ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, August 24, 2025

एब्स्ट्रेक्ट आर्ट

पत्रिका, 23 अगस्त 2025

कुछ दिन पहले एक मित्र ने एब्स्ट्रेक्ट चित्र पर लिखे को पढ़कर टिप्पणी करते हुए कहा कि आप यह कैसे जान लेते हैं की यह जो चित्र बना हुआ है, उसमें इमारतें हैं, मनुष्य हैं और उसकी संवेदनाएं हैं। कैसे आप जान लेते है कि कलाकार सृजन में मानवीय मूल्यों को जी रहा हैं।  अब उसको यह कैसे जवाब देता कि कलाएं ध्यान का ज्ञान है। सिरजने वाले के लिए और उसका आस्वाद करने वाले के लिए भी। 

एब्सट्रेक्ट क्या है? समग्र के अंशों का उद्घाटन ही तो! यह मनोविज्ञान है। कलाकार बहुत कुछ देखता है, अनुभूत करता है। देखे और अनभुत को हूबहू नहीं उकेरकर सार में दृश्य का अपूर्व रचता है। यह  खंडखंड में अखंड होता है। एब्सट्रेक्ट का एक अर्थ हम करते हैअमूर्त। पर सोचिए, एब्सट्रेक्ट चित्र क्या अमूर्त होता है? कोई मूरत, रूप तो वहां होता ही है। भले वह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में बहुत सुंदरशब्द सौंपा हैस्वयंप्रतिष्ठ। आकार में और बहुत से आकार, अर्थ में अनेकार्थ स्वयं प्रतिष्ठ ही तो है।

सुप्रसिद्ध दार्शनिक मानवेन्द्रनाथ राय एब्सट्रेक्ट को "जेस्टाल्ट प्रोसेस" कहते हैं। इसमें वस्तुगत जगत को समझने के लिए एक आकार हम बना लेते हैं और फिर उसके आधार पर चीजों को उसके आवरण में हम देखते हैं। यह सब मन की प्रक्रिया है। दीवार में हम कोई धब्बा महसूस करते हैं और फिर इनको मिलाकर घोड़ा, ऊंट बना लेते हैं। आकाश में उमड़तेघुमड़ते बादलों को देखते हैं और उससे बहुत से और आकारों की कल्पना करने लगते हैं। हबीब तनवीर ने चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए श्याम बेनेगल के आग्रह पर सुप्रसिद्ध लोक कथा 'चरणदास चोर' की स्क्रिप्ट लिखी। याद करें,  कहानी के अंत को कलात्मक करते शब्द ध्वनित होते हैं, 'बच्चों यह जो बादल आप देख रहे हैं वह चरणदास है। और यह बादल यमराज का भैंसा।' आनंद कुमार स्वामी इसी को ट्रांसफॉर्मेशन कहते हैं।

कलाओं में एब्सट्रेक्ट का अर्थ है, बंधेबंधाए रूप से स्वतंत्रता। विचार करें, शासन के निर्देशन में कलाएं जनमन की नहीं बनती। पहले से प्रकट रूपों की एकरसता वहां होती है। क्यो? इसलिए कि उनमें ऐसा या वैसा बनाने का आग्रह- आदेश जुड़ा होता है। मनुष्य कम से कम शासन पसन्द  करता है। मौलिक सृजन में शासन ही सबसे बड़ी बाधा है। यह अधिक से अधिक होगा तो व्यक्ति की महिमा ही गौण नहीं होगी, कलाएं भी बेरंग, रसहीन होंगी।

