआंे के बारे में वह बताने लगे थे। कहने लगे, ’स्टील आई एम यंग।’ बहुत उत्साह से उन्होंने तब नए षिल्प पर किए जा रहे अपने कार्य को दिखाया था। इसे उन्होंने शीर्षक दिया-’एंटायर द सिटी’। मिट्टी में सिरजे सूक्ष्म षिल्प। मुझे लगा यह शहरों में बसते और दूसरे शहरों की गाथा है। 

वह किसी एक माध्यम से कभी जुड़कर नहीं रहे। चित्रकृति बनायी है तो किसी खास विषय, विचार को उसमें संप्रेषित नहीं करते हुए वह उसमें सदा कुछ नये की तलाश करते रहे हैं और मूर्तिषिल्प सिरजे हैं तो वह भी पारम्परिक आकारोें की ऐकमेकता से मुक्त रहे हैं। उनकी सामग्री, माध्यम और तकनीक निरंतर बदलती रही है। पहले पहल उन्होंने जब चित्रकृतियों का सृजन किया तो उनमें देखने वालों ने मूर्तिशिल्प की तलाश की और बाद में जब उन्होंने बड़े-बड़े रिलीफ बनाए तो उसमें ड्राइंग को ढूंढा गया। ठीक-ठीक बाद के उनके स्क्ल्पचर में भी रेखाओं, ग्राफिक्स और कला का बहुत कुछ ऐसा तलाशा गया जो अभी तक अव्याख्यायित ही है। उनकी पेंटिंग, उनके मूर्तिशिल्प में बेहद सूक्ष्म अनुभव प्रतीतियां हैं। भले इन्हें कला की किसी खास परम्परा और शैली के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता परन्तु हिम्मत शाह ने जो किया, वह कला में सर्वथा अद्भुत, अपूर्व रहा है। खंड खंड अखंड उन्होंने रचा।

जे. स्वामीनाथन ने हिम्मतशाह के बारे में कभी लिखा था, ‘...मानो कोई सौम्य जादूगर अचानक हमारे कपड़े गायब कर दे ताकि हमें अहसास हो सके कि कपड़ों के नीचे हम सभी नंगे हैं और बेलौस कांपते हुए खड़े हों हम...कि मुस्कराता हुआ हिम्मत वहां मौजूद है और हमें हमारी सौम्यता खतरे में नहीं है का विश्वास दिला रहा है।’ स्वामीनाथन के इस कहे के साथ मैं यह और जोड़ देता हूं कि कला के इस दौर में जब रचनात्मकता के स्तर पर नये कुछ की जगह सब जगह एक सा मूर्त-अमूर्त काम दिखाई दे रहा है, हिम्मतशाह के आशयहीन रूपाकार कला में अभी बची अनंत रचनात्मकता के प्रति विश्वास दिलाते हैं। 

अंतिम बार जब मिला तो तरोताजा लग रहे थे। अपने स्टूडियों में ही रूकने का आग्रह कर रहे थे। अपनी स्मृतियां के संसार में ले जाते वह बार-बार कह रहे थे, ’मैंने सबको छोड़ दिया। अपने को  ढूंढने के लिए सबको छोड़ना पड़ेगा।’ हिम्मत जी ने हमें छोड़ दिया। अपने आपको तलाषने इतनी दूर चले गए है कि हम उनसे बहुत पीछे छूट गए हैं। विदा, हिम्मत जी। नमन!



भारतीय कला की वैश्विक पहचान थे हिम्मत शाह


विदेश में आज भी भारतीय कलाओं की पहचान अमृता शेरगिल, हुसैन, रजा के साथ जिस प्रमुख कलाकार से जुड़ी है, वह हिम्मत शाह थे। मूलतः वह गुजरात के थे। पर पिछले कोई 25 सालों से वह यहीं, राजस्थान आकर बस गए थे। राजस्थान बसने के पीछे भी संभवत: 1989 में की गई उनकी यहां की वह यात्रा ही थी जिसमें उन्होंने गांव—गांव, ढाणी ढाणी घूमकर लोक कलाओं, आदिवासी और जन जातीय कलाओं से निकटता स्थापित की। राजस्थान यात्रा के इन अनुभवों को बाद में उन्होंने माटी शिल्प शृंखला 'होमेज टू राजस्थान' में रूपायित किया। इब्राहिम अल्काजी को यह इतनी भायी कि उन्होंने इन कलाकृतियों की प्रदर्शनी की, इन्हें खरीद लिया। हिम्मत जी को भी राजस्थान इतना पसंद आया कि वह यहीं जयपुर आकर बस गए। इस दौरान उनसे निकट का नाता स्थापित हुआ जो अंतिम समय तक कायम रहा। हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भवन जब बन रहा था तो इसके तत्कालीन कुलपति ओम थानवी जी चाहते थे, नव निर्मित भवन में हिम्मत शाह का शिल्प भी हो। ओमजी के आग्रह पर तब हिम्मत जी से मिलाने उन्हें उनके घर ले गया था। पर बात बनी नहीं। ठहरकर, कहीं कोई सुनियोजित वह नहीं करते थे। जो उन्होंने सिरजा अप्रत्याशित, अपनी मर्जी से और जब चाहा तभी सिरजा।

