ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, March 26, 2022

गति-स्थिति में काल की सनातन संरचना

गति में जीवंत होता नृत्य देह का गान है। काल भी लयबद्ध वहां हमें लुभाता है। महाकाल शिव की नटराज प्रतिमा देखें। अग्नि चक्र के भीतर नृत्य करते वह सृष्टि के उद्भव, स्थिति और संहार को ही जैसे व्यंजित करते हैं। इसीलिए कहें, नृत्य मनोरंजन नहीं देह का जागरण है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पहले नृत्य नहीं था। कौतुक दिखाकर नट नाट्य का आरम्भ करते थे। शिव ने इसमें नृत्य का समावेश कराया। इसी से उनका ताण्डव 108 मुद्राओं, करण और अंगहार रूप में नाट्य का अंग बना। अभिनव ने नाट्यशास्त्र की व्याख्या करते बड़ा सुंदर शब्द बरता है-‘सर्वशिल्प प्रवर्तकम्’। माने नृत्य में सभी शिल्पों का समावेश है। वहां अभिनय, चित्र, वास्तु जैसी तमाम कलाएं ताल-लय में शोभायमान होती है।

राजस्थान पत्रिका, 26 मार्च, 2022

खजुराहो नृत्य समारोह इस बार मंदिरों के बाहर नहीं उनके प्रांगण में हुआ। भरत नाट्यम, कुचिपुड़ी, ओडिसी, कथक आदि की नृत्य प्रस्तुतियां देखते वहां मन भी जैसे नर्तक हो उठा। अलाउद्दीन खां अकादमी के निदेशक जयंत भीषे के साथ खजुराहो में भांति भांति के शास्त्रीय नृत्यों का आस्वाद करते लगा, मंदिर के पाषाणों पर उकेरी मूर्तियां भी वहां जैसे जीवंत हो रही है। केलूचरण महापात्रा की पुत्रवधु सुजाता ने जानकी को ही नहीं कालिदास को भी अपनी प्रस्तुति में जिया तो राजेन्द्र- निरूपमा ने समागम के अंतर्गत भरत नाट्यम और कथक का विरल समन्वय किया। जयरामाराव ने ‘धिमिकित धिमिकित ताल मृदंग’ की आवृति में मुद्राओं का अनुठा लालित्य बिखेरा।  अन्नू-पल्लवी, संध्या पुरेचा आदि के नृत्य में अंतराल, स्थिति और गति में देखने वालों से संवाद कर रहे थे। नृत्य की इन प्रस्तुतियों में रमते लगा, नृत्य व्यक्ति के बाह्य ही नहीं अंतर को भी उद्घाटित करता है। माधवी मुदगल, केलूचरण महापात्र, कुमुदनी लाखिया, अदिति मंगलदास के देखे वह नृत्य भी जैसे जहन में कौंधे जिनमें एक कला में कितनी कितनी कलाएं समाहित होती हस्तमुद्राओं, पद संचलन में जी उठती है। कथकली, भरत नाट्यम में कोण बनते हैं तो ओडिसी में त्रिभंग होता है। मुझे लगता है, नृत्य इसी तरह अवकाश और काल की सनातन संरचना करता हैं। 


नृत्य विसर्जन है। कलाकार देह से प्रायः वहां गौण हो जाता है। यूक्रेन का नर्तक निंजिस्की नृत्य करते इतनी ऊंची छलांगे लगाता कि गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त भी वहां नदारद हो जाता। किसी ने उससे पूछा, कैसे यह संभव होता है? निंजिस्की ने कहा, नृत्य करते वह लापता हो जाता है। खुद उसे नहीं पता होता कैसे वह ऐसे करता है। नृत्य जड़, चेतन, शरीर, आत्मा और मन की गति-स्थिति है। यामिनी कृष्णमृर्ति ने कभी वितस्ता को अपने नृत्य में बांधना चाहा था। अनुभूति में तभी उन्हें जैसे आलोक मिला, ‘नदी और नृत्य में समानता होती है। दोनों ही गति में जीवंत होते हैं।’

मुझे लगता है, अंग-उपांग, प्रत्यंग की अर्थपूर्ण व्यंजना में नृत्य समग्र रूप में कला का सार है। पंचभूत तत्वों से बने शरीर का भाव-भव। नृत्य में मन, बुद्धि और आत्मा का भी जैसे समवाय होता है। अदृष्य के लिए शब्द पर्याप्त नहीं होते, भाषण काल को समेट लेता है परन्तु देश को नहीं। नृत्य देश और काल दोनों को एक साथ स्वीकारता है। इसे वहां देखा-सुना और बांचा भी जा सकता है। आप क्या कहेंगे!


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