ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 30, 2022

हिन्दी में कला लेखन

कलाएं जीवन में रंग भरती है पर यह विडम्बना ही है कि हिन्दी में ऐसे लिखे की परम्परा नहीं बनी जिससे लोग कलाओं के निकट आ पाए।  इसका एक कारण शायद यह भी है कि जो लिखा जाता है वह सूचनात्मक या फिर अपनी स्थापना का चरम आग्रह लिए ऐसा होता है कि पढ़ते हुए भी ऊब होती है। लिखे में रसिक होकर शब्द स्वर नहीं घोलेंगे तो यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि आपके लिखे से दर्शक, श्रोता बनें।असल में हिन्दी में कला और कलाकारों पर जो पुस्तकें देखने में आती है या तो वह अकादमिक बोझिलता लिए,  कला सैद्धान्तिकी की रटन्त हैं या या फिर शब्दाडम्बर भर होती हैं। कला से जुड़े भारतीय चिंतन, कलाओं की मौलिक व्याख्या की किताबें तो नगण्य ही हैं। 


राजस्थान पत्रिका, 30 जुलाई, 2022


इस दृष्टि से इधर प्रकाशित पुस्तकों मंक प्रयाग शुक्ल की 'रामकुमार कला कथा' पुस्तक महत्वपूर्ण है। पढ़कर लगा हिन्दी में कला लेखन के अपने संजोए में उन्होंने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। पुस्तक इतनी रोचक है कि पढ़ते रामकुमार की मूर्त—अमूर्त कलाकृतियों से ही अपनापा नहीं होता बल्कि उनके संकोची व्यक्तित्व में घुली उस विराटता से भी औचक साक्षात् होते हैं जब उनके रेखांकनों की प्रदर्शनी का विचार सुझाया जाता है और वह कहते हैं, 'अलग से ड्राइंग्स तो मास्टर्स की दिखाई जाती है?'  अभिषेक कश्यप के संपादन में प्रकाशित इस अपेक्षाकृत छोटे कलेवर की पुस्तक में रामकुमार की यात्राओं के उजलेपन की कला थाह है तो अमूर्त और आकृतिमूलकता के मध्य की आवाजाही और अथाह चुप्पियों का रोचक वर्णन है। वाराणसी से रामकुमार की निकटता के प्रसंगों के साथ कलाकृतियों में बरते रंग और रेखाओं की सौंदर्य रचयिता पर इस पुस्तक में प्रयागजी ने थोड़े में बहुत सारा गुना और बुना है। रामकुमार की कहानियों, उन पर लिखी कविताओं और पत्रों को सम्मिलित कर जैसे उनके समग्र कला व्यक्तित्व का इसमें दृश्यालेख ही पाठकों को सौंप दिया गया है। प्रयाग जी की देश के मूर्धन्य कलाकारों संग आग्रह—पूर्वाग्रह रहित निकटता रही है। क्या ही अच्छा हो, मूर्धन्य कलाकारों की 'कला कथा' की एक शृंखला प्रयागजी ऐसे ही तैयार करें।

बहरहाल, हिन्दी में कलाकारों द्वारा स्वयं अपने सृजन पर कहे को भी बहुत कम सहेजा गया है। इस दृष्टि से मुझे सीरज सक्सेना विरल लगते हैं। सिरेमिक, टेक्सटाइल, काष्ठ, छापा और संस्थापन में उनकी कला प्रयोगधर्मिता में निरंतर बढ़त करती रही है। उनकी पुस्तक 'मिट्टी की तरह मिट्टी' इस रूप में अनूठी है कि इसमें मिट्टी की लोच के सहारे ही सृजन शुरू करने और खत्म करने, समय और उससे मिले दृश्य अनुभवों से उपजते सहज रूपाकार खोजने और हर नये चित्र में पुराने को गहरे से स्थापित करने से जुड़ी उनकी अनुभूतियां हैं। यह ऐसी हैं जिनसे कला और सृजन के अंत:संबंधों से स्वत: अपनापा होता है।

रंगमंच को हमारे यहां चाक्षुष यज्ञ कहा गया है पर हिन्दी में पढ़ने में रूचिप्रद नाट्यकृतियां अभी भी नहीं के बराबर हैं। कुछ समय पहले दया प्रकाश सिन्हा की साहित्य अकादेमी से समादृत 'सम्राट अशोक' नाट्यकृति पढ़ी तो लगा रंगमंच, साहित्य और इतिहास के अंतः:संबंधों में अशोक के जीवन से जुड़ी विडम्बनाओं, कुंठाओं में एक नये अशोक से हम साक्षात् हो रहे हैं। अशोक का 'प्रियदर्शी' नाम रखना, बौद्ध धर्म से  निकटता, पत्नी तिष्यरक्षिता और उसकी महत्वाकांक्षाओं पर बहुत कुछ यहां दृश्य बंध, प्रकाश प्रभाव आदि संग अंवेरा गया है। इसकी शोध पूर्ण प्रभावी भूमिका भी मन को मथती है।

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