पत्रिका, 3 मार्च 2025

ललित कला अकादेमी की पत्रिका 'समकालीन कला' का जब अतिथि सम्पादक बना तो आवरण कलाकृति हिम्मत शाह की ही प्रकाशित की। बाद में राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी से मेरी पुस्तक 'भारतीय कला' प्रकाशित हुई तो हिम्मत जी को मौजूद रहने को कहा। वह आए और मेरी कला पर बोले भी। जब वह 90 की उम्र के हुए तो एक सांझ उनका फोन आया। आदेशात्मक स्वर था, 'कल मेरी वर्षगांठ है। नया स्टूडियो बनवा रहा हूं। आपको आना ही है।' अचरज हुआ! इस उम्र में व्यक्ति घर बनाने से, निर्माण कार्य से निवृत होता है और हिम्मत शाह जो थे, कला का नया वास बनाने जा रहे थे। दिल्ली से किरण नादर म्यूजियम ऑफ आर्ट की रुबीना और मशहूर कलाकार इरन्ना आए हुए थे। नये बन रहे स्कल्पचर स्टूडियो में ले जाते वहां काम की भावी योजनाएं उन्होंने बताई। उन्होंने कहा, 'स्टील आई एम यंग।' वह एक आर्ट कॉलेज खोलना चाहते थे जिसमें बच्चों को याद करना नहीं भुलना सिखाया जाए। अक्सर संवाद में वह कहते, ' जिसने पक्षी को उड़ते नहीं देखा, वह हवाई जहाज के बारे में नहीं सोच सकता। बस देखो, सोचो मत।' उनके पास कला की अदम्य ऊर्जा थी। बानवे वर्ष की उम्र में भी नित नए माध्यमों में उन्हें काम करते देखता। वह मूर्ति में में रेखांकन करते रूपाकारों के भीतर की खोज करते। रूपाकारों में टैक्सचर, स्थापत्य और शिल्प को उन्होंने साधा। कभी उन्होंने यौन प्रसंगों से संबंधित रेखाकृतियों बनायी। पर जल्द ही वह इनसे मुक्त हो गए। उनके हैड्स विश्वभर में सराहे गए। पारम्परिक भारतीय स्थापत्य, पश्चिम की कला के साथ ही लोककलाओं की बहुतेरी छवियों की छटाएं उनकी कलाओं में सदा ही अनुभूत की। कोविड के दौर में उन्होंने 'अण्डर द मास्क' शृंखला से रेखांकन किए। संस्थापन कला के अंतर्गत 'बर्न पेपर कॉलाज' तो पचास के दशक में ही उन्होंने कर दिया था। टेराकोटा, कांस्य, सिरेमिक, संगमरमर, पेपर मैशी, लकड़ी जैसे माध्यमों में भी उन्होंने शिल्प सिरजे। अंत तक सिरजते रहे। 

उनके भीतर एक मासूम बच्चा बसा हुआ था। कोई दो माह पहले घर आ गए। घंटो बातचीत करते रहे। कलाओं पर और उससे इतर साहित्य, संगीत, नृत्य पर भी। इधर बार—बार उनका फोन आता आता और अपने नए स्टूडियो में बुलाते। उनका मन था, नए स्टूडियों में ही शहर से दूर उनके साथ दो—तीन दिन रहता। ढेर सारे उनके अनुभव सुनता। पर यह संभव नहीं हो पाया। पर, एक सप्ताह पहले उनके आग्रह पर घर गया था तब घंटो बैठ बातें हुई। उन्होंने तभी 'नाइन्टी एण्ड आफ्टर' और 'हिम्मत शाह : इनोसेंस एण्ड क्रिएटिविटी' दो पुस्तकें भेंट की थी। कहा, तुम्हारा 'पत्रिका' में प्रकाशित कॉलम निरंतर पढ़ता हूं। अच्छा लगता है।  'नाइन्टी एण्ड आफ्टर' पुस्तक पर उन्होंने लिखकर दिया, 'विद लव : हि इज ए वन आफ बेस्ट राईटर आन आर्ट'। अनायास ही बहुत बड़ा पुरस्कार उन्होंने प्रदान कर दिया था। वह नहीं है, पर कला में और सृजन में अपने आपको भुलकर सिरजने की उनकी सीख रह—रह कर स्मृति में कौंध रही है। उनका होना हिम्मत देता था। यह भारतीय कला की एक सशक्त कड़ी से बिछुड़ना है। नमन, हिम्मत जी। नमन!