पत्रिका, 23 अगस्त 2025
कुछ दिन पहले
एक मित्र ने
एब्स्ट्रेक्ट चित्र पर
लिखे को पढ़कर
टिप्पणी करते हुए
कहा कि आप यह कैसे
जान लेते हैं
की यह जो चित्र बना
हुआ है, उसमें
इमारतें हैं, मनुष्य
हैं और उसकी संवेदनाएं हैं। कैसे
आप जान लेते
है कि कलाकार
सृजन में मानवीय
मूल्यों को जी रहा हैं। अब
उसको यह कैसे जवाब देता
कि कलाएं ध्यान
का ज्ञान है।
सिरजने वाले के लिए और
उसका आस्वाद करने
वाले के लिए भी।
एब्सट्रेक्ट क्या है? समग्र के अंशों का उद्घाटन ही तो! यह मनोविज्ञान है। कलाकार बहुत कुछ देखता है, अनुभूत करता है। देखे और अनभुत को हूबहू नहीं उकेरकर सार में दृश्य का अपूर्व रचता है। यह खंड—खंड में अखंड होता है। एब्सट्रेक्ट का एक अर्थ हम करते है—अमूर्त। पर सोचिए, एब्सट्रेक्ट चित्र क्या अमूर्त होता है? कोई मूरत, रूप तो वहां होता ही है। भले वह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में बहुत सुंदर—शब्द सौंपा है—स्वयंप्रतिष्ठ। आकार में और बहुत से आकार, अर्थ में अनेकार्थ स्वयं प्रतिष्ठ ही तो है।
सुप्रसिद्ध दार्शनिक मानवेन्द्रनाथ राय एब्सट्रेक्ट को "जेस्टाल्ट प्रोसेस" कहते हैं। इसमें वस्तुगत जगत को समझने के लिए एक आकार हम बना लेते हैं और फिर उसके आधार पर चीजों को उसके आवरण में हम देखते हैं। यह सब मन की प्रक्रिया है। दीवार में हम कोई धब्बा महसूस करते हैं और फिर इनको मिलाकर घोड़ा, ऊंट बना लेते हैं। आकाश में उमड़ते—घुमड़ते बादलों को देखते हैं और उससे बहुत से और आकारों की कल्पना करने लगते हैं। हबीब तनवीर ने चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए श्याम बेनेगल के आग्रह पर सुप्रसिद्ध लोक कथा 'चरणदास चोर' की स्क्रिप्ट लिखी। याद करें, कहानी के अंत को कलात्मक करते शब्द ध्वनित होते हैं, 'बच्चों यह जो बादल आप देख रहे हैं वह चरणदास है। और यह बादल यमराज का भैंसा।' आनंद कुमार स्वामी इसी को ट्रांसफॉर्मेशन कहते हैं।
कलाओं में एब्सट्रेक्ट का अर्थ है, बंधे—बंधाए रूप से स्वतंत्रता। विचार करें, शासन के निर्देशन में कलाएं जन—मन की नहीं बनती। पहले से प्रकट रूपों की एकरसता वहां होती है। क्यो? इसलिए कि उनमें ऐसा या वैसा बनाने का आग्रह- आदेश जुड़ा होता है। मनुष्य कम से कम शासन पसन्द करता है। मौलिक सृजन में शासन ही सबसे बड़ी बाधा है। यह अधिक से अधिक होगा तो व्यक्ति की महिमा ही गौण नहीं होगी, कलाएं भी बेरंग, रसहीन होंगी।
अज्ञेय की जापानी लोक कथा आधारित बहुत प्यारी कविता है, 'असाध्य वीणा'। राजदरबार में एक वीणा रखी है। कोई भी कलावंत उसे बजा नहीं सका। एक रोज़ केशकम्बली प्रियंवद आता है। वह वीणा को गोद में लेकर बैठ जाता है। ध्यान करता है, वीणा किस पेड़ की लकड़ी से बनी है। उस पेड़ पर कितने—कितने पक्षियों ने बसेरा किया होगा। कितने पशु उसके नीचे से निकले होंगें। कितने हाथियों ने पेड़ के तने से अपनी सूंड को खुजाया होगा! और भी बहुत सी चीजों के ध्यान की यह साधना है। औचक वीणा बज उठती है। दरबार में सब अपने अपने भाव में उसके माधुर्य को ग्रहण करते हैं। अपने मन के अर्थ को उसमें तलाश लेते हैं। यही है, "सब कुछ की तथता"। कला में वस्तु जगत के साथ, व्यक्ति के साथ, समाज के साथ तादात्म्य स्थापित करने की यही साधना क्या एबस्ट्रेक्ट कला नहीं है! इसे देखने—समझने, सिरजने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। इसीलिए कहूं, कलाएं और साहित्य पोथियों का ज्ञान नहीं हैं। हृदय का ज्ञान है। कला और जीवन के इस एब्सट्रेक्ट में ही अर्थगर्भित छटाएं है, शब्द में शब्द झरते हैं। अनुभूतियां गाती है।
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