ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, March 21, 2022

'आंख भर उमंग' पर--श्री गंगा शरण सिंह

संपादक, अनुवादक और समीक्षक श्री गंगा शरण सिंह ने 'आंख भर उमंग' पर मन से लिखा है—

#किताबें_2022

स्मृतियाँ सँजोती हैं-
यादों का घर।
पर्वतों से बह चली आती है नदी,
झूमते पेड़ों संग
हवाएँ सुनाती हैं-
जंगल का राग,
धोरों की रेत में बरसता है
चाँदनी का हेत
पंख खोल उड़ता मन
सुनता है-
देखा- अदेखा
जीवन संगीत।
हर बार यात्रा ही देती है-
आँख भर उमंग।
किसी किताब का पाँचवाँ पृष्ठ अमूमन समर्पण के लिए सुरक्षित होता है। डॉ राजेश कुमार व्यास के सद्यः प्रकाशित यात्रा संस्मरण 'आँख भर उमंग' के पाँचवें पृष्ठ पर दर्ज यह काव्य पंक्तियाँ उन स्मृतियों को समर्पित प्रतीत होती हैं जिनके रचनात्मक दबाव के चलते इस किताब की रचना सम्भव हो सकी।
यात्रा की स्मृतियाँ जब किसी रचनाकार को स्मृति यात्रा पर बहा ले जाएँ, तभी ऐसी लालित्यपूर्ण, पठनीय कृतियों का जन्म होता है। 'आँख भर उमंग' एक समर्थ कवि का सरस, प्रवाहमान गद्य है। इस काव्यात्मक यात्रा वृत्तान्त से गुजरते हुए पाठक किसी सहयात्री की तरह तमाम तीर्थस्थलों और ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही उस प्रकृति का भी साक्षी बनता जाता है जो इस किताब के हर अंश में अविच्छिन्न रूप से मौजूद है।
किसी कृति की भूमिका या प्रस्तावना इसलिए महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि यहीं से पाठक और उस किताब की आंतरिक दुनिया के बीच एक खिड़की खुलती है। इस यात्रा वृत्तान्त की प्रस्तावना 'पुरोवाक्' मुझे बहुत भायी इसलिए उसी के कुछ सम्पादित अंश आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
◆ यात्रा मन के एकान्त की चाह की राह है। यात्रा में रमे मन के एकांत में ही प्यार और सौन्दर्य के फूल खिलते हैं।
◆ यात्राओं के दौरान ही मन विराट का दर्शन कर पाता है।
यात्रा पथ से गन्तव्य तक पहुँचने की अधीरता है।
◆ जिस तरह से फूल फल ही किसी वृक्ष का एक मात्र लक्ष्य नहीं होता वैसे ही यात्रा का भी अंतिम लक्ष्य किसी स्थान पर पहुंचकर आनंद की प्राप्ति भर नहीं है। किसी स्थान पर पहुंचकर मन के आंगन में जो फूल खिलते हैं, फल लगते हैं वह तो एक पड़ाव है। फल अपने गर्भ में भावी वृक्ष के बीज को जैसे पका रहा होता है, ठीक वैसे ही किसी एक रमणीय स्थान की यात्रा अपने अंदर दूसरे स्थान या स्थानों के बीजों का अंकुरण भी हमारे अंदर कर रही होती है। इन यात्राओं में प्रायः यह भी अनुभूत किया है कि हर यात्रा अंतर्मन आलोक तक पहुंचने का भी गंतव्य है। इस गंतव्य में बहुत सारा पढ़ा हुआ, सुना हुआ और स्मृतियों में संचित ही सबसे बड़ा पाथेय होता है। जब तक कहीं नहीं पहुंचते, उस स्थान का अनजानापन रहस्य के आवरण में घुम्मकड़ मन को और अधिक अन्वेषण के लिए उकसाता है। पहुंचने पर उस स्थान का अनजानापन आत्मीयता में घुल जाता है। आँख की उमंग के सहारे यह हमारा अपना हो जाता है।
● आँख भर उमंग (यात्रा संस्मरण)
● डॉ राजेश कुमार व्यास
● राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (NBT)
● पृष्ठ: २५०
● मूल्य: ₹ ३१०

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