ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, September 7, 2024

दृश्य के पार अदृश्य का मनोरम रचते हालोई

पत्रिका, 24 अगस्त 2024

बंगाल कलाओं की उर्वर भूमि है। यहीं से ब्रिटिश राज में भारतीय कला की आधुनिक दृष्टि 'बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट' का प्रसार हुआ। अवनीन्द्रनाथ ठाकुर इसके प्रवर्तक थे।अबन ठाकुरके रूप में उनका बाल साहित्य भी तो बंग्ला साहित्य की अनुपम धरोहर है! उनकी कलाकृतियों में बरते रंगों में भी सदा किसी मासूम बच्चे की सी खिलखिलाहट अनुभूत की है। यह महज संयोग ही नहीं है कि यही खिलखिलाहट अमूर्तन में कला की इस दौर की भाषा रचने वाले गणेश हालोई के चित्रों में भी है। वह भी बंगाल के ही हैं।

कुछ समय पहले कोलकाता जाना हुआ तो उनके निवास स्थान जाने का भी संयोग हुआ। प्रयाग शुक्ल जी और कलाकार यूसुफ के संग उनसे बतियाना हुआ। लगा किसी संत से भेंट हो रही है। सहज, शांत और निश्छल व्यक्त्तिव! उनकी कलाकृतियों में भी यही सबसमाया है। कला की परिपक्वता पर दृश्य का अनूठा अबोधपन! अमूर्तता पर उसको समझने की जटिलता नहीं। सीधी, वक्र, लहरदार रेखाएं पर उनमें समाई अनूठी लय। जितना दृश्य का मनोरम वहां है, उतना ही अदृश्य की एकरसता भंग करने वाली साधना भी।

गणेश हालोई न्यूनतम रेखाओं में छवियों का आकाश रचते हैं। वह कहते भी हैं, 'अमूर्ततता ही सुंदर होती है। वास्तविकता दम घोंटने वाली होती है।' सत्तर के दशक में उन्होंने 'मेटास्केप' चित्र शृंखला सिरजी थी। मुझे लगता है यह यथार्थ से बिम्ब, प्रतीकों और भावों की ओर उनका कलाप्रस्थान था। कभी उन्होंने अजंता में रहकर भित्ति चित्रों की प्रतिकृतियां बनाई थी। पर अचरज होता है, उनके सिरजे में भारतीय कला की वह सुगंध तो है पर उसका अनुकरण नहीं है। सूफियाना फक्कड़पन वहां है। कैनवस और कागज पर उन्होंने धान के खेत, घास के मैदान, रहस्यमय नदियां, पहाड़, गुफाओं और जीवन से जुड़ी कहानियां सिरजी है। बंग्ला कवि जीवनानंद दास की कविताओं के तत्वों को भी उन्होंने अपनी कलाकृतियों में जीवंत किया है। बंगाल की भूमि और उसकी जलवायु को रंगों की सतहों संग क्षणभंगुर ब्योरों में उन्होंने सहज ही कैनवस पर उकेरा है। धूप, हवा, बहती नदी, सूरज की किरणें, बरसते बादल, बरखा की बूंदे और पलपल बदलता मौसम और इनसबमें घुलती और औचक लोप होती सी मानवीय आकृतियां भी। उनके घर पर जब बैठे बतिया रहे थे, उनने कहा, 'चित्रकला समझ से प्रारंभ होती है और आश्चर्य पर समाप्त होती है।' उनकी कलाकृतियों का सच यही है।

अपनी कलाकृतियां  दिखाते, कविताएं सुनाते कोई दिखावा, प्रदर्शन नहीं। प्राय: ऐसा नहीं करता पर मैं अपने को रोक नहीं पाता और वहीं किताबों के पास पड़े एक आमंत्रण पत्र को उठा लेता हूं। उन्हें सौंपते हुए ऑटोग्राफ देने का आग्रह है । निश्छल मुस्कान संग वह वह पैन से कुछ बनाने लगते हैं। तीन छोटी खड़ी रेखाएं, उनसे निकली कुछ टहनियां सी, जल का आभास कराती लहरदार रेखाएं, टेढ़ी और उन्हें क्रॉस करती और दो रेखाएंपक्षी का अहसास कराती एक आकृति और किनारे जल किनारे टापू सा बना कुछ! ठीक से वर्णित नहीं कर सकते, क्या बना है, पर मनोरम। वह हस्ताक्षर करते हैं और मेरा नाम लिखकर सौंप देते हैं।

अनुभूत करता हूं, गणेश हालोई दृश्य के पार जाते हैं। अंतर्मन उजास में अनुभूतियों का विरल रचते हैं। प्रकृति की लय का जैसे सांगीतिक छंद। हरे, नीले, पीले और धूसर में उन्होंने संवेदनाओं का उजास उकेरा है। रोशनी और अंधेरा पर स्पेस का अद्भुत विभाजन! भले ही उनके चित्र अमूर्त हैं, पर वहां दृश्य की सुगंध इस कदर समाई है कि बारबार रिझाती वह अपने पास बुलाती है।

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