‘कर्षयति इति कृष्णः’--वह जो आकर्षित करे। बाह्य रूप में ही नहीं, आंतरिक रूप में भी। अवतारों में अकेले श्री कृष्ण हैं जो सोलह कलाओं युक्त हैं। श्री कृष्ण चन्द्र वंश से थे। चन्द्रमा आदि—अनादि शिव कृपा से आकाश में सोलह कलाएं बांटते हैं। वह सोलह कलाओं संग 64 विधाओं यानी गुणों से संपन्न थे। श्री कृष्ण हर छवि में लुभाते हैं। वह रास रचाने वाले हैं। रास माने ‘रस का उत्स’। कहें जिस विचार अथवा क्रिया से रस का उद्भव हो-वह है रास। इसीलिए कहा गया है, ‘रसोत्पद्यते यस्मात् स रासः।’ आत्मा का परमात्मा से मिलन। ऐसा आनंद जो कभी नष्ट नहीं हो। स्त्री-पुरूष देह के मिलन से इसे जोड़कर जो देखते हैं, वह बौद्धिक दरिद्र हैं। ‘रसना समूहो रासः’ माने सभी रसों के समूह का नाम ही रास है। श्रीकृष्ण जीवन को गढ़ने वाले हैं। वह माखन चोर थे। इसीलिए नहीं कि माखन उन्हें प्रिय था, इसलिए कि मां इससे खीझती थी, रीझती थी। और फिर कृष्ण से अधिक मातृभक्त और कौन होगा! गुरू सान्दीपनि के यहां जब उनका विद्याध्यन पूर्ण हुआ तो ज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता देखते उन्होंने वर मांगने को कहा। श्रीकृष्ण ने मांगा, ‘मातृ हस्तैन भोजनम्’। आजीवन मां के हाथ का भोजन मिले। यही हुआ भी। श्री कृष्ण सबसे बड़ें तपस्वी हैं। तपस्या करते हिमालय में उन्हें ब्रर्ह्षि उपमन्यु ने महादेव के एक हजार सिद्धनाम बताए। कृष्ण ने बाद में युधिष्ठर को यह शिव रहस्य सुनाया। वेदव्यास ने महाभारत के अनुशासन पर्व में इसका वर्णन किया है। कलाओं से जुड़ा हूं सो श्री कृष्ण की त्रिभंगी-बांसुरी बजाती भंगिमा पर मन सदा ही रीझता रहा है। कृष्ण है तो मोरपंख भी है। बांसुरी है। धेनु है। कदम्ब का पेड़ भी है। मानों यह संदेश देते हैं कि प्रकृति संग जीवन में ही पूर्णता है! भक्तगण ‘राधे-कृष्ण’ का जाप करते हैं। पर राधा व्यक्तिवाचक नहीं, गुणवाचक है। स्त्रोत से दूर होता प्रवाह ‘धारा’ और मूल की तरफ मुड़ने वाला प्रवाह ‘राधा।’ जयदेव रचित ‘गीतगोविन्द’ की नायिका जन मानस में रूकमणी, सत्यभामा आदि पटरानियों को नेपथ्य में धकेल श्रीकृष्ण के वामांग में प्रतिष्ठित हो गई। कालान्तर में यही राधा लोक चरित्र में कृष्ण के साथ रासलीला में प्रतिष्ठित हो गई।
श्रीकृष्ण पर्व की बहुत बधाई। मंगलकामना। स्वस्ति।![]() |
कलाकृति : मनजीत बावा. साभार! |
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