अज्ञेय की जापानी लोक कथा आधारित बहुत प्यारी कविता है, 'असाध्य वीणा' राजदरबार में एक वीणा रखी है। कोई भी कलावंत उसे बजा नहीं सका। एक रोज़ केशकम्बली प्रियंवद आता है। वह वीणा को गोद में लेकर बैठ जाता है। ध्यान करता है, वीणा किस पेड़ की लकड़ी से बनी है। उस पेड़ पर कितनेकितने पक्षियों ने बसेरा किया होगा। कितने पशु उसके नीचे से निकले होंगें। कितने हाथियों ने पेड़ के तने से अपनी सूंड को खुजाया होगा! और भी बहुत सी चीजों के ध्यान की यह साधना है। औचक वीणा बज उठती है। दरबार में सब अपने अपने भाव में उसके माधुर्य को ग्रहण करते हैं। अपने मन के अर्थ को उसमें तलाश लेते हैं। यही है, "सब कुछ की तथता" कला में वस्तु जगत के साथ, व्यक्ति के साथ, समाज के साथ तादात्म्य स्थापित करने की यही साधना क्या एबस्ट्रेक्ट कला नहीं है! इसे देखनेसमझने, सिरजने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। इसीलिए कहूं, कलाएं और साहित्य पोथियों का ज्ञान नहीं हैं। हृदय का ज्ञान है। कला और जीवन के इस एब्सट्रेक्ट में ही अर्थगर्भित छटाएं है, शब्द में शब्द झरते हैं। अनुभूतियां गाती है।


Tuesday, August 19, 2025

दृश्य—छटाओं का अनुकीर्तन

छायांकन दृश्यबंध कला है। एक दृश्य में और भी अनदेखे बहुत से दृश्यों को उद्घाटित करने की कला।  कैमरा वहां प्रमुख नहीं होता, उससे दृश्य सिरजने वाला  महत्वपूर्ण होता है। यह यथार्थ का  कलान्वेषण है। कैमरा बरतने वाला यदि कलामन का होगा तो वह देखेअदेखे की लय, गति और यति (ठहराव) को भी सौंदर्य प्रदान कर देगा। 

विश्व छायांकन दिवस फोटोग्राफी से जुड़ी कला, इसके विज्ञान और इतिहास से ही नहीं जुड़ा है, यह इसमें निहित शिल्प का समर्पण है। कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा शिल्प कही गयी है।  शिल्प माने संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र औरतमाम दूसरी कलाएं। शिल्प का अर्थ ही है, गढ़ना। सृजन के उत्स संग कौशल। छायांकन कला छवि में निहित सुंदरअसुंदर का भावभव है।  सुप्रसिद्ध यूनानी कवि होमर ने कभी कहा था, जो अभिनव है वही सुन्दर है। छायांकन कला का सच भी यही है। मानव मन की संवेदनाओं, छायाप्रकाश संयोजन और एक ही दृश्य में बहुत सा और भी जब चाहे आप वहां तलाश सकते हैं। अच्छा छायाचित्र वही होता है जिसे देखकर फिर से देखने का मन करे।  छायांकन ही क्यों, दूसरी सभी कलाओं संग भी यही होता है। कुछ सुना और बारबार सुनने का मन करे, नृत्य की कोई भंगिमा देखी और फिर से देखने को उत्सुक हों, कलाकृति को निहारा और फिर से उसके रंगों की लय में मन भटकेसमझ लें वह अनुकरण नहीं अनुकीर्तन है। माने गुणगान

पत्रिका, 19 अगस्त 2025

चीजें स्थिर रहें, मौन रहें तो उदासी पसरती है। पर छायांकन सन्नाटे का छंद है।  जर्मनी के ज्योतिर्विद और वैज्ञानिक जॉन हर्शेल ने 1839 ईस्वी में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में पहले पहल फोटोग्राफी शब्द का इस्तेमाल किया था। इससे पहले 1826 में फ्रांसीसी आविष्कर्ता निप्से ने विश्व का पहला फोटोग्राफ लिया। इसे देखकर पेरिस में चित्रकार प्राध्यापक पॉल देला रोष ने कहा था कि चित्रकला आज से मर गयी है। पर आज   फोटोग्राफी  चित्रकला को समृद्ध कर रही है।  मुझे लगता है, दृश्य को पकड़ते बहुतेरी बार छायाकार उस निःसंग को भी पकड़ता है जिसमें मौन भी हमसे बतियाता है। इसीलिए कहा जाता है, हजारों-हजार शब्दों में जो नहीं कहा जा सकता वह एक छायाचित्र कह देता है। छायांकन और दूसरी सभी कलाएं प्रकृति का रूपान्तरण है। वहां एकरसता नहीं है। एकरसता ऊब पैदा करती छायांकन में आकाश का नीला सुहाता है। पर आकाश नीला कहां होता है! सूर्य के प्रकाश में बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला नारंगी और लाल रंग घुला होता है। यह उजास जब वायुमंडल में प्रवेश करता है, तो विभिन्न गैसों और धूल-कणों से टकराता है। रेले स्कैटरिंग प्रभाव से नीला और बैंगनी रंग तब अधिक बिखरता हैं। लाल और नारंगी कम। प्रकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी में चूंकि हमारी आँख नीले के प्रति अधिक संवेदनशील होती है। सो हमें आकाश नीला दिखता है। सूर्य किरणों को उदय या अस्त होने के समय चूंकि पृथ्वी तक पहुंचने में अधिक दूरी तय करनी पड़ती है, इसमें नीला और बैंगनी पूरी तरह बिखर जाता हैं और केवल लाल, नारंगी और पीला ही आँखों तक पहुँच पाता हैं। इसीलिए सूर्योदय और सूर्यास्त में आकाश बहुतेरी बार सिंदूरी अनुभूत होता है। छायांकन कला दृश्य में निहित रंगों का पुनराविष्कार करती है। कैमरे में जो लेंस लगे होते हैं वह दृश्य में निहित रंगों में सुधार कर हमें परोसते हैं। माने वहां वस्तु, किसी मुद्रा में निहित प्रकाश कमज्यादा है तो उसे नियंत्रित कर इच्छित परिणाम ले सकते है। यही छायांकन की कलासाधना है।

राजा रवि वर्मा प्रातः चार बजे उठते और चित्र बनाते। क्यो? इसलिए कि तब भोर का उजास छा रहा होता और रात्रि के अंधकार का गमन हो रहा होता है। प्रकृति के इन रंगों की अनुभूति उन्होंने चित्रों में संजो ली। छायांकन में भी तो यही होता है! वहां समय ध्वनित होता हममें बसता है। वामन ठाकरे बड़े चित्रकार हुए पर चुना उन्होंने फोटोग्राफी को। कहते हैं, पूर्व राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद का चेहरा फोटोजेनिक नहीं था। वह चाहते थे उनका ऐसा फोटो निकले जो सुंदर हो। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ख्यातनाम छायाकारों ने प्रयास किया पर पार नहीं पड़ी। अंतत: वामन ठाकरे को याद आये। वह पहुंचे और जो लोग राष्ट्रपति से मिलने रहे थे, उनके साथ बतियाते उन्हें देखते रहे।  लम्बा समय बीत गया। राष्ट्रपति ने कहा 'तुम फोटो क्यों नहीं ले रहे हो?' ठाकरे ने कहा, 'वही तो कर रहा हूं।'  फ़ख़रुद्दीन चौंके। असल में वामन उनके भांतभांत के पोज देख रहे थे। अंतत: एक पोज को कैमरे में उन्होंने संजो लिया। यह इतना सुंदर था कि वही बाद में सार्वजनिक प्रसारित हुआ। आपको भी तो ऐसा ही अपना कोई अनायास लिया छायाचित्र भा रहा होगा! कला की यही साधना है। किसी एक दृश्य में छायाकार घंटो तपता है या अनायास को लपक लेता है, तब कहीं वांछित पाता है। इसीलिए कहूं, छायांकन प्रकृति में घुले रंगो, दृश्यछटाओं, व्यक्ति की भंगिमाओं से भराभाव भव है। छायांकन के सृजन स्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परम्परा, इतिहास को वहां ध्वनित होते पाएंगे। क्षण जो बीत गया है उसकी स्मृतियां भी झिलमिलाती वहां नजर आएगी। 

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