ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

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Monday, March 24, 2025

बिरजू महाराज रचा शोध आख्यान 'कथक दिग्दर्शन'

पत्रिका, 22 मार्च 2025

बिरजू महाराज नृत्य सम्राट ही नहीं थे, कलाओं के अंतः संबंधों के संवाहक थे। वह कथक नृत्य सिद्ध थे। संवेदनशील कवि और चित्रकार थे और चिंतन—मनन से जुड़े विरल संगीतज्ञ भी थे। संस्कृति मंत्रालय ने उन्हें कथक पर शोध के लिए "टैगोर राष्ट्रीय फैलोशिप" प्रदान की थी। संगीत नाटक अकादमी ने इसी माह उनके इस शोध कार्य को "कथक दिग्दर्शन" पुस्तकाकार में प्रकाशित किया है। यह बिरजू महाराज का शोध आख्यान नहीं, कथक के आलोक में रची उनकी आपबीती है। इसमें उनकी दुर्लभ छवियां हैं, उनके सिरजे चित्रों की सुंदर सृष्टि है और है, उनकी विरल कला दृष्टि। 

"कथक दिग्दर्शन" पुस्तक बताती है कि बिरजू महाराज का असल नाम दु:खहरण नाथ मिश्रा था। उनकी अम्मा उन्हें इसी नाम से बुलाती थी। बाद में वह बृज मोहन नाथ मिश्रा और अंतत: बिरजू महाराज से जाने गए। यह पुस्तक और भी बहुत अनछूए पहलू हमारे सामने लाती है। मसलन पुराने जमाने में कथक में वंदना केवल गाकर होती थी, पर यह बिरजू महाराज थे जिन्होने वंदना को नृत्य संरचना में ढाला। बिरजू महाराज ने कथक को 'अंग काव्य' के जरिए नई भाषा भी दी। अमूर्त नृत्त हस्तकों के नामकरण किए। कथक में छंद काव्य की पहल कर उसे सांगीतिक रूप में समृद्ध किया।

'कथक दिग्दर्शन' बिरजू महाराज का अनुभव संचित ज्ञान है। यह बताती है कि कैसे कथक कथा वाचन से आधुनिक युग तक पहुंचा।  कैसे तरानों, सरगम, गज़लों पर इसमें नृत्य आरंभ हुआ। बिरजू महाराज लिखते हैं, 'दरबारी काल में कथक लोगों द्वारा तिरस्कृत हुआ। विलासिता का साधन समझा जाने लगा पर यह भी सच है और वास्तविकता भी कि दरबारी कथक नवीन विचारों से समृद्ध और अलंकृत भी हुआ।'

बिरजू महाराज के जीवन पर जाते है तो अचरज होता है कि कैसे कोई कला की गहराई में डूब—डूब अपने को विसर्जित कर देता है। वह लिखते हैं, 'लय ताल की एक धुन होती है। यह लगी रहनी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु अपने लिए गाते बजाते थे, उसी तरह मैं भी अपनी धुन में, अपने लिए नृत्य करता। केवल दूसरों को खुश करने के लिए नहीं।' अपने अनुभवों में उन्होंने नृत्य कलाकारों को सीख दी है कि 'कला की गहराई में जाएं और समझ कर आनंद लें। मैंने बहुत चिंतन—मनन के बाद प्रकृति के तत्वों को मंच पर प्रस्तुत किया।' उनके इस कहे के आलोक में विचारेंगे तो यह भी पाएंगे नृत्य गति का आख्यान है। वहां अपने आत्म का ही नहीं देह का भी कलाकार जब विसर्जन कर देता है तब कहीं अपूर्व घटता है। बिरजू महाराज ने ऐसा ही तो किया था। उनके नृत्य में कहन की जीवंतता और स्वर-पद-ताल का समवाय ऐसा होता था जिसमें नर्तक-दर्शक का भेद मिट जाता था। 

बिरजू महाराज नर्तक ही नहीं थे, बहुत मीठा गाते भी थे। कलाओं की उनकी उपमाएं भी तो आकाश रचती थी। जरा उनकी सूक्ष्म सूझ से जुड़ी उपमाएं देखें, ‘तबला और घूंघरू नायक-नायिका है।’, ‘जुगलबंदी और कुछ नहीं है, लुकाछुपी  और छेड़खानी, प्यार भरी अठखेलियों का खेल या कहें मेल है।’ ‘नृत्य में ‘तत्कार’ चरम गूंज है। सृष्टि का अनंतनाद! ’ 

'कथक दिग्दर्शन' पढेंगे तो कथक ही नहीं कलाओं की गहरी समझ से भी हम औचक साक्षात होने लगते है। सरकारी प्रकाशनों की अपनी सीमाएं होती है, पर यह सुखद है कि संगीत नाटक अकादमी ने 'कथक दिग्दर्शन' को बहुत जतन से सुंदर—सधे रूप में प्रकाशित किया है। पढ़ते हुए बार—बार यह खयाल भी आता रहा कि शोध फैलोशिप में एक बड़ा हिस्सा कलाकारों का ही होना चाहिए। वे अपने कला—अनुभव इसके जरिए साझा करें। जीते जी किंवदंती बने कलाकारों का जीवन आलोक यदि बजरिए इस तरह की शोध फैलोशिप से सार्वजनिक सुलभ होता है तो इससे बड़ी उसकी सार्थकता और क्या होगी! प्राय: होता यह भी है कि किसी कलाकार की जीवनी कोई दूसरा लिखता है तो उसे इतना अलौकिक, अद्भुत कर देता हैं कि कला और कलाकार की वास्तविकताएं गौण हो जाती है। इस दृष्टि से यह पहल स्तुत्य है। क्या ही अच्छा हो, इस तरह की पहल दूसरे कला—क्षेत्रों में भी हो।